Monday, March 29, 2010

नायक और खलनायक-व्यंग्य कवितायें (nayak aur khalnayak-hindi vyangya kavitaen)

धोखे, चाल और बेईमानी का
अपने दिमाग में लिये
बढ़ा रहे हैं वह अपना हर कदम,
अपनी जुबान से निकले लफ्ज़ों
और आंखों के इशारो से
जमाने का भला करने का पैदा कर रहे वहम।
भले वह सोचते हों मूर्ख लोगों को
पर हम तोलने में लगे हैं यह कि
कौन होगा उनमें से बुरा कम,
किसे लूटने दें खजाना
कौन पूरा लूटेगा
कौन कुछ छोड़ने के लिये
कम लगायेगा दम।
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अपने को नायक दिखाने के लिये
उन्होंने बहुत सारे जुटा लिये
किराये पर खलनायक,
अपने गीत गंवाने के लिये
खरीद लिये हैं गायक।
यकीन अब उन पर नहीं होता
जो जमाने का खैरख्वाह
होने का दावा करते हैं
अपनी ताकत दिखाने के लिये
बनते हैं मुसीबतों को लाने में वही सहायक।
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Thursday, March 25, 2010

ख्यालों के खेल में-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (khyalon ke khel men-hindi satire poem)

खुद रहे जो जिंदगी में नाकाम
दूसरों को कामयाबी का
पाठ पढ़ा रहे हैं।
सभी को देते सलीके से काम करने की सलाह,
हर कोई कर रहा है वाह वाह,
इसलिये कागज पर दिखता है विकास,
पर अक्ल का हो गया विनाश,
एक दूसरे का मुंह ताक रहे सभी
काम करने के लिये
जो करने निकले कोई
उसकी टांग में टांग अड़ा रहे हैं।
ऐसे कर
वैसे कर
सभी समझा रहे हैं।
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अपने अपने मसलों पर
चर्चा के लिये उन्होंने बैठक बुलाई,
सभी ने अपनी अपनी कथा सुनाई।
निर्णय लेने पर हुआ झगड़ा
पर तब सुलह हो गयी,
जब नाश्ते पर आने के लिये
आयोजक ने अपनी घोषणा सुनाई।
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तंग सोच के लोग
करते हैं नये जमाने की बात,
बाहर बहती हवाओं को
अपने घर के अंदर आने से रोकते,
नये ख्यालों पर बेबात टोकते,
ख्यालों के खेल में
कर रहे केवल एक दूसरे की शह और मात।
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Tuesday, March 16, 2010

मुंह फेर लिया-हिन्दी शायरी

हमने तो उनको मौका दिया
वफा निभाने
अपनी जरूरत बताकर
उन्होंने लाचारी समझकर मुंह फेर लिया।
अपनी ताकत दिखाकर वह खुश होंगे
पर शायद ही सोचा हो कि
उन्होंने अपने विश्वास को खो दिया।
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हाथ उठाकर कुछ नहीं मांगा
पर इशारों में समझाकार
अपना आसरा उन पर टिका दिया।
अपना घर सजाने के लिये
उन्होंने हमारा पूरा पसीना चूसा
पर निभाने की बात आई तो मुंह फेर लिया।

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Friday, March 12, 2010

गरीब के कल्याण का सवाल-व्यंग्य चिंतन (welfare of poor man-hindi satire article)

