Tuesday, December 29, 2009

साहबी संस्कृति-हिन्दी व्यंग्य कविताऐं (boss culture-hindi satire poem)

 दिन भर अपने लिए साहब शब्द सुनकर

वह रोज फूल जाते हैं।

मगर उनके ऊपर भी साहब हैं

जिनकी झिड़की पर वह झूल जाते हैं।
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नयी दुनियां में पुजने का रोग

सभी के सिर पर चढ़ा है।

कामयाबी का खिताब

नीचे से ऊपर जाता साहब की तरफ

नाकामी की लानत का आरोप

ऊपर से उतरकर नीचे खड़ा है,

भले ही सभी जगह साहब हैं

बच जाये दंड से, वही बड़ा है

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साहबी संस्कृति में डूबे लोग

आम आदमी का दर्द कब समझेंगे।

जब छोटे साहब से बड़े बनने की सीढ़ी

जिंदगी में पूरी तरह चढ़ लेंगे।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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Wednesday, December 23, 2009

गद्दार कदम-हिन्दी साहित्य कविता (gaddar kadam-hindi sahitya kavita)

 अपनी खुशियां मिलकर बांटते होते हम।

तब नहीं छाये होते पूरे जमाने के दिल में गम।

अब जज़्बातों के सौदागर सपने बेच रहे हैं

बाजार में लोगों के दर्द पर, करके अपनी आंखें नम।

अपने नाम के पैसों खाता देखकर,  खुश हो रहे अमीर

बढ़ते आंकड़ों में देख रहे जिंदगी का  पूरा दम।

वतन से प्यार के नाम पर कर रहे चमन से धोखा

कुचल रहे फूल सी वफा, माली के  गद्दार कदम।

नहीं सोचते जब जमाना टूट कर बिखर जायेगा

उनके घरों की तरफ भी बढ़ेंगे, कातिलों के कदम।।


 
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Saturday, December 19, 2009

कमीशन की नीति-हिन्दी साहित्य कवितायें (policy of commision-hindi sahitya kavita)

 सरकार और साहुकारों ने

इतने वर्षों से बहुत दान किया है

कि इस देश से पीढ़ियों तक

गरीबी मिट जाती।

अगर कमबख्त

यह कमीशन की रीति

दान बांटने वालों की नीति न बन जाती।

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नया बनाने के लिये

पुराना समाज टुकड़े टुकड़े

किये जा रहे हैं।

कुछ नया नहीं बन पा रहा है

इसलिये हर टुकड़े को समाज बता रहे हैं।


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Tuesday, December 08, 2009

आंसुओं का हिसाब-हिन्दी व्यंग्य कविता (ansuon ka hisab-hindi sahitya kavita)

शानदार इमारतों के नीचे

दबे पड़े हैं, बुनियाद में जो पत्थर

वह चमकदार नहीं होते।

अमीर इंसानों की दौलत के आंकड़े

खातों में लिखे होते 

पर उसको बढ़ाने वाले मेहनतकशों के

पसीने की बूंदों के हिसाब नहीं होते।

रौशनी फैली है जहां तक

वहां तक पूरा जहां चमक रहा है

उसे देखने वालों को 

अंधेरों के अहसास नहीं होते।

जितने लोग जमीन पर चलते हैं

आकाश में उतने परिंदे नहीं होते।

नजर और अहसास सभी के अलग हैं

कोई जुटा कर भी दौलत

खुशी के लिये भटकता है

जो मोहताज हैं

वह भी रुपयों के हिसाब में अटकता है

तमाशों में करते हैं

लोग अपनी दौलत बरबाद

पर नहीं कर सकते

किसी गरीब का घर आबाद

घूम रही है अमीरी जिनके चारो ओर

नहीं पाते चैन तब तक

जब तक गरीब के आंसु

गाल पर बहते नहीं होते।

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अभावों में जीते हैं जो लोग

उनके आंसुओं का हिसाब

कौन रखता है।

अमीर की तरफ ताक रहे हैं सभी

कब उसकी आंखों में दर्द दिखे

तो उसे हमदर्दी दिखायें

वही तो है जो

दर्द का रुपयों में हिसाब करता है।

 

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Friday, December 04, 2009

एक बूंद रौशनी-हिन्दी लघु कथा (ek boond roshni-hindi short story)

बड़े शहर के विशाल मकान में रहने वाला वह शख्स एक दिन बरसात के दिनों मे गांव की ओर जाने वाली पगंडडी पर पानी मे अंधेरे में कांपते हुए कदम रखता हुआ आगे बढ़ रहा था। दरअसल शाम के समय वह बस मुख्य सड़क पर उतरा था उस समय बरसात धीरे शुरु हुई थी। उसे गांव जाना था जिसका रास्ता एक पगडंडी थी। बरसात के कारण वह वहीं खड़ी एक दुकान पर कुछ देर खड़ा हो गया। जब बरसात बंद हो गयी तो उसने वहां दुकानदार गांव का रास्ता पूछा तो पगडंडी की तरफ इशारा करते हुए कहा कि‘यहां से एक मील दूर जाने पर वह गांव आ जायेगा।
वह गांव वहां से कम से कम चार किलोमीटर दूर था। इधर सूरज भी एकदम डूबने वाला था। वह जल्दी जल्दी चल पड़ा कुछ दूर जाने पर उसे कीचड़ दिखाई दी पर वह सूखी जमीन पर कदम रखता हुआ आगे बढ़ रहा था। इधर सूरज भी पूरी तरह से डूब गया। अंधेरे में उसे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। दूर दूर रौशनी भी नहीं दिख रही थी। चारों तरफ पेड़ और छोटे पहाड़ के पीछे छिपे उस गांव की तरफ जाते हुए उसका हृदय अब कांपने लगा था। अनेक जगह वह फिसला। अपने जूत भी उसे अपने हाथ में ले लिये ताकि फिसल न जाये। रास्ते में वह अनेक बार चिल्लाया-‘कोई है! कोई मेरी आवाज सुन रहा है।’
वह फिसलता हुआ आगे बढ़ता जा रहा था। एक समय तो उसे लगा कि उसका अब कहीं गिरकर अंत हो जायेगा
वह अब पीछे नहीं लौट सकता था क्योंकि मुख्य सड़क बहुत दूर थी और वह आशा कर रहा था कि बहुत जल्दी गांव आ जायेगा। अब तो उसे यह भी पता नहीं चला रहा था कि गांव होगा कहां? कोई कुछ बताने वाला नहीं था।
न दिशा का ज्ञान न रास्ते का। चलते चलते अचानक वह एक झौंपड़ी के निकट पहुंच गया। वहां एक मोमबती चल रही थी। उसे देखकर उस शख्स ने राहत अनुभव की। वहां खड़े एक आदमी से उसने उस गांव का रास्ता पूछा- उस आदमी ने इशारा करके बताया और उससे कहा-‘आपके चिल्लाने की आवाज तो आ रही थी पर मेरी समझ में नहीं आ रहा था। अब गांव अधिक दूर नहीं है। बरसात बंद हो गयी है। मैं मोमबती लेकर खड़ा हूं आप निकल जाईये थोड़ी देर में आपको वहां रौशनी दिखाई देगी। बिजली नहीं भी होगी तो भी लोगों की लालटेन या मोमबतियां जलती हुई दिखाई देंगी।’
वह मोमबती लेकर खड़ा। उसकी रौशनी में उसे पूरा मार्ग दिखाई दिया। कीचड़ थी पर वहां से निकलने के लिये कुछ सूखी जमीन भी दिखाई दी। वह धीरे धीरे चलकर गांव में अपने रिश्तेदार के यहां पहुंच गया।
रिश्तेदार ने कहा-‘हमें आपके घर से फोन आया था कि आप आ रहे हैं। इतनी देर न देखकर चिंता हो रही थी। आपने हमें इतला दी होती तो हम लेने मुख्य सड़क पर आ जाते। यह रास्ता खराब है। इतने अंधेरे में आप कैसे पहुंचे।’
उस शख्स ने आसमान में देखा और कहा-‘सच तो यह है कि इस अंधेरे से वास्ता नहीं पड़ता तो रौशनी का मतलब समझ में नहीं आता। शहर में हम इतनी रौशनी बरबाद करते हैं एक बूंद रौशनी की कीमत ऐसे अंधेरे में ही पता लगती है।’
वह रिश्तेदार उसकी तरफ देखने लगा। उसने लंबी सांस भरकर फिर कहा-‘एक मोमबती की बूंद भर रौशनी ने जो राहत दी उसे भूल नहीं सकता। जाओ, पानी ले आओ।’
वह रिश्तेदार उस शख्स का चेहरा गौर से देख रहा था जो आसमान में देखकर कुछ सोच रहा था।
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Sunday, November 22, 2009

भारतीय प्रचार माध्यम, तिब्बत और चीन-आलेख (indian media, tibbat and china-hindi artcile)

भारत के बौद्धिक वर्ग में बहुत कम लोग इस बात का अनुमान लगा पाये थे कि विश्वव्यापी मंदी इतने व्यापक रूप से विश्व में अंतर्राष्ट्रीय समीकरण बदल देगी। कुछ विशेषज्ञों ने इस बात से आगाह कर दिया था कि यह मंदी चैंकाने वाले  बदलाव लायेगी क्योंकि विश्व की अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र बिंदु में स्थित अमेरिका इसका सबसे बड़ा शिकार बन रहा था।  अमेरिका और चीन के बीच तात्कालिक सद्भाव इसी का मंदी की मार से उपजा परिणाम है।  चार देशों की यात्रा समाप्त कर अपने देश पहुंचे अमेरिकन राष्ट्रपति ने अपने साप्ताहिक उद्बोधन में अपनी जनता को बताया कि वह तो अमेरिकन बेरोजगारों के लिये वहां नौकरी ढूंढने गये थे। 



जिन लोगों को अमेरिका द्वारा तिब्बत को चीन का हिस्सा मान लेने पर आश्चर्य है उन्हें अब यह बात समझ लेना चाहिये कि वहां अमेरिका अपने लिये अपनी अर्थव्यवस्था की प्राणवायु ढूंढ रहा है।  मुखर भारतीय बुद्धिजीवी और चिंतक-जो अपनी विशेषज्ञताओं के कारण प्रचार माध्यमों में छाये रहते हैं- इसका पहले अनुमान नहीं लगा पाये तो उसमें उनकी चिंतन क्षमता का अभाव ही जिम्मेदार है।  दरअसल भारतीय बुद्धिजीवी और चिंतक लकीर से हटकर नहीं सोचते-हालांकि ऐसा करने से प्रचार माध्यमों द्वारा उनको नकाने जाने का भी भय रहता है।  दूसरी बात यह है कि वह राजनीतिक, सामरिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, और सामाजिक आधारों को अलग अलग देखने के इतने आदी हो चुके हैं कि एक को दूसरे विषय से जोड़ने का उनमें साहस नहीं होता।  अगर आर्थिक विशेषज्ञ है तो वह अन्य आधारों से परे रहकर सोचता है और अगर अन्य विषयों का हो तो  आर्थिक विषयों से परहेज करता है। सच बात तो यह है कि वैश्विक आर्थिक उदारीकरण ने न केवल बाजारोें को दायरा बढ़ाया है वरन् उसने सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और सामरिक विषयों को भी प्रभावित करना शुरु कर दिया है। भारतीय बुद्धिजीवियों और चिंतकों की संकीर्ण सोच के ही कारण है कि भारत आर्थिक रूप से दूसरों के लिये बाजार होते हुए भी अन्य क्षेत्रों में पिछड़ रहा है।  यहंा तक कि भारत का सबसे बड़ा राजनीतिक दुश्मन चीन भी भारतीय अर्थव्यवस्था का दोहन करने के बावजूद आंख दिखा रहा है। उस दिन अंतर्जाल पर एक ब्लाग पर पढ़ने को मिला कि एक स्थान पर चीन की कंपनी अपने यहां से अनेक कर्मचारी लायी है जो यहां अपने यहां कार्यरत भारतीय कर्मचारियों से अधिक वेतन पाते हैं।  इससे तो यह जाहिर हो रहा है कि चीन के लोगों को भी भारत रोजगार दे रहा है।  चीन बड़ी चालाकी से अन्य विषयों को राजनीति से अलग कर आगे बढ़ा रहा है पर उसने यह सुविधा अमेरिका को नहीं दी।  मंदी की मार से जूझ रहे अमेरिका को अपने देश के बेरोजगारों के साहबी किस्म की नौकरी चाहिये-जहां तक शारीरिक श्रम की बात है तो विश्व भर के गोरे देशों के लोग  उससे दूर रहते हैं और एशियाई देशों के लोग ही वहां पहुंचकर उनकी गुलामी करते हैं।  यह साहबी किस्म की नौकरी अब एशियाई देशों में सुलभ है। इस मामले में भारत से बड़ा बाजार चीन है।  चीन में भी तिब्बत का एक बहुत बड़ा भूभाग है जहां विकास की संभावनाएं हैं और वहां अमेरिका अपनी दृष्टि रख सकता है। संभव है चीन उसकी कंपनियों और लोगों को वहां घुसने का अवसर प्रदान करे ।

अमेरिका भारत से पूरा फायदा बिना किसी राजनीतिक सुविधा के ले रहा है इसलिये परवाह नहीं करता है पर चीन बहुत चालाक है। इसके अलावा तिब्बत का बहुत बड़ा भूभाग जहां अभी विदेशियों का जाना कठिन है वह भी अमेरिका के लिये सहज सुलभ हो सकता है।  दूसरी बात यह है कि अमेरिका हथियारों को बहुत बड़ा सौदागर है और तिब्बती हिंसक नहीं है।  इतने बरसों से वह अपनी आजादी के लिये जूझ रहे हैं पर उन्होंने हिंसा के लिये कोई हथियार खरीदने की मुहिम नहीं चलाई जिससे वह किसी पश्चिम देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत कर सकें।  यही कारण है कि पश्चिमी देशों की तिब्बतियों से केवल शाब्दिक सहानुभूति रही है वह भी इसलिये कि कभी कभी चीन की राजनीतिक रूप से बांह मरोड़ सकें। अब जबकि पश्चिमी देश लाचार हो गये हैं इसलिये उसका बाजार पाने के लिये उनके पास इसके अलावा कोई चारा नहीं था कि वह तिब्बत को उसका हिस्सा माने।

अब समस्या भारतीय बुद्धिजीवियों और चिंतकों के सामने है। वह यह कि अभी तक यहां के चिंतक इस बात से आश्वस्त थे कि अमेरिका और पश्चिमी देशों का तिब्बत को लेकर चीन से हमेशा लड़ते रहेंगेे। इस तरह वह चीन विरोध मंच पर हमारे साथ हमेशा खड़े मिलेंगे।  ऐसे में चीन से सीधे टकराव की बात सोचने वह बचते रहे। अब स्थिति बदल गयी है। चीन के लिये तिब्बत की समस्या बहुत गंभीर है और दलाई लामा भारत में ही रहते हैं।  पश्चिम का जो सुरक्षित वैचारिक आवरण था जिसके सहारे भारतीय बुद्धिजीवी और चिंतक अपने वक्तव्य सुरक्षित अनुभव करते हुए देते थे, अब वह नहीं रहा।  स्पष्टतः चीन के साथ सीधा टकराव करते हुए लिखना और बोलना पड़ेगा, शायद यही बात भारतीय बुद्धिजीवियों को परेशान किये हुए है। वैसे एक बात तय है कि अगर चीन पर भारत आर्थिक दबाव डाले तो वह भी उसी तरह कई विषयों से पीछ हट सकता है। एक बात याद रहे चीन का बना सामान हमारे यहां बिकता है पर उसका खुद का बाजार कोरियो और जापानी सामानों से वैसे ही पटा पड़ा है जैसा उसके सामानो को हमारे यहां-ऐसे समाचार आये दिन अखबार तथा अंतर्जाल पर पढ़ने को मिल जाते हैं। सबसे आश्चर्य तो इस बात का है कि जब भारत ने तिब्बत विवाद से स्वयं पीछे हटने का निर्णय लिया तब उससे अरुणांचल पर ही ऐसी राय रखने के लिये बाध्य क्यों नहीं किया? चीन की सामरिक ताकत बहुत है पर भारत कोई कम नहीं है। अगर उससे हमें तबाही का भय है तो वह भी हमारी शक्ति को देखते हुए कोई उससे मुक्त नहीं है। मुख्य विषय है आर्थिक आधार जिसके संदर्भ देते हुए उससे भारतीय बुद्धिजीवी और चिंतक प्रचार माध्यमों के द्वारा उसे चेताते रहें।

एक बाद यह भी तय करना चाहिये कि आर्थिक रूप से परेशान अमेरिका अब किसी भी आधार पर भारत को वैचारिक समर्थन नहीं देगा। आपको याद होगा उसने बाहर के लोगों को अमेरिका में नौकरी कम देने का फैसला किया तो उसके आर्थिक विशेषज्ञों ने इसका विरोध किया क्योंकि अनेक प्रकार की ऐसी नौकरियां ऐसी हैं जो अमेरिकन करते ही नहीं और करते हैं तो उनका वेतन अधिक होता है।   इस पर भारत और चीन में साहबी किस्म की नौकरियों के लिये ब्रिटेन और अमेरिका दोनों ही हाथ पंाव मार रहे हैं।  उनके राजनीतिक हित आर्थिक लाभ के आसपास ही घूमते हैं।   अब वह अपने ही गुलाम रहे इन दो देशों में-चीन और भारत-साहबी किस्म की नौकरियों के लिये अपने लोग भेजना चाहते हैं।  बदले में अपनी गुलामी किस्म की नौकरियों के लिये वह अपने यहां इन्हीं देशों से लोग बुलाते भी हैं। ऐसे में अगर भारत के बुद्धिजीवी और चिंतक आक्रामक ढंग से प्रचार माध्यमों में अपने आर्थिक आधार पर अन्य विषयों को भी जोड़कर रखें तो संभव है कि चीन थोड़ा सतर्क रहे। कम से कम भारतीय प्रचार माध्यमों की ताकत इतनी तो है कि चीन भी उनसे परेशान रहता है।  वैसे आजकल प्रचार माध्यमों से जो कहा जाता है उसका प्रभाव रहता ही इससे इंकार करना कठिन है। एक बात निश्चित है कि तिब्बत चीन का हिस्सा नहीं है और वह अपनी सम्राज्यवादी नीति के कारण वह जमा हुआ है जो उसने पश्चिम से उधार ली है।






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Saturday, November 14, 2009

भूखे पेट न भजन होता न बंदूक चलती- काव्य चिंतन (bhookh ar banddook-hindi kavita aur lekh)

भूखे पेट भजन नहीं होते-यह सच है पर साथ ही यह भी एक तथ्य है कि भूखे पेट गोलियां या तलवार नहीं चलती। देश में कुछ स्थानों-खासतौर से पूर्व क्षेत्र-में व्याप्त हिंसा में अपनी वैचारिक जमीन तलाश रहे कुछ विकासवादी देश के बुद्धिजीवियों को ललकार रहे हैं कि ‘तुम उस इलाके की हकीकत नहीं जानते।’
यह कहना कठिन है कि वह स्वयं उन इलाकों को कितना जानते हैं पर उनके पाठ हिंसा का समर्थन करने वाले बदलाव की जमीन पर लिखे जाते हैं। अपने ढोंग और पाखंड को वह इस तरह पेश करते हैं गोया कि जैसे कि सत्य केवल उनके आसपास ही घूमता हो। दूसरी समस्या यह है कि उनके सामने खड़े परंपरावादी लेखक कोई ठोस तर्क प्रस्तुत कर उनका प्रतिवाद नहीं करते। बस, सभी हिंसा और अहिंसा के नारे लगाते हुए द्वैरथ करने में व्यस्त है।
इन हिंसा समर्थकों से सवाल करने से पहले हम यह स्वीकार करते हैं कि गरीब, आदिवासी तथा मजदूरों को शोषण सभी जगह होता है। इसे रुकना चाहिये पर इसका उपाय केवल राजकीय प्रयासों के साथ इसके लिये अमीर और गरीब वर्ग में चेतना लाने का काम भी होना चाहिये। हमारे अध्यात्मिक ग्रंथ यही संदेश देते हैं कि अमीर आदमी हमेशा ही गरीब की मदद करे। किसी भी काम या उसे करने वाले को छोटा न समझे। सभी को समदर्शिता के भाव से देखें। इस प्रचार के लिये किसी प्रकार की लाल या पीली किताब की आवश्यकता नहीं है। कम से कम विदेशी विचार की तो सोचना भी बेकार है।
अब आते हैं असली बात पर। वह लोग भूखे हैं, उनका शोषण हो रहा है, और बरसों से उनके साथ न्याय नहीं हुआ इसलिये उन्होंने हथियार उठा लिये। यह तर्क विकासवादी बड़ी शान से देते हैं। जरा यह भी बतायें कि जंगलों में अनाज या फलों की खेती होती है न कि बंदूक और गोलियों की। वन्य और धन संपदा का हिस्सा अगर उसके मजदूरों को नहीं मिला तो उन्होंने हथियार कैसे उठा लिये? क्या वह भी पेड़ पर उगते हैं?
अब तर्क देंगे कि-‘सभी नहीं हथियार खरीदते कोई एकाध या कुछ जागरुक आदमी उनको न्याय दिलाने के लिये खरीद ही लेते हैं।’
वह कितनों को न्याय दिलाने के लिये हथियार खरीद कर चलाते हैं। एक, दो, दस, सौ या हजार लोगों के लिये? एक बंदूक कोई पांच या दस रुपये में नहीं आती। उतनी रकम से तो वह कई भूखे लोगों को खाना खिला सकते हैं। फिर जंगल में उनको बंदूक इतनी सहज सुलभ कैसे हो जाती है। इन कथित योद्धाओं के पास केवल बंदूक ही नहीं आधुनिक सुख सुविधा के भी ढेर सारे साधन भी होते हैं। कम से कम व गरीब, मजदूर या शोषित नहीं होते बल्कि उनके आर्थिक स्त्रोत ही संदिग्ध होते हैं।
विकासवादियों का तर्क है कि पूर्वी इलाके में खनिज और वन्य संपदा के लिये देश का पूंजीपति वर्ग राज्य की मदद से लूट मचा रहा है उसके खिलाफ स्थानीय लोगों का असंतोष ही हिंसा का कारण है। अगर विकास वादियों का यह तर्क मान लिया जाये तो उनसे यह भी पूछा जाना चाहिये कि क्या हिंसक तत्व वाकई इसलिये संघर्षरत हैं? वह तमाम तरह के वाद सुनायेंगे पर सिवाय झूठ या भ्रम के अलावा उनके पास कुछ नहीं है। अखबार में एक खबर छपी है जिसे पता नहीं विकासवादियों ने पढ़ा कि नहीं । एक खास और मशहूर आदमी के विरुद्ध आयकर विभाग आय से अधिक संपत्ति के मामले की जांच कर रहा है। उसमें यह बात सामने आयी है कि उन्होंने पद पर रहते हुए ऐसी कंपनियों में भी निवेश किया जिनका संचालन कथित रूप से इन्हीं पूर्वी क्षेत्र के हिंसक तत्वों के हाथ में प्रत्यक्ष रूप से था। यानि यह हिंसक संगठन स्वयं भी वहां की संपत्तियों के दोहन में रत हैं। अब इसका यह तर्क भी दिया जा सकता है क्योंकि भूख और गरीबी से लड़ने के लिये पैसा चाहिये इसलिये यह सब करते हैं। यह एक महाढोंग जताने वाला तर्क होगा क्योंकि आपने इसके लिये उसी प्रकार के बड़े लोगों से साथ लिया जिन पर आप शोषण का आरोप लगाते हैं। हम यहां किसी का न नाम लेना चाहते हैं न सुनना क्योंकि हमारा लिखने का मुख्य उद्देश्य केवल बहस में अपनी बात रखना हैं।
इन पंक्तियों के लेखक के इस पाठ का आधार समाचार पत्र, टीवी और अंतर्जाल पर इस संबंध में उपलब्ध जानकारी ही है। एक सामान्य आदमी के पास यही साधन होते हैं जिनसे वह कुछ जान और समझ पाता है। इनसे इतर की गतिविधियों के बारे में तो कोई जानकारी ही समझ सकता है।
इन हिंसक संगठनों ने अनेक जगह बम विस्फोट कर यह सबित करने का प्रयास किया कि वह क्रांतिकारी हैं। उनमें मारे गये पुलिस और सुरक्षा बलों के सामान्य कर्मचारी और अधिकारी। एक बार में तीस से पचास तक लोगों की इन्होंने जान ली। इनसे पूछिये कि अपनी रोजी रोटी की तलाश में आये सामान्य जनों की जान लेने पर उनके परिवारों का क्या हश्र होता है वह जानते हैं? सच तो यह है कि यह हिंसक संगठन कहीं न कहीं उन्हीं लोगों के शोषक भी हो सकते हैं जिनके भले का यह दावा करते हैं। जब तक गोलियों और बारुद प्राप्त करने के आर्थिक स्त्रोतों का यह प्रमाणिक रूप से उजागर नहीं करते तब उनकी विचारधारा के आधार पर बहस बेकार है। इन पर तब यही आरोप भी लगता है कि हिंसक तत्व ही इनको प्रायोजित कर रहे हैं।
भारत में शोषण और अनाचार कहां नहीं है। यह संगठन केवल उन्हीं जगहों पर एकत्रित होते हैं जहां पर जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्रीय आधार पर लोगों को एकजुट करना आसान होता है। यह आसानी वहीं अधिक होती है जहां बाहर से अन्य लोग नहीं पहुंच पाते। जहां लोग बंटे हुए हैं वहां यह संगठन काम नहीं कर पाते अलबत्ता वहां चर्चाएं कर यह अपने वैचारिक आधार का प्रचार अवश्य करते हैं। बहरहाल चाहे कोई भी कितना दावा कर ले। हिंसा से कोई मार्ग नहीं निकलता। वर्तमान सभ्यता में अपने विरुद्ध अन्याय, शोषण तथा दगा के खिलाफ गांधी का अहिंसक आंदोलन ही प्रभावी है। हिंसा करते हुए बंदूक उठाने का मतलब है कि आप उन्हीं पश्चिम देशों का साथ दे रहे हैं जो इनके निर्यातक हैं और जिनके आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक सम्राज्य के खिलाफ युद्ध का दावा करते हैं। यह वैचारिक बहस केवल दिखावे की और प्रायोजित लगती है। जब तक हथियारों के खरीदने के लिये जुटाये धन के स्त्रोत नहीं बताये जाते। जहां तक पूर्वी इलाकों को जानने या न जानने की बात है तो शोषण, अन्याय और धोखे की प्रवृत्ति सभी जगह है और उसे कहीं बैठकर समझा जा सकता है। आईये
इस पर इस लेखक की कुछ पंक्तियां
यह सत्य है कि
भूखे पेट भजन नहीं होता।
मगर याद रहे
जिसे दाना अन्न का न मिले
उसमें बंदूक चलाने का भी माद्दा भी नहीं होता।
अरे, हिंसा में वैचारिक आधार ढूंढने वालों!
अगर गोली से
रुक जाता अन्याय, शोषण और गरीबी तो
पहरेदारों का
अमीरों के घर पहरा न होता।
तुम शोर कर रहे हो जिस तरह
सोच रहे सारा जमाना बहरा होता।
कौन करेगा तुम्हारे इस झूठ पर यकीन कि
अन्न और धन नहीं मिलता गरीबों और भूखों को
पर उनको बंदूक और गोली देने के लिये
कोई न कोई मेहरबान जरूर होता।
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Friday, November 06, 2009

क्या नया रचेंगे-काव्य चिंतन (kya naya rachenge-kavya chintan)

देश के बुरे हालतों पर बोलने और लिखने वाले बहुत हैं। आम आदमी का दर्द बयान करने वाले ढेर सारी तालियां बटोर जाते हैं। ऐसी अनेक किताबें लिखी जाती हैं जिनमें पात्रों का दर्दनाक चित्रण कई लेखकों को अंतर्राष्ट्रीय पुरुस्कार दिला चुके हैं। समाज की पीड़ाओं को दिखाते हुए अमीरों को कोसने वालों की तो हमेशा पौबारह रही है। इतना सब लिखे जाने के बावजूद समाज का नैतिक और वैचारिक पतन हुआ है। इसका कारण यह है कि दर्द का बयान सभी करते हैं पर उसके इलाज का नुस्खा कोई नहीं लिखता।
एक कवि से एक आदमी ने कहा-‘यार, तुम कवितायें लिखना बंद कर दो।’
कवि ने कहा-‘एक शर्त पर कि तुम अपनी जिंदगी में कभी स्वयं दुःखी नहीं अनुभव करोगे।’
उस आदमी ने कहा-‘यह संभव नहीं है क्योंकि मैं अपने को कभी दुःखी अनुभव न करने का वादा नहीं कर सकता। वह तो मैं तब से अनुभव कर रहा हूं जब से पैदा होने के बाद होश संभाला है। अरे, इस संसार में कोई सुखी रह सकता है क्या? कैसे कवि हो? इतनी अक्ल भी नहीं है।’
कवि ने कहा-‘बस, यही बात है। जब तक जमाने में दर्द रहेगा कोई न कोई उस पर अपने अल्फाज कहेगा। सभी अगर अंदर ही अंदर रोयेंगे या बाहर केवल चीखेंगे तो फिर दर्द को अल्फाज कौन देगा? यही काम कवि का होता है।’
बहरहाल अब तो कवि ही नहीं दर्द कहते बल्कि गद्यकार भी दर्द का बयां करते हैं। तलवार, तीर या बंदूक की आवाज हो तो उसमें भी वह भूख और गरीबी का दर्द ढूंढा करते हैं। जो आदमी धन और अन्न से मजबूर होता है भला वह कहीं हथियार उठाता है? मगर साहब हमारे देश में इस विश्वास के साथ जीने वाले भी हैं पर उनको यह पता नहीं कि आखिर उन समस्याओं का क्या हल है? वह तो बस अपने दर्द के साथ ऐसा यकीन बयान करते हैं जिसको जमीन पर ढूंढना मुश्किल काम है।
बहरहाल प्रस्तुत हैं इस पर दो पद्य रचनाएं-

दायें चलें कि बायें
वह बताते नहीं।
चलने का नारा देते हैं
वाद सुनाते हैं ढेर सारे
मंजिल का पता खुद नहीं जानते
झंडे उठाये चलते हैं
राहों पर
जमाने का भला करने का
मकसद बताते हैं
अपनी अपनी कहते अघाते नहीं।।
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कहीं पूरब का बखान करेंगे
कहीं पश्चिम का गान करेंगे।
अपनी जमीन पर खड़ी फसलों को
जलाकर
नयी फसल करने का करते दावा
जमाने से करते छलावा
तलवार, तीर और बंदूक से
मचा रहे शोर
इस जहां में बने स्वर्ग को
जलाकर वह बना रहे नरक
भला क्या नया रचेंगे।
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Monday, November 02, 2009

कुदरत का खेल जुआ नहीं-व्यंग्य कविताएं (kudrat ka khel-hindi vyangya kavita)

गिला शिकवा खूब किया
दिन भर पूरे जमाने का
फिर भी दिल साफ हुआ नहीं।
इतने अल्फाज मुफ्त में खर्च किये
फिर भी चैन न मिला
दिल के गुब्बारों का बोझ कम हुआ नहीं।
इंसान समझता है
पर कुदरत का खेल कोई जुआ नहीं।
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उन्होंने चमन सजाने का वादा किया
नये फूलों से सजाने का
पता नहीं कब पूरा करेंगे।
अभी तो उजाड़ कर
बना दिया है कचड़े का ढेर
उसे भी हटाने का वादा
करते जा रहै हैं
पता नहीं कब पूरा करेंगे।
इंतजार तो रहेगा
उनके घर का पेट अभी खाली है
पहले उसे जरूर भरेंगे।
तभी शायद कुछ करेंगे।

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Thursday, October 29, 2009

समाज में ‘हिंदी’ का उपयोग सामान्य आदत बने-आलेख (hindi ek adat bane-hindi lekh)

सुना है अब इंटरनेट में लैटिन के साथ ही देवनागरी में भी खोज सुगम होने वाली है। यह एक अच्छी खबर है मगर इससे हिंदी भाषा के पढ़ने और लिखने वालों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ जायेगी, यह आशा करना एकदम गलत होगा। सच तो यह है कि अगर देवनागरी में खोज सुगम हुई भी तो भी इसी मंथर गति से ही हिंदी लेखन और पठन में बढ़ोतरी होगी जैसे अब हो रही है। हिंदी को लेकर जितनी उछलकूल दिखती है उतनी वास्तविकता जमीन पर नहीं है। सच कहें तो कभी कभी तो लगता है कि हम हिंदी में इसलिये लिख पढ़े रहे हैं क्योंकि अंग्रेजी हमारे समझ में नहीं आती। हम हिंदी में लिख पढ़ते भी इसलिये भी है ताकि जैसा लेखक ने लिखा है वैसा ही समझ में आये। वरना तो जिनको थोड़ी बहुत अंग्रेजी आती है उनको तो हिंदी में लिखा दोयम दर्जे का लगता है। वैसे अंतर्जाल पर हम लोगों की अंग्रेजी देखने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे है कि लोगों की अंग्रेजी भी कोई परिपक्व है इस पर विश्वास नहीं करना चाहिए-क्योंकि बात समझ में आ गयी तो फिर कौन उसका व्याकरण देखता है और अगर दूसरे ढंग से भी समझा तो कौन परख सकता है कि उसने वैसा ही पढ़ा जैसा लिखा गया था। बहरहाल अंग्रेजी के प्रति मोह लोगों का इसलिये अधिक नहीं है कि उसमें बहुत कुछ लिखा गया है बल्कि वह दिखाते हैं ताकि लोग उनको पढ़ालिखा इंसान समझें।
‘आप इतना पढ़ें लिखें हैं फिर भी आपको अंग्रेजी नहीं आती-‘’हिंदी में पढ़े लिखे एक सज्जन से उनके पहचान वाले लड़के ने कहा’‘-हमें तो आती है, क्योंकि अंग्रेजी माध्यम से पढ़े हैं न!’
मध्यम वर्ग की यह नयी पीढ़ी हिंदी के प्रति रुझान दिखाने की बजाय उसकी उपेक्षा में आधुनिकता का बोध इस तरह कराती है जैसे कि ‘नयी भारतीय सभ्यता’ का यह एक एक प्रतीक हो।
जैसे जैसे हिंदी भाषी क्षेत्रों में सरकारी क्षेत्र के विद्यालयों और महाविद्यालयों के प्रति लोगों का रुझान कम हुआ है-निजी क्षेत्र में अंग्रेजी की शिक्षा का प्रसार बढ़ा है। एक दौर था जब सरकारी विद्यालयों में प्रवेश पाना ही एक विजय समझा जाता था-उस समय निजी क्षेत्र के छात्रों को फुरसतिया समझा जाता था। उस समय के दौर के विद्यार्थियों ने हिंदी का अध्ययन अच्छी तरह किया। शायद उनमें से ही अब ऐसे लोग हैं जो हिंदी में लेखन बेहतर ढंग से करते हैं। अब अगर हिंदी अच्छे लिखेंगे तो वही लोग जिनके माता पिता फीस के कारण अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के निजी विद्यालयों में नहीं पढ़ा सकते और सरकारी विद्यालयों में ही जो अपना भविष्य बनाने जाते हैं।
एक समय इस लेखक ने अंग्रेजी के एक प्रसिद्ध स्तंभकार श्री खुशवंत सिंह के इस बयान पर विरोध करते हुए एक अखबार में पत्र तक लिख डाला‘जिसमें उन्होंने कहा था कि हिंदी गरीब भाषा है।’
बाद में पता लगा कि उन्होंने ऐसा नहीं कहा बल्कि उनका आशय था कि ‘हिन्दुस्तान में हिंदी गरीबों की भाषा है’। तब अखबार वालों पर भरोसा था इसलिये मानते थे कि उन्होंने ऐसा कहा होगा पर अब जब अपनी आंखों के सामने बयानों की तोड़मोड़ देख रहे हैं तो मानना पड़ता है कि ऐसा ही हुआ होगा। बहरहाल यह लेखक उनकी आलोचना के लिये अब क्षमाप्रार्थी है क्योंकि अब यह लगने लगा है कि वाकई हिंदी गरीबों की भाषा है। इन्हीं अल्पधनी परिवारों में ही हिंदी का अब भविष्य निर्भर है इसमें संदेह नहीं और यह आशा करना भी बुरा नहीं कि आगे इसका प्रसार अंतर्जाल पर बढ़ेगा, क्योंकि यही वर्ग हमारे देश में सबसे बड़ा है।

समस्या यह है कि इस समय कितने लोग हैं जो अब तक विलासिता की शय समझे जा रहे अंतर्जाल पर सक्रिय होंगे या उसका खर्च वहन कर सकते हैं। इस समय तो धनी, उच्च मध्यम, सामान्य मध्यम वर्ग तथा निम्न मध्यम वर्ग के लोगों के लिये ही यह एक ऐसी सुविधा है जिसका वह प्रयोग कर रहे हैं और इनमें अधिकतर की नयी पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम से शिक्षित है। जब हम अंतर्जाल की बात करते हैं तो इन्हीं वर्गों में सक्रिय प्रयोक्ताओं से अभी वास्ता पड़ता है और उनके लिये अभी भी अंग्रेजी पढ़ना ही एक ‘फैशनेबल’ बात है। ऐसे में भले ही सर्च इंजिनों में भले ही देवनागरी करण हो जाये पर लोगों की आदत ऐसे नहीं जायेगी। अभी क्या गूगल हिंदी के लिये कम सुविधा दे रहा है। उसके ईमेल पर भी हिंदी की सुविधा है। ब्लाग स्पाट पर हिंदी लिखने की सुविधा का उपयेाग करते हुए अनेक लोगों को तीन साल का समय हो गया है। अगर हिंदी में लिखने की इच्छा वाले पूरा समाज होता तो क्या इतने कम ब्लाग लेखक होते? पढ़ने वालों का आंकड़ा भी कोई गुणात्मक वुद्धि नहीं दर्शा रहा।
गूगल के ईमेल पर हिंदी लिखने की सुविधा की चर्चा करने पर एक नवयौवना का जवाब बड़ा अच्छा था-‘अंकल हम उसका यूज (उपयोग) नहीं करते, हमारे मोस्टली (अधिकतर) फ्रैंड्स हिंदी नहीं समझते। हिंदी भी उनको इंग्लिश (रोमन लिपि) में लिखना पसंद है। सभी अंग्रेजी माध्यम से पढ़े हैं। जो हिंदी वाले भी हैं वह भी इससे नहीं लिखते।’
ऐसे लोगों को समझाना कठिन है। कहने का तात्पर्य यह है कि हिंदी की कितनी भी सुविधा अंतर्जाल पर आ जाये उसका लाभ तब तक नहीं है जब तक उसे सामान्य समाज की आदत नहीं बनाया जाता। इसका दूसरा मार्ग यह है कि इंटरनेट कनेक्शन सस्ते हो जायें तो अल्प धन वाला वर्ग भी इससे जुड़ेे जिसके बच्चों को हिंदी माध्यम में शिक्षा मजबूरीवश लेनी पड़ रही है। यकीनन इसी वर्ग के हिंदी भाषा का भविष्य को समृद्ध करेगा। ऐसा नहीं कि उच्च वर्ग में हिंदी प्रेम करने वाले नहीं है-अगर ऐसा होता तो इस समय इतने लिखने वाले नहीं होते-पर उनकी संख्या कम है। ऐसा लिखने वाले निरंकार भाव से लिख रहे हैं पर उनके सामने जो समाज है वह अहंकार भाव से फैशन की राह पर चलकर अपने को श्रेष्ठ समझता है जिसमे हिंदी से मूंह फेरना एक प्रतीक माना जाता है।
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Tuesday, October 20, 2009

किसका हुआ कभी कोहिनूर-व्यंग्य कविता (kiska hua kohinoor-vyangya kavita)

चंद खोये सिक्के ढूंढने के लिए
पूरा घर का सामान बिखेर डाला
मिले पलंग के नीचे गिरे हुए
पहले तो खुशी मिली, फिर हुई काफूर।
बिखरी हुई शयों को समेटने के
ख्याल ने कर दिया बदन पहले ही चूर।
खोये पाये के हिसाब में
पूरी जिंदगी हो जाती है बेनूर।
सिक्के इतने जमा कर लिये संभाले नहीं जाते
गिनती में भूल जायें
तो देखते हैं उनको घूर।
सोचते कौन कम हुआ चश्मेबद्दूर।
खोये हुए सिक्के मिल गये
पर चले जायेंगे हाथ से
बनेंगे किसी दूसरे हाथ का नूर।
जिंदगी में गमों का सिलसिला भी आता है
खुशियां भी साथ चलती थोड़ी दूर।
अपना कितनों ने माना होगा
पर किसका हुआ कभी कोहिनूर।

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Wednesday, October 14, 2009

तुम यह क्यों नहीं समझ पाते-व्यंग्य कविता (yah kyon nahin samajh pate-vyangya kavita)

निरापद रहने की कोशिश
निष्क्रिय बना देती है
बाहर जलती आग पर
दिल को ठंडा रखने की सोच
घर को राख बना देती है.
खामोशी से जीती जा सकती हैं दुनिया
पर जीतती है वही बांह
जो जंग में हथियार लेती है.
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जिन के पेट भरे हैं
उनके घर भी बहुत बड़े हैं
अय्याशी की चीजों पर वह फ़िदा हो जाते.
भूख का मतलब वह क्या समझें
रोटी को जो पेट तरसे
उनकी निहारती आँखों को अमीर नहीं पढ़ते
बगावत के इन्तजार में उनके पल भी गुजर जाते.
मौके पर टूटे लोग ही
अपने हाथों से जलाकर चिंगारी
अपनी आग को इतिहास की धारा से बुझाते.
ऐ, दौलतमंदों तुम यह क्यों नहीं समझ पाते.

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Monday, October 12, 2009

जब सचमुच चिराग जलाओगे-व्यंग्य कविता (sach ke chirag-hindi vyangya kavita)

शोर कर रही भीड़ में
शांति कराने के लिये
बहुत तेज आवाज में शोर मचाओगे
तो तुम भी शांति के मसीहा हो जाओगे।
अंधेरे में खड़े लोगों से
रौशनी का वादा करते रहो
तारीफों के कसीदे पढ़े जाते रहेंगे,
लोग भूल जायेंगे अपनी तकलीफ
तब कोई नहीं देखेगा तुम्हारी तरफ
जब सचमुच चिराग जलाओगे।

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Saturday, October 03, 2009

वाह वाह जुटा लो-व्यंग्य कविता (vaah vaah juta lo-hindi vyangya kavita)

कहो कुछ भी
करो कुछ और।
बन जाओगे जमाने के सिरमौर।
सभी को सुनने में अच्छा लगे
ऐसे शब्द अपने मुख से कहो
कड़वा सच बोलकर क्यों संताप सहो
भीड़ में वाह वाह जुटा लो
शौहरत जिससे मिले
ऐसी अदाकारी लुटा दो
बाद में क्या करते हो
इस पर कौन करता है गौर।

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Monday, September 28, 2009

ब्लागवाणी के बंद होने से परेशान न हों-आलेख (closing of blogvani-hindi lekh)

यह पुराने और फ्लाप हिंदी ब्लाग लेखक का पाठ है। यह स्पष्ट करना इसलिये जरूरी है क्योंकि यह पाठ अपने शीर्षक के कारण वह नये ब्लाग लेखक भी पढ़ सकते हैं जिन्होंने इसका नाम तक नहीं सुना हो-हालांकि वह ऐसा करेंगे इसकी आशा नहीं है क्योंकि हिट ब्लाग लेखकों को पढ़ने की आदत जो हो गयी है। ब्लागवाणी बंद हो गया है, इसका दुःख है क्योंकि उसे इस लेखक के दो ऐसे मित्र चला रहे थे जो उसे पसंद करते थे हालांकि ब्लागवाणी पर भले ही इसके पाठ को अधिक समर्थन न मिलता हो।
ब्लागवाणी दो यशस्वी ब्लाग लेखकों का सृजन है (अभी शुरु होने की संभावना है इसलिये था नहीं कर रहे)। इनमें एक तो धुरविरोधीजी नाम से ब्लाग चलाते रहे बाद में उसे बंद कर दिया। उनकी विदाई में दुःख भरे गीत भी गाये गये। हमें भी अफसोस हुआ पर हैरानी तब हुई जब एक ब्लाग मित्र ने प्रथम मुलाकात में ही बताया कि धुरविरोधीजी तो ब्लागवाणी के संचालक हैं। तब हमारा दुःख कम हुआ।
अब इस ब्लागवाणी के अभ्युदय की चर्चा कर लें। ब्लागवाणी का निर्माण तो पहले ही हो गया था पर नारद की वजह से उस पर ब्लाग लेखक कम ही जाते थे जैसे अभी चिट्ठाजगत पर कम जाते हैं। उस समय नारद पर भी पसंद को लेकर ऐसी धमाचैकड़ी मची हुई थी। उस समय धुरविरोधी की स्थिति भी कुछ ऐसी ही थी जैसे हमारे ब्लाग की ब्लागवाणी पर होती है-वहां हमारे पाठ पर दो तीन संख्या ही रहती है हालांकि इससे धुरविरोधी जी के ब्लाग की कुछ अच्छी थी। वह इससे बहुत नाराज थे। इस पर उन्होंने विद्रोह कर दिया। जिसकी परिणति ब्लागवाणी के रूप में हुई। फिर भी उस पर ब्लाग लेखक कम ही जाते थे। एक बार नारद की स्थिति तीन दिन के लिये डांवाडोल हुई तो हमारी हालत भी ऐसे ही बनी जैसी आज मौलिक और स्वतंत्र ब्लाग लेखकों की है। तब ब्लागवाणी पर इस लेखक की नजर पड़ी और एक पाठ लिखा कि नारद में प्रति मोह तो ठीक है पर अन्य फोरमों पर भी जायें। इस पाठ का असर हुआ और ब्लागवाणी पर लोग पहुंच गये। हम भी नारद पर फ्लाप थे पर ब्लागवाणी पर हिट मिलने लगे पर फिर वही ढाक के तीन पात। हम यही सोचते रहे कि केवल इन्हीं फोरमों से पाठक मिलते हैं पर बाद में अपने लिये काउंटर लगाये तो पता लगा कि इन फोरमों से अधिक तो अन्य स्थानों से भी पाठक आते हैं। दरअसल यह समस्या ब्लाग स्पाट के ब्लाग पर ही नजर आती है जबकि वर्डप्रेस के डेशबोर्ड पर पाठक और पढ़े गये पाठों की संख्या का समूचा विवरण दृष्टिगोचर हो जाता है। आप अगर ध्यान करें तो किसी भी वर्डप्रेस वाले ब्लाग लेखक ने ब्लागवाणी के बंद होने पर ऐसा आर्तनाद नहीं किया जितना केवल ब्लाग स्पाट के ब्लाग लेखकों ने किया है।
मौलिक और स्वतंत्र लेखकों को यह जानकर हैरानी होगी कि हमने वर्डप्रेस के सारे ब्लाग अपने दम पर सफल बनाने के विश्वास में ब्लाग वाणी से हटवा लिया थे। आज भी वह यथावत अपनी पाठक संख्या बनाये हुए हैं। हां, एक बात है कि हम लिखते तो ब्लाग स्पाट के ब्लाग पर ही क्योंकि वह ब्लागवाणी पर दिखते हैं और तत्काल प्रतिकिया मिलती है। बाद में उसको वर्डप्रेस के ब्लाग पर रखते हैं और वह अधिक हिट दिलाते हैं।
स्वतंत्र और मौलिक ब्लाग लेखक तकनीक रूप से अधिक सक्षम नहीं होते पर उन ब्लाग लेखकों के पाठ भी नहीं पढ़ते जो इस संबंध में जानकारी देते हैं। उनको हिट देखकर टिप्पणियां दे तो आते हैं पर उनसे सीखते नहीं है। जो स्वतंत्र एवं मौलिक ब्लाग लेखक इन तकनीक से सक्षम ब्लाग लेखकों के पाठ पढ़ेगा वह सीखता जायेगा। इन्हीं ब्लाग लेखकों के ब्लाग से ही इस लेखक ने पाठ पठनपाठक संख्या बताने वाले काउंटर लिये हैं जिनसे अपने ब्लाग का स्तर पता लग जाता है।
जो छोटे शहरों के ब्लाग लेखक हैं उनको हिंदी ब्लाग जगत में चल रहे झगड़ों का सही पता नहीं लगता सिवाय इसके कि दो ग्रुप हैं जो हमेशा ही आपस में द्वंद्वरत रहते हैं। मुश्किल यह है कि दोनों तरफ ही हमारे मित्र हैं वह इस कारण क्योंकि अंतर्जाल पर शुरुआती दौर में उनसे संपर्क हो गया और उनसे हम सीखे। जब यह लोग आपस में टकराते हैं तो जो जानकारी हमारे सामने आती है वह हैरान कर देती है। छद्म नाम से ब्लाग लिखते हैं पर जब एक दूसरे की पोल खोलते हैं तो यह देखकर सन्न रह जाते हैं कि क्या वाकई अमुक ब्लागर छद्म नाम से भी लिखता है। हम जब नाम पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है कि पूरा का पूरा मित्र समूह ही ऐसा है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि हिंदी ब्लाग की सेवाओं को लेकर हम उन पर कोई आक्षेप नहीं करते भले ही उनको थोड़ा बहुत पैसा मिलता हो। बल्कि उनको पैसा मिलने पर हमें खुशी होती है। कभी कभी तो लगता है कि फिक्सिंग वार चल रहा है। इसके बावजूद एक बात सत्य है कि नारद समूह और ब्लागवाणी की आपस में पटरी नहीं बैठ सकती है। अब यह व्यवसायिक वजह से है या विचारों की वजह से इसे जानन को प्रयास करनां अपना समय बरबाद करना है। इसलिये जो रचनाकर्म और अभिव्यक्ति की वजह से ब्लाग लिख रहे हैं वह किसी एग्रीगेटर के बंद होने से इस तरह कभी निराश न हों। अपने ब्लाग स्पाट के ब्लाग पर कोई काउंटर लगा लें यही श्रेयस्कर होगा। नारद समूह के लोग काफी तेज हैं और वह छिपकर नहीं बल्कि सामने आकर ब्लागवाणी के लोगों का सामना करते हैं-यह अलग बात है कि यही लोग पाठकों के लोभ में आकर वहां अपने ब्लाग का पंजीयन कराने से बाज नहीं आते। अगर ब्लागवाणी लिंक नहीं देता तो अपने ब्लाग पर पाठ ही डाल देते हैं फिर उसका लिंक उस ब्लाग पर दिखाते हैं जो ब्लागवाणी पर है। बहरहाल यह ऐसा द्वंद्व ऐसा है जिसमें हम छोटे शहरों के मौलिक तथा स्वतंत्र ब्लाग कोई भूमिका नहीं निभा सकते। जहां तक ब्लागवाणी के संचालकों का सवाल है तो धुरविरोधी जी ऐसे चुप बैठने वालों में नहीं है वह कुछ नया जरूर करेंगे ताकि उनका प्रभाव हिंदी ब्लाग जगत पर बना रहे। यह पाठ हमने इसलिये लिखा क्योंकि कुछ नये तथा पुराने स्वतंत्र मौलिक ब्लागरों को इस पर परेशान होते देखा तो सोचा कि चलो उनसे अपनी बात कही जाये। हमने धुरविरोधी जी नाम इसलिये लिखा क्योंकि उनसे इसी रूप में परिचय है और हम उनके वैचारिक रूप को इसी रूप में पसंद करते हैं। वैसे उनके विरोधी भी उनके उसी रूप को नहीं भूलते और यह बताने से बाज नहीं आ रहे कि हमने तो नारद पर उनके आक्रमण को खूब झेला था वह क्यों अपना एग्रीगेटर बंद कर गये? हमारी धुरविरोधी जी को उनके अगले कदम के लिये शुभकामनायें। उनके विरोधियों को भी शुभकामनायें कि अभी वह कुछ दिन चैन से बैठ लें फिर आयेगा धुरविरोधीजी का कोई नया स्वरूप उनको व्यस्त रखने के लिये। हमारे तो सभी मित्र हो और दशहरे की दोबारा शुभकामनायें। सुबह का पाठ तो ब्लागवाणी के बंद होने के कारण फ्लाप हो गया न!
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Friday, September 25, 2009

दीवारों के पीछे छिपकर-व्यंग्य कविताएं (deevar ke piche chipakar-vyangya kavitaen)

चेहरे पर रोज नया मुखौटा लगाकर
वह सामने चले आते
उनकी बहादुरी पर क्या भरोसा करें
जो अपने पहचाने जाने का खौफ
हमेशा अपने साथ लाते।
..................
दीवारों के पीछे छिपकर
वह पत्थर हम पर उछालते हैं
भीड़ हंसती है
हम भी बदले का इरादा पालते हैं।
दीवारों के पीछे हम नहीं जा सकते
अपनी पहचान छिपाते
डर के साये में जीते वह लोग
मर मर कर जीते होंगे
अपने ही प्रति प्रहार वापस हमारी तरफ लौट आयें
जमाने को मुफ्त में फिर क्यों हंसायें
यही सोचकर चुप रह जाते हैं।

.....................................
लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकाएं भी हैं। वह अवश्य पढ़ें।
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका
4.अनंत शब्दयोग
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

Sunday, September 20, 2009

हिंदी ब्लाग की अंग्रेजी पर बढ़त बन सकती है-आलेख (hindi and inglish blog-hindi lekh)

अंतर्जाल पर कौन कितना सफल है यह तो कहना कठिन है क्योंकि यहां अनेक तरह के फर्जीवाड़े हैं जिनको समझना एक कठिन काम है। चाहे किसी भी भाषा के ब्लाग हैं उनको लेकर अनेक तरह के भ्रम बने ही रहते हैं। अनेक दिलचस्प बातें सामने आती हैं। लोग तमाम तरह की वेबसाईटों पर अपने ब्लाग की रेटिंग दिखाकर अपने को सबसे सफल ब्लाग या वेबसाईट लेखक होने का दावा भी करते हैं। अनेक लोगों को तो यह लगता है कि हम तो अच्छा लिख नहीं रहे इसलिये सफल नहीं है।
अनेक समझदार ब्लाग लेखक ऐसी बातें लिख जाते हैं उनके आशय कुछ भी लिये जा सकते हैं। अभी कुछ दिनों पहले एक समाचार था कि अंतर्जाल पर लिखे जा रहे ब्लागों को एक ही आदमी पढ़ता है। इसका आशय यह भी हो सकता है कि लेखक स्वयं ही पढ़ता है या यह भी हो सकता है कि जिन वेबसाईटों पर ब्लाग बने हैं वहीं से उनकी सामग्री देखी जा सकती है या कहीं उनके द्वारा कुछ लोग इसके लिये नियुक्त हैं जिन्हें रोज ब्लाग पर व्यूज भेजने के लिये रखा गया है।
एक कमाने वाले ब्लाग लेखक ने लिखा था कि ‘हजारों ऐसे पाठक लेकर क्या करूंगा जिनसे मुझे एक पैसा भी न मिले। मुझे तो दस ऐसे ही पाठक काफी हैं जो मेरे विज्ञापनों से मुझे आय अर्जित करायें।’
अब सच क्या है कोई नहीं जानता। अलबत्ता इतना तय है कि अनेक तरह के फर्जीवाड़े संभावित हैं इसलिये यह कहना कठिन है कि कौन कितना सफल है? यह बात केवल ब्लाग लेखकों तक नहीं बड़ी बड़ी वेबसाईटों पर भी लागू होती है। अलबत्ता आॅनलाईन से जनता का काम करने वाली व्यवसायिक वेबसाईटें जरूर अधिक देखी जाती हैं पर वह सफलता और असफलता के दायरे से बाहर हैं। संभव है कोई ऐसा ब्लाग या वेबसाईट लेखक हो जिसको एक हजार पाठक रोज देखते हों और वह कमाता भी हो तो उसे सफल मान लिया जाये और जिसे सौ पाठक देखते हों और वह न कमाता हो उसे असफल मान लिया जाये। इसमें एक पैंच ही फंसता है कि जिसके पास सौ पाठक हों संभव है वह पूरी तरह से सौ हों और जिसके पास हजार हों उसके लिये केवल बीस ही सक्रिय हों। जो ब्लागर कमा रहे हैं उनकी इस बात के लिये प्रशंसा करना चाहिए कि वह आय अर्जित करने का गुर सीख गये हैं और नये लोगों को उनसे प्रेरणा भी लेना चाहिए। मुश्किल यह है कि जिनके लिये अंगूर खट्टे हैं वह कैसे संतोष करें। न पैसा मिले न प्रतिष्ठा उनके लिये क्या है यहां पर? ऐसे में उनके पास एक ही चारा है कि वह अपने पास ऐसे कांउटर लगायें जिससे पता लगे कि उनको कितने लोग पढ़ रहे हैं और कहीं मित्र लोग ही तो केवल फर्जी व्यूज नहीं दे रहे क्योंकि सफलता का भ्रम तो असफलता से भी अधिक बुरा होता है।
इधर हमने शिनी का स्टेट कांउटर लगाकर देखा। यह कांउटर केवल वर्डप्रेस के ब्लाग पर लगाया यह देखने के लिये कि आखिर देखें तो सही कि हमारे ब्लाग किस दिशा में जा रहे हैं। इस कांउटर के साथ अच्छी बात यह है कि इसने ब्लाग के वर्गीकरण कर दिये हैं। पंजीकृत समझ में अधिक नहीं आया पर जो उचित लगा वह वर्ग ले लिया। इसमें मनोरंजन और साहित्य के अलग अलग वर्ग लिये।
इसका अवलोकन करने के बाद करने पर पता चला कि अंग्रेजी के ब्लागों पर भी अब हिंदी ब्लाग की बढ़त बन सकती है। इतना ही नहीं यौन सामग्री से सुसंज्जित सामग्री के मुकाबले भी साहित्य का स्थान बन सकता है। इस कांउटर पर अभी अन्य ब्लाग अधिक पंजीकृत नहीं है इसलिये यह कहना कठिन है कि उनके मुकाबले इस लेखक के ब्लाग का क्या स्तर है? अलबत्ता प्रारंभ में ही हिंदी ब्लागों को पचास में 10 से 13 तक अंक और समाज में ई पत्रिका और दीपक बापू कहिन को साहित्य वर्ग मे 22, 23 स्थान मिलना अच्छा संकेत है। वैसे हिंदी पत्रिका को मनोरंजन के अन्य वर्ग में 82 वां स्थान मिला है पर वहां उसके सामने अंग्रेजी ब्लाग हैं जो शायद अधिक पढ़े जाते है। यह ब्लाग दो दिन पहले तक 92 वें स्थान पर था। यह आंकड़े ऊपर नीचे होंगे। यह कोई बड़ी सफलता का प्रमाण भी नहीं है पर इससे एक बात साफ है कि अंतर्जाल पर हिंदी की पाठक संख्या ठीक ठाक है और भविष्य में हिंदी ब्लाग अंग्रेजी को जरूर चुनौती देंगे। वैसे ब्लाग स्पाट के ब्लाग की सफलता का सबसे अच्छा आंकलन गूगल विश्लेषण प्रस्तुत करता है जिसका दावा है कि वह आपको फर्जी व्यूज से भ्रमित होने से बचाता है। इसके बावजूद अन्य वेबसाईटों पर भी ब्लाग की स्थिति देखी जा सकती है पर उनके साफ्टवेयरों पर अनेक लोग संदेह जाहिर करते हैं। अलबत्ता शिनी ने जो अलग वर्ग बनाये हैं वह एक अच्छी बात है। हमने यह कांउटर एक किसी हिंदी ब्लाग लेखक के ब्लाग से दो सप्ताह पहले ही लिया था पर यह पता नहीं वह किस श्रेणी में पंजीकृत हैं क्योंकि हमने अपनी श्रेणियों में उनको देखने का प्रयास किया था पर दिखाई नहीं दिया। यहां यह भी याद रखने लायक है कि अनेक वेबसाईटें ऐसी हैं जो वहां पंजीकरण कराने पर रैकिंग देती हैं इसलिये उनको लेकर अपना यह दावा करना ठीक नहीं लगता कि हम सफल हैं, क्योंकि संभव है कि अन्य अपंजीकृत ब्लाग हमसे भी श्रेष्ठ हो सकते हैं।

हां, एक मजेदार बात सामने आई। कहा जाता है कि अधिकतर ब्लाग को एक आदमी पढ़ता है। लेखक समेत हम दो मान लें तो सफलता का एक पैमाना यह भी होता है कि आपके ब्लाग को तीसरा आदमी भी पढ़ता दिखे। इस काउंटर पर हमने अपने ब्लाग पर आनलाईन पाठक की संख्या पांच से सात तक देखी है। इसका आशय यह है कि हमारे ब्लाग उस दायरे से तो बाहर निकल गये हैं जो उसे एक या दो पाठक तक ही सीमित रहते हैं।
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Thursday, September 17, 2009

खामोशी-हिंदी शायरी (khamoshi-hindi shayri)

बिकते हैं सपने बीच बाजार
कहीं नकदी कहीं उधार
खरीदने वाले भी कम नहीं हैं।
नारे सुनकर करते अपना काम
चुकाते जाते अपनी जेब से दाम
कामयाबी मिल जाये तो
सौदागरों की तारीफ में गीत गाते
नाकाम होने वाले भी कम नहीं हैं।


अपने सपने टूटने के साथ ही
लोग भी टूट जाते
गैर क्या अपनों को ही दूर पाते
आंसु बहा नहीं पाती उनकी लाचार आंखें
पत्थर जैसे चेहरे पर छायी खामोशी
देखकर लगता
जैसे उनको कोई गम नहीं है।
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Monday, September 14, 2009

हिंदी दिवस पर दो व्यंग्य कवितायें तथा आलेख (Hindi divas parlekh aur vyangya kavitaen)

लो आ गया हिन्दी दिवस
नारे लगाने वाले जुट गये हैं।
हिंदी गरीबों की भाषा है
यह सच लगता है क्योंकि
वह भी जैसे लुटता है
अंग्रेजी वालों के हाथ वैसे ही
हिंदी के काफिले भी लुट गये हैं।
पर्दे पर नाचती है हिंदी
पर पीछे अंगे्रजी की गुलाम हो जाती है
पैसे के लिये बोलते हैं जो लोग हिंदी
जेब भरते ही उनकी जुबां खो जाती हैं
भाषा से नहीं जिनका वास्ता
नहीं जानते जो इसके एक भी शब्द का रास्ता
पर गरीब हिंदी वालों की जेब पर
उनकी नजर है
उठा लाते हैं अपने अपने झोले
जैसे हिंदी बेचने की शय है
किसी के पीने के लिये जुटाती मय है
आओ! देखकर हंसें उनको देखकर
हिंदी के लिये जिनके जज्बात
हिंदी दिवस दिवस पर उठ गये हैं।
.................................
हम तो सोचते, बोलते लिखते और
पढ़ते रहे हिंदी में
क्योंकि बन गयी हमारी आत्मा की भाषा
इसलिये हर दिवस
हर पल हमारे साथ ही आती है।
यह हिंदी दिवस करता है हैरान
सब लोग मनाते हैं
पर हमारा दिल क्यों है वीरान
शायद आत्मीयता में सम्मान की
बात कहां सोचने में आती है
शायद इसलिये हिंदी दिवस पर
बजते ढोल नगारे देखकर
हमें अपनी हिंदी आत्मीय
दूसरे की पराई नजर आती है।
............................
हिंदी दिवस पर अपने आत्मीय जनों-जिनमें ब्लाग लेखक तथा पाठक दोनों ही शामिल हैं-को शुभकामनायें। इस अवसर पर केवल हमें यही संकल्प लेना है कि स्वयं भी हिंदी में लिखने बोलने के साथ ही लोगों को भी इसकी प्रोत्साहित करें। एक बात याद रखिये हिंदी गरीबों की भाषा है या अमीरों की यह बहस का मुद्दा नहीं है बल्कि हम लोग बराबर हिन्दी फिल्मों तथा टीवी चैनलों को लिये कहीं न कहीं भुगतान कर रहे हैं और इसके सहारे अनेक लोग करोड़ पति हो गये हैं। आप देखिये हिंदी फिल्मों के अभिनेता, अभिनेत्रियों को जो हिंदी फिल्मों से करोड़ेा रुपये कमाते हैं पर अपने रेडिया और टीवी साक्षात्कार के समय उनको सांप सूंघ जाता है और वह अंग्रेजी बोलने लगते हैं। वह लोग हिंदी से पैदल हैं पर उनको शर्म नहीं आती। सबसे बड़ी बात यह है कि हिंदी टीवी चैनल वाले हिंदी फिल्मों के इन्हीं अभिनता अभिनेत्रियों के अंग्रेजी साक्षात्कार इसलिये प्रसारित करते हैं क्योंकि वह हिंदी के हैं। कहने का तात्पर्य है कि हिंदी से कमा बहुत लोग रहे हैं और उनके लिये हिंदी एक शय है जिससे बाजार में बेचा जाये। इसके लिये दोषी भी हम ही हैं। सच देखा जाये तो हिंदी की फिल्मों और धारावाहिकों में आधे से अधिक तो अंग्रेजी के शब्द बोले जाते हैं। इनमें से कई तो हमारे समझ में नहीं आते। कई बार तो पूरा कार्यक्रम ही समझ में नहीं आता। बस अपने हिसाब से हम कल्पना करते हैं कि इसने ऐसा कहा होगा। अलबत्ता पात्रों के पहनावे की वजह से ही सभी कार्यक्रम देखकर हम मान लेते हैं कि हमाने हिंदी फिल्म या कार्यक्रम देखा।
ऐसे में हमें ऐसी प्रवृत्तियों को हतोत्तसाहित करना चाहिये। हिंदी से पैसा कमाने वाले सारे संस्थान हमारे ध्यान और मन को खींच रहे हैं उनसे विरक्त होकर ही हम उन्हें बाध्य कर सकते हैं कि वह हिंदी का शुद्ध रूप प्रस्तुत करें। अभी हम लोग अनुमान नहीं कर रहे कि आगे की पीढ़ी तो भाषा की दृष्टि से गूंगी हो जायेगी। अंग्रेजी के बिना इस दुनियां में चलना कठिन है यह तो सोचना ही मूर्खता है। हमारे पंजाब प्रांत के लोग जुझारु माने जाते हैं और उनमें से कई ऐसे हैं जो अंग्रेजी न आते हुए भी ब्रिटेन और फ्रंास में गये और अपने विशाल रोजगार स्थापित किये। कहने का तात्पर्य यह है कि रोजगार और व्यवहार में आदमी अपनी क्षमता के कारण ही विजय प्राप्त करता है न कि अपनी भाषा की वजह से! अलबत्ता उस विजय की गौरव तभी हृदय से अनुभव किया जाये पर उसके लिये अपनी भाषा शुद्ध रूप में अपने अंदर होना चाहिये। सबसे बड़ी बात यह है कि आपकी भाषा की वजह से आपको दूसरी जगह सम्मान मिलता है। प्रसंगवश यह भी बता दें कि अंतर्जाल पर अनुवाद टूल आने से भाषा और लिपि की दीवार का खत्म हो गयी है क्योंकि इस ब्लाग लेखक के अनेक ब्लाग दूसरी भाषा में पढ़े जा रहे हैं। अब भाषा का सवाल गौण होता जा रहा है। अब मुख्य बात यह है कि आप अपने भावों की अभिव्यक्ति के लिये कौनसा विषय लेते हैं और याद रखिये सहज भाव अभिव्यक्ति केवल अपनी भाषा में ही संभव है।

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Thursday, September 10, 2009

शब्दों की जंग महंगी बिकती-हिंदी व्यंग्य कविता (shabdon ke jang-hindi vyangya kavita)

झगड़ा भी एक शय है जो
बड़ा पाव की तरह बाजार में बिकती।
अमन के आदी लोगों में चैन कहां
कहीं शोर देखने की चाहत उनमें दिखती।
इसलिये लिख वह चीज जो
बाजार में बड़े दाम पर बिकती।
अठखेलियां करती कवितायें
मन भाती कहानियां और
अमन के गीत लिखना है तो
अपने दिल के सुकूल के लिये लिख
शोर से दूर एक अजूबा दिख
दुनियां में उनके चाहने वाले
गुणीजनों की अधिक नहीं गिनती।
अमन का पैगाम लिखकर क्या करेगा
जब तक उसमें शोर नहीं भरेगा
सौदागरों ने रची है तयशुदा जंग
उस पर रख अपने ख्याल
जिससे बचे बवाल
सजा दिया है उन्होंने बाजार
वहां शब्दों की जंग महंगी बिकती।
सोचता है अपना
दूसरा ही है तेरा सपना
नहीं बहना विचारों की सतही धारा में
तो तू अपना ही लिख
गहरे में डूबकर नहीं ढूंढ सके मोती
वही नकली ख्याल बहा रहे हैं
सब तरफ बवाल मचा रहे हैं
अपनी सोच की गहराई में उतर जा
कभी न कभी तेरे नाम का भी बजेगा डंका
सच्चे मोती की माला
कोई यूं ही नहीं फिंकती।
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Monday, September 07, 2009

फिल्में नहीं देखोगे तो बहादुर बनोगे-हास्य व्यंग्य (hindi film and breveness-hindi hasya vyangya)

पिछले दो तीन दिनों से टीवी पर बच्चों की बहादुरी के किस्से आ रहे हैं। एक लड़की अपहर्ताओं को चकमा देकर भाग निकली। चलती ट्रेन में डकैती करने वालों को बच्चों ने भागने के लिये बाध्य किया। कुछ और भी घटनायें सामने आ रही हैं। आगे भी ऐसी ही घटनायें आयेंगी और आप देखना वह समय आने वाला है जब भ्रष्टाचारी और अनाचारी लोगों को हमारी कौम के युवा ही सबक सिखायेंगे बस जरूरत इस बात की है कि उनको नैतिक समर्थन मिलना चाहिये।

यह सोचकर लोग सोच रहे होंगे कि आखिर इस निराशाजनक वातावरण के बीच यह आशा की किरण कौन निरर्थक जगा रहा है? सोचने का अपना तरीका होता है पर कोई बात है जो मन में होती है पर हम उसे स्वयं नहीं देख पाते। दरअसल आज की नयी पीढ़ी मनोरंजन के लिये हिंदी फिल्मों पर निर्भर नहीं है। आजकल के सभी बच्चे-जो कभी युवा तो होंगे-हिंदी फिल्में नहीं देखते और यकीनन जो नहीं देखेंगे वह बहादुर बनेंगे, यह हमारा दावा है। अगर आज की सक्रिय पीढ़ी को देखें तो वह कायरों जैसी लगती है और इसका कारण है फिल्में। इसने उस दौर की फिल्में देखी हैं जब मनोंरजन का वह इकलौता साधन था और जो कायरता का बीच बो रही थीं। सामने कोई भी हो पर इनके पीछे के प्रायोजक सही नीयत के लोग नहीं थे और उनका हित समाज को कायर बनाने में था। यहां तक कि कलात्मक फिल्मों के नाम पर ऐसी कायरता समाज में बोई गयी।
एक फिल्म में नायिका को निर्वस्त्र किया गया और बाकी लोग हतप्रभ होकर देख रहे थे। दृश्य मुंबई के किसी मोहल्ले का था। कहने को निर्देशक कह रहे थे कि हम तो वही दिखा रहे हैं जो समाज में होता है पर यह सरासर झूठ था। उस समय तक यह संभव नहीं था कि किसी छोटे शहर में कोई शोहदा ऐसी हरकत करे और सभी लोग उसे नकारा होकर देखें।
अनेक फिल्मों में ईमानदारी पुलिस इंस्पेक्टर का पूरा का पूरा परिवार का सफाया होते दिखाया गया। आज आप जिस शोले, दीवार और जंजीर फिल्मो की बात सोचें तो वह मनोरंजन से अधिक समाज को कायर बनाने के लिये बनायी गयीं। संदेश यह दिया गया कि अगर आप एक आम आदमी हो तो चुपचाप सभी झेलते जाओ। नायक बनना है तो फिर परिवार के सफाये के लिये मन बनाओ।
सच बात तो यह है कि सभी पुलिस वाले भी ऐसे नहीं थे जैसे इन फिल्मों में दिखाये गये। पुलिस हो या प्रशासन आदमी तो आदमी होता है जब समाज के अन्य लोगों पर बुरