जहां से भी मिले मुफ्त का माल खाते, फुर्सत में हालातों पर चिंता जताते।
‘दीपकबापू’ चालाक शब्दों के सौदागर, आंसु बहाकर भलाई का ठेका पाते।।
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पूरे समाज के दर्द निवारक बने हैं, शाब्दिक दवा के विशेषज्ञ घने हैं।
‘दीपकबापू’ अपना हाथ जगन्नाथ रहे, पेशेवर दयावान शुल्क से बने हैं।।
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पढ़े कुछ समझें कुछ पर अपनी कहें, भ्रमित शिक्षार्थी सपनों में बहें।
‘दीपकबापू’ किताबी शब्दों के गुलाम, आजाद सोच से सदा डरते रहें।।
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पराये भ्रम में अपनी अक्ल डाली, चालाकी के नाम काली नीयत पाली।
‘दीपकबापू’ भरमा रहे उजाले में, आंखों में लगाकर लालच की जाली।।
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नाव पार लगाने की फिक्र नहीं है, खड़े किनारे पतवार का जिक्र नहीं है।
‘दीपकबापू’ चलना नहीं बतियाना है, भौंदू सवार मंजिल की फिक्र नहीं है।।
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सफेदपाशों की आड़ में कातिल खड़े, खंजर की हिमायत में शब्दवीर अड़े।
‘दीपकबापू’ नाटक की पटकथा लिखते, गरीब नायक के बने सभी गुरु बड़े।।
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लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा "भारतदीप"
ग्वालियर, मध्यप्रदेश
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior, Madhya pradesh
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
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