अमेरिका में एक गोरी महिला पर आनलाईन आतंकवादी भर्ती करने का मुकदमा दर्ज हुआ है। बताया गया है कि वह लोगों को मीठी बातों में फंसाकर अपने जाल में फंसाती थी। दुनियां भर के गरीबों का भला करने की बात करती थी! भर्ती करने वालों को धन का प्रलोभन भी देती थी! वगैरह वगैरह! उस अमेरिकन ने अपना अंग्रेजी नाम बदल भी लिया था ताकि वह धर्म के नाम पर गैर अमेरिकन लोगों में अपनी पहचान बना सके।
यह आलेख केवल उस महिला पर ही नहीं है बल्कि उसकी प्रकटतः प्रकृत्तियों पर है जो अनेक जगह अनेक लोगों में देखने को मिलती है। जिसमें सबसे अधिक है गरीबों का भला करने की बात! इसलिये हिंसा कर महामानव के रूप में प्रतिष्ठत होने का एक ख्वाब जो एक हर चालाक बुद्धिमान देखता है।
गरीबों के भले की बात करते देखकर बुद्धिमानों पर कोई हंसता नहीं है क्योंकि लोगों की सोच स्वतंत्र नहीं रही। हम यहां भारत की क्या बात करें अमेरिका और ब्रिटेन में यही हालत हैं-आखिर उनकी शिक्षा पद्धति ही हमारे समाज ने अपनायी है।
गरीब का भला! मेहनतकश के साथ न्याय! दुनियां के उस आखिर आदमी के लिये लड़ने की बात जिसे दो समय की बात क्या एक समय के लिये भी खाना नहीं मिलता। इसके लिये जंग करने वाले बताते हैं कि दुनियां का पूरा पैसा कुछ व्यक्तियों, समाजों या राष्ट्रों के पास जा रहा है जिनको परास्त करना आवश्यक है ताकि दुनियां से गरीबी और भुखमरी मिट सके। इसके लिये वह बंदूकें, गोलियां और बम जुटाते हैं जैसे कि उनसे खाना बना रहे हों।
कुछ ऐसे भी हैं जो यह सब नहीं करते पर पर्दे के पीछे बैठकर फिल्में, टीवी धारावाहिक या रेडियों पर उनकी जंग का प्रचार करते हैं। अखबारों में लेख वगैरह लिखते हैं। दुनियां की पंक्ति में सबसे आखिर में खड़े भूखे, नंगे और बेकार आदमी का भला करने का यह ख्वाब खूब चलता है। कहते हैं कि आदमी अपनी विपरीत स्थितियों में मनोरंजन ढूंढता है। अमेरिका की सभ्यता धनाढ़य, गौरवर्ण तथा आधुनिक शिक्षित वर्ग की भीड़ से सजी है इसलिये उनको गरीब-भूखे-नंगे, निम्न वर्ग तथा अशिक्षित वर्ग के विषयों में मनोरंजन मिलता है जबकि हमारे भारत में सभी गरीब और भूखे नहीं है पर यहां उनके सामने ऐसा दृश्य प्रस्तुत करने वाला वर्ग प्रतिदिन विचरता है इसलिये उनको धनाढ्य तथा गौरवर्ण कथानकों में आनंद मिलता है। हम भारत ही क्या अधिकांश एशियाई देशों में यह दोष या गुण देखते हैं। यही कारण है कि इस इलाके में आतंकवाद जमकर पनपा है। मजे की बात यह है कि पूरे विश्व के लिये अध्यात्मिक ज्ञान का सृजन भी एशियाई देशों के नेता भारत में ही हुआ है। कहते हैं कि गुलाब कांटों में तो कमल कीचड़ में पनपता है। भारत का अध्यात्मिक ज्ञान इतना प्रभावी इसलिये है क्योंकि यहां अज्ञान अधिक फलताफूलता रहा है। गरीब का भला और बेसहारों को सहारा देने के नाम पर एशिया के लोग बहुत जल्दी प्रभावित हो जाते हैं।
अमेरिका की उस महिला ने भी आखिर क्या प्रचार किया होगा? यही कि गरीबों का भला करने के लिये चंद लोगों का मरना जरूरी है या गोली और बम के धमाकों से भूखे के लिये रोटी पकेगी तो गरीब की गरीबी दूर हो जायेगी।
पंच तत्वों से बनी इस देह में जो मन रहता है उसे समझना कठिन है और जो समझ ले वही ज्ञानी है। आम इंसान अपना पूरा जीवन अपने स्वार्थों में लगाता है पर उसका मन कहीं न कहीं परमार्थी की उपाधि पाने के लिये भटकता है। अनेक ऐसे लोग हैं जिन्होंने पूरी जिंदगी में किसी का भला नहीं किया पर ऐसे किस्से सुनाकर अपना दिल बहलाते हैं कि ‘हमने अमुक का भला किया’ या ‘अमुक को बचाया’। उनको गरीबों का भला करना तथा भूखे को रोटी खिलाना एक अच्छी बात लगती है बशर्ते स्वयं यह काम न करना पड़े। ऐसे में अगर कुछ लोग यह काम करते हैं तो वह उनकी प्रशंसा करते हैं पर अगर कोई ऐसा करने का दावा करने लगे तो उसे भी प्रशंसनीय मान लेते हैं। कुछ युवा क्रांतिकारी होने का सपना लेकर गरीबों का भला करने के लिये उपदेशकों की बातों में हिंसा भी करने को तैयार हो जाते हैं बशर्ते कि उनको सारी दुनियावी सुविधायें उपलब्ध करायी जायें और जिनके लिये पैसा खर्च होता है। मूल बात इसी पैसे पर आकर टिकती है जो धनपतियों के पास ही है जिनके विरुद्ध गरीबों के कथित मसीहा बोलते रहते हैं-इनमें बहुत कम ऐसे है जो अपनी जान देने निकलते हैं बल्कि अपनी बातों से दूसरे को अपनी जान देने को तैयार करते हैं-जन्नत में स्थाई सदस्यता दिलाने के वाद के साथ! ऐसे बहुत सारे मसीहा जिंदा हैं पर उनके बहुत सारे शगिर्द काल कलवित हो गये-और इन गुरुओं को इसकी बिल्कुल चिंता नहीं है क्योंकि उनके प्रायोजित विद्यालय निरंतर नये लड़कों का सृजन करते रहते हैं। मूल प्रश्न का उत्तर आज तक किसी ने नहीं दिया कि पैसा कहां से आता है?
कहते हैं कि दुनियां के सारे धर्म गरीबों का भला करना सिखाते हैं। यह एक मजाक के अलावा कुछ नहीं है। सारे धर्म के मतावलंबियों और सर्वशक्तिमान के बीच एक मध्यस्थ होता है जो उसका परिचय अपने समूह के लोगों से कराता है। सभी की भाषायें है और पहचान के लिये वस्त्रों के रंग भी तय हैं-गेरुआ, हरा, सफेल और अन्य रंग। नाम भी अब स्थानीय भाषा के नाम पर नहीं बल्कि धर्म की भाषा के आधार पर रखते जाते हैं। एक आदमी जब धर्म बदलता है तो नाम भी बदल देता है। अनेक लोग पैसा लेकर या भविष्य में विकास का वादा करने पर धर्म बदल देते हैं। यह एक क्रांतिकारी मजाक है जो अक्सर अनेक देशों में दिखाइ्र्र देता है। अभी तक धार्मिक मध्यस्थ केवल सर्वशक्तिमान और इंसान के बची की कड़ी थी पर ऐसा लगता है कि जैसे कि उन्होंने अमीरों और गरीबों के बीच में भी अपना पुल बना लिया है। गरीबों को आतंक फैलाने तो अमीरों को उससे फैलते देखनें के मनोरंजन में व्यस्त रखने के लिये आतंक उनके लिये एक व्यापार हो गया है जिसे वह अपने ढंग से धर्म फैलाने या बचाने का संघर्ष भी कहते हैं कई जगह गरीबों के उद्धार की भी बात की जाती है। यकीनन अमीरों से उनको पैसा मिलता है। यह पैसा अमीर अपने एक नंबर के धंधे को बचाने या दो नंबर के धंधे को चलाने के लिये देते होंगे। दुनियां के सारे भाषाई, जातीय, धार्मिक तथा क्षेत्रीय समूहों पर ऐसी ही अदृश्य ताकतों की पकड़ है जिसमें मौलिक तथा स्वतंत्र सोच रखने वाले पागल या अयथार्थी समझे जाते हैं। इस बात का पूरा इंतजाम है कि हर व्यवस्था में तय प्रारूप में ही बहसें हों, विवाद हों और प्रचार तंत्र उनके इर्दगिर्द ही घूमता रहे। दो विचारों के बीच दुनियां के लोग भटकें-गरीब का भला और विकास-जिसमें अमीरों का वर्चस्व रहता है। इस दुनियां में दो प्रकार के लोग हैं एक तो वह जो गरीबों का भला होते देखना चाहते है-स्वयं कितना करते है यह एक अलग प्रश्न है-दूसरा वह वर्ग है जो विकास चाहता है। बीच बीच में भाषा, धर्म,जाति तथा क्षेत्रीय पहचान को लेकर भी बहसें और विवाद होते हैं पर उनमें भी गरीबों का भला या विकास का मुद्दा कहीं न कहीं होता है भले ही उसका नंबर दूसरा हो।
टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में चलने वाली इन बहसों से अलग होकर जब हम सड़क पर देखते हैं तो सारा दृश्य बदल जाता है। पेट्रोल का धुंआ उगलते विलासिता के प्रतीक वाहनों में सवार अमीर लोग अपनी राह चले जा रहे हैं। गरीब आदमी ठेले पर अपना सामान बेचने जा रहा है। अमीर चीज का भाव पूछता है गरीब बताता है। अमीर भाव कम करने के लिये कहता है। वह करता है कभी नहीं भी करता है। अस्पतालों में गरीब इलाज के लिये ठोकरें खाता नज़र आता है। सबसे बड़ी बात यह कि हम जैसे लेखक जब एक आदमी के रूप में धक्का खाते है तब अपने आप से सवाल पूछते हैं कि आखिर हमारा भला चाहता कौन है?
ऐसे ढेर सारे प्रश्नों से जूझते हुए जब कोई अखबार पढ़ते या टीवी देखते हुए गरीबों के कल्याण और मेहनतकश के न्याय पर बहस देखता और सुनता है तो उसे वह निरर्थक, अयथार्थ तथा काल्पनिक लगती है। शायद ऐसी बहसें बौद्धिक विलासिता का हिस्सा हैं पर इनके आयोजक इसका फोकट में नहीं करते। मुख्य बात यह कि पैसा कहां से आता है! शायद वहीं से आता होगा जहां से गोलियां, बम और बंदूकें खरीदने के लिये दिया जाता है। संभव है यह सब भयानक सामान बनाने वाले दलालों को अपना सामान बिकवाने के लिये पैसे देते हों। पहले आतंकी खरीदेगा तो फिर उससे बचने के लिये पहरेदार भी खरीदेगा। आतंकी एक, दो, तीन या चार होते है पर पहरेदार तो हजारों हैं। पूरी दुनियां में लाखों हैं। सब कुछ सोचते हुए आखिर वहीं खड़े हो जाते हैं और अपने आप से ही कहते हैं कि ‘कहां चक्कर में पड़ गये यार’। कुछ बेकार कवितायें लिखो या कोई चुटकुला लिखो। दिल बहलाने के लिये इससे अच्छा साधन क्या हो सकता है।
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Tuesday, March 09, 2010

संतों का कर्म और आचरण प्रमाणिक होना चाहिये-हिन्दी लेख (sadhu aur santon ka achran-hindi article)

अपने आपको धर्मात्मा कहलाने की चाहत किसे नहीं होती। कई लोग तो ऐसे हैं जो धर्म के नाम पर न तो दान करते हैं न ही भक्ति उनको भाती है पर दूसरों के सामने अपने धर्मात्मा होने का बखान जरूर करते हैं। कुछ तो ऐसे हैं जो सर्वशक्तिमान के दरबार में हाजिरी लगाने ही इसलिये जाते हैं ताकि लोग देखें और उनका भक्त या धर्मात्मा समझें। सीधी बात कहें तो यह सामान्य मनुष्य की कमजोरी है कि वह सदाचारी, संत धर्मात्मा और बुद्धिमान दिखना चाहता है-यह अलग बात है कि अपने कर्म से उसे प्रमाणित करने की बजाय वह उसे अपनी वाणी या अदाओं से ही अपना उद्देश्य हल करना चाहता है। ऐसे में उन लोगों की क्या कहें जिनके पास सदाचारी, संत, धर्मात्मा और बुद्धिमान जैसे ‘विशेष उपाधियां’ एक साथ मौजूद रहती हैं।
इस समय देश के अधिकतर प्रसिद्ध संत व्यवसायिक हैं। उनके प्रवचन कार्यक्रमों में असंख्य श्रद्धालू भक्त आते हैं। इनमें कुछ समय पास करने तो कुछ ज्ञान प्राप्त करने के लिये वहां अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं और जैसा कि पहले ही बताया गया है कि कुछ लोग अपनी छबि निर्माण के लिये भी वहां जाते हैं। अगर ऐसे संत प्रवचन कार्यक्रमों के अलावा कोई दूसरा काम न करें तो भी उनके साधु, संत या धर्मात्मा की उपाधि उनसे कोई छीन नहीं सकता। उनकी छबि यह है कि ज्ञानी भक्त भी उनकी वंदना न करने के बावजूद उनकी समाज को मार्गदर्शन करने के विषय में उनकी भूमिका स्वीकार करते हैं। इसके बावजूद ऐसी महान विभूतियां संतुष्ट नहीं होती। दरअसल उनका असंतोष इस बात को लेकर भड़कता है कि वह पुराने धार्मिक पात्रों की कथाओं का बोझ ढोते हैं पर स्वयं उनकी सर्वशक्तिमान जैसी छबि नहीं बन पाती। वह संत या साधु होने की छबि से ऊपर उठकर ‘सर्वशक्तिमान’ जैसी उपाधि पाना चाहते हैं। उनके अंदर जब यह भावना पनवती है तब शुरु होता है माया का तांडव। तब वह अपनी अर्जित संपत्ति से कथित रूप से दान पुण्य कर दानी की वैसी ही छबि भी पाना चाहते हैं जैसी कि धनपतियों की होती है।

बड़े बड़े ऋषि, महात्मा और संत इस माया की विकरालता की पहचान बता गये हैं। सच तो यह है कि माया संतों की दासी होती है पर शुरुआत में ही। बाद में वह संत ही उसके दास होते हैं। संतों के पास माया आयी तो वह उनकी बुद्धि भी हर लेती है-वैसे अनेक संत और साधु इससे अपने को बचाये रखने का कमाल कर चुके हैं तब भी कथित रूप से उनके अनुयायी होने का दावा करने वाले कुछ साधु और संत उस माया से संसार पर प्रभाव जमाने लगते हैं। तब यह भी पता लगता है कि किताबों से रटा हुआ उनका ज्ञान केवल सुनाने के लिये है। अनेक संत बड़े बड़े आश्रम बनवाने लगते हैं। विद्यालय खोलने लगते हैं। इतना ही नहीं दानवीर और दयालु भाव दिखाते हुए लंगर, दान और उपहार वितरण भी करने लगते हैं जो कि आम धनिक का काम है। संतों का व्यवहार धनपति की तरह हो जाता है। तब यह समझ में नहीं आता कि आखिर यह संत अपने आपको इस सांसरिक झंझट में क्यों फंसा रहे हैं? धनपति मनुष्य को गरीब आदमी पर दया करना चाहिये। इसका आशय यह है कि वह अपने क्षेत्र में आने वाले गरीब लोगों के लिये रोजगार का प्रबंध करे और आवश्यक हो तो उनको दान भी करे। यह संदेश देना ही साधु और संतों का काम है। सदियों से ऐसा चलता आया है। इतना ही नहीं केवल संदेश देने और कथा करने वालों का भी यही समाज पेट पालता रहा है। यही कारण है कि समाज का एक भाग होते हुए भी साधु संत आम आदमी से ऊपर माने जाते हैं। उपदेश देने के अलावा दूसरा का न भी करें तब भी समाज के लोग उनको आदर देते हैं और उनको कभी अकर्मण्य होने का ताना नहीं देते।

मगर माया का अपना खेल है और उसे समझने वाले ज्ञानी ही उसमें नहीं फंसते। फंस जायें तो गेरुए वस्त्र पहनने वाले भी फंस जाये न फंसे तो आम जीवन जीने वाले भी बच जायें। अधिकतर आधुनिक व्यवसायिक संतों ने श्रीमद्भागवत गीता के ज्ञान से कितनों को संतुष्ट किया यह तो पता नहीं पर ऐसा करते हुए उन्होंने अपना विशाल आर्थिक सम्राज्य खड़ा कर लिया है-दूसरे शब्दों में कहें तो उन्होंने माया का शिखर ही खड़ा कर लिया।
माया का शिखर न कभी बेदाग होता है और न निरापद रह सकता है। आश्रम विशाल होगा तो उसमें सज्जन भक्त आयेगा तो भक्त के भेष में दुर्जन भी आयेगा। इसकी पहचान करने की शक्ति माया के तेज से आंखें ढंकी होने के कारण न तो संत कर सकते हैं ही उनके चेले। अगर विद्यालयों में हजारों बच्चे आते हैं तो उनके साथ कभी कोई दुर्घटना भी हो सकती है। कहीं भोजन बन रहा है तो उसमें कोई ऐसी चीज भी आ सकती है जो सभी को बीमार कर सकती है। कहीं दान या उपहार बंट रहा है तो भारी भीड़ भी हो सकती है जहां भगदड़ मचने पर लोग हताहत भी हो सकते हैं। तय बात है कि जहां सांसरिक कार्य है वहां संकट भी आ सकता है तब यह जिम्मा इन्हीं संतों पर आता है।
फिर यह संत ऐसे खतरे क्यों मोल लेते हैं?
दरअसल श्रीगीता का ज्ञान बहुत सुक्ष्म और संक्षिप्त है पर गुढ़ कतई नहीं है-जैसा कि कथित संत प्रचारित करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने इसमें यह साफ कर दिया है कि हजारों में कोई एक मुझे हृदय से भजता है और उनमें कोई एक मुझे पाता है। इस एक तरह के लोग भी हजारों में होते हैं जिनमें कोई एक मुझे प्रिय होता है। श्रीगीता का यह गणित इस संसार के मानवीय स्वभाव के सूत्र बताता है-ढूंढने वाले चाहें तो ढूंढ सकते हैं। अगर यह संत ऐसे ज्ञान बनाने या ढूंढने चलें तो इनका इतना विशाल सम्राज्य खड़ा नहीं हो सकता। ज्ञानी लोग माया का पीछा नहीं करते बल्कि जितना है उतने से ही संतुष्ट हो जाते हैं। समस्या यह भी है कि ऐसे ज्ञानी इन संतों के पास जायेंगे क्यों? गये तो फिर पैसा क्यों देंगे? कथित संतों की दृष्टि से ऐसे ज्ञानियों की महिमा यूं भी कही जा सकती है कि ‘नगा नहायेगा क्या, निचोड़ेगा क्या?’
यही कारण है कि यह व्यवसायिक संत लोकप्रियता बनाये रखने के लिये सस्ते किस्म के काम करने लगते हैं जिससे लोग प्रभावित तो होते ही हैं माया भी पास बनी रहती है-प्रत्यक्ष रूप से दासी जो ठहरी, अप्रयत्क्ष रूप से दास को बचाये रहती है। संत का काम दान देना है लेना नहीं। सच तो यह है कि कुछ ज्ञानी लोग संतों के लंगर आदि में जाना या उपहार लेना पसंद भी नहीं करते क्योंकि वह मानते हैं कि वह इसके लिये कुपात्र हैं।
कथित व्यवसायिक संत शुद्ध रूप से राजनीतिक दृष्टिकोण से चलते हैं। जिस तरह राजनीति में गरीबों, बेसहारों, और बीमारों की सेवा की बात कही जाती है वैसा ही यह लोग करते हैं। समाज के शक्तिशाली, विशिष्ट, तथा धनिक वर्ग का यह मानवीय दायित्व है कि वह बिना मांगे गरीब की आर्थिक देखभाल, बेसहारों की सहायता और बीमारों के लिये इलाज का इंतजार कराये पर जब यह संत स्वयं काम करने लगें तो यह मान लेना चाहिये कि उनको अपने भक्तों और शिष्यों पर भरोसा ही नहीं है। ‘अहम ब्रह्मा’ का भाव उनको पूरे समाज के प्रति अविश्वसीय बना देता है।
समझ में नहीं आता कि आखिर यह संत किस दिशा में जा रहे हैं? हां, अगर हम मान लें कि यह मायापति हैं और उन्हें ऐसा ही करना चाहिए। फिर भी बात यहीं खत्म भी नहीं होती। इनमें कुछ संत सर्वशक्तिमान का अवतार होने का दावा करते हैं। यह एक तरह का मजाक है। थोड़ी देर के लिये हम धार्मिक होकर विचार करें। हमारे प्राचीन ग्रंथों में भगवान के जो अवतार वर्णित हैं वह सभी सांसरिक कर्म में ‘सक्रियता’ के प्रतीक हैं और उनमें कहीं न कहीं योद्धा होने का बोध होता है। उन्होंने हर अवतार में समाज के संकटों का प्रत्यक्ष होकर निवारण किया है। दुष्टों के सामने सीधे जाकर उनका सामना किया है। कहने का तात्पर्य यह है कि कम से कम साधु और संत की सीमित भूमिका उनकी किसी भी अवतार में नहीं है। तब यह संत किस तरह दावा करते हैं कि वह अमुक स्वरूप का दूसरा अवतार हैं? न उनको अस्त्रों शस्त्रों का ज्ञान और न ही किसी दुष्ट के सामने सीधे जाकर उससे टकराने की क्षमता। मगर माया जब सिर चढ़कर बोलती है और भगवान का अवतार साबित करने के लिये वह लोग ऐसे काम करते हैं जो सामान्य लोगों को करना चाहिए।
आखिर बात ज्ञान और माया की स्थिति की। रहीम एक राज दरबार में कार्यरत थे, मगर कबीर तो एक मामूली जुलाहा थे। मीरा राजघराने की थी पर तुलसीदास तो एक सामान्य परिवार के थे। भगवान श्रीराम और श्रीसीता का जन्म राजघराने मेेें हुआ पर दोनों ने 14 बरस वन में गुजारे। भगवान श्री कृष्ण का जन्म गौपालक परिवार में हुआ और जिन्होंने जीवन संघर्ष कर धर्म की स्थापना करते हुए श्रीमद्भागवत गीता के रूप में एक अमृत ग्रंथ प्रदान किया। संत रैदास भी एक अति सामान्य परिवार के थे। श्रीगुरुनानक जी का जन्म एक व्यापारी परिवार में हुआ पर उन्होंने भारतीय अध्यात्म को अपनी ज्ञान से एक नयी दिशा दी। कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे देश में अनेक महापुरुष हुए है पर किसके पास कितनी माया या धन था इसे इतिहास दर्ज नहीं करता बल्कि उन्होंने अध्यात्मिक दृष्टि से भारतीय धर्म और संस्कृति को कितना प्रकाशित किया इसकी व्याख्या करता है। भारतीय अध्यात्म की पहली शर्त यही है कि आपका ज्ञान और आचरण एक जैसा होना चाहिये तभी आपको मान्यता मिलेगी वरना तो बेकार की नाटकबाजी कर तात्कालिक लोकप्रियता-जो कि एक तरह से भ्रम ही है-प्राप्त कर लें पर उससे आप स्वयं इस संसार से अपना उद्धार नहीं करेंगे दूसरे का क्या करेंगे?
वैसे संतों की निंदा या आलोचना वर्जित है पर यहां यह भी बात याद रखने लायक है कि इसके लिये भी उनकी परिभाषा है वह यह कि लोगों के मानने के अलावा उनका आचरण भी वैसा ही प्रमाणिक हो। गेरुए या सफेद वस्त्र पहनने वाले हर व्यक्ति को संत, सन्यासी या साधु मान लिया जाये यह कहीं नही लिखा। ऐसे में जो संतों का चोला पहनकर धर्म का व्यापार कर रहे हैं उन पर लिखना बुरा नहीं लगता खास तौर से जब कथित साधु संत अपनी ही छबि से संतुष्ट नहीं होते।



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Monday, March 01, 2010

चरित्र की कालिख-होली पर हिन्दी लघुकथा तथा हंसिकायें (chartra par kalikh-hindi short story and comic poem on happy holi)

वह दो नंबर की कमाई के कारण बदनाम हो गये थे। तमाम तरह की जांचें चल रही थी। अखबार में बहुत सारी बातें अक्सर उनके बारे में छपती रहती हैं। इस बार होली पर लोग उनके घर पर पहुुंचे। लोगों का क्या है? वह तो जिसके पास भी दौलत होती है उसके बारे में यही कहते हैं कि ‘बदनाम हुआ तो क्या नाम तो है?’
इस कारण उनसे फायदा उठाने वाले सेठ, झूठन पर पलने वाले चमचे और काली कमाई से वेतन पाने वाले कर्मचारियों का समूह उनके घर एकत्रित हो गया। साहब अंदर थे और इधर बाहर बैठे लोग उनका इंतजार कर रहे थे।
साहब थे कि बाहर नहीं आ रहे थे। इधर उनके चाहने वालों का धीरज टूटा जा रहा था। तब एक चपरासी अंदर गया और साहब से बोला-‘साहब बाहर आईये। लोग होली पर आपको रंग लगाने आये हैं। सभी आपके साथ पिछली बार मनाई गयी होली को याद कर रहे हैं।’
साहब ने कहा-‘जाओ, उनसे कहो। इस बार रंग नहीं केवल गुलाल लगायेंगे क्योंकि पानी की कमी है। उसे बचाने के लिये इस बार सूखी होली मनायेंगे।
चपरासी बाहर आया। उसने लोगोें से कहा कि ‘साहब ने कहा है कि इस बार सूखी होली खेलेंगे। देश में पानी की कमी है इसलिये उसे बचाना है। साहब जब बाहर आयें तो आप केवल गुलाल लगाना।’
सब ने हामी भरी। चपरासी अंदर गया। तब एक सेठ ने दूसरे से कहा-‘पर पानी बचाने की बात तो पिछले साल थी। तब तो खूब होली खेली थी। इस बार यह क्या हुआ?’
दूसरे सेठ ने कहा-‘धीरे बोलो यार। इस बार इनके नाम पर अखबारे के काले अक्षरों में जाने क्या क्या छपा है? सुना है काले रंग से ही वह डरने लगे हैं। पिछली बार लोगों ने काले रंग से मुंह पोत दिया था। वह फोटो अखबारों में भी छपा था। अब उनको डर है कि कहीं वही फोटो अखबार वाले निकाल न लायें। ऐसे में अगर किसी ने उन पर काला रंग पोता और उसकी फोटो अखबारे में छपी तो कितना बुरा लगेगा।’
तीसरा एक इस बात को सुना रहा था। उसने कहा-‘एक बात याद रखना! गुलाल भी माथे पर ही लगाना। मुंह पर पोता तो गुस्सा हो जायेंगे। आजकल वह अपना चेहरा उजला दिखाने का प्रयास करने लगे हैं।’
पहले सेठ ने कहा-‘हां, भई अपने पाप पीछा नहीं छोड़ते। चेहरा सभी अपना चेहरा उजला देखना चाहते हैं पर चरित्र की कालिख कोई साफ नहीं करना चाहता।’
यहां दो क्षणिकायें भी प्रस्तुत हैं।
----------------
(1)
वह पानी बचाने के लिये
सूखी होली मना रहे थे,
दरअसल पानी से मनाते तो
उनके कुओं की पोल खुल जाती
जो केवल कागजों पर खुदवा रहे थे।
(2)
लोग पहुंचे उनके घर पर
तो पहले ही वह अपना मुंह काला किये बैठे थे
सेवक ने पूछा तो बोले
‘कोई दूसरा मुंह काला कर हंसे
इसलिये हमने पहले ही कर लिया है,
दुश्मनों ने लगा दिया है
चरित्र पर दाग
दोस्त रंग लगाकर ताना कसें
इसलिये अपने चेहरे पर
काला रंग कर लिया है।

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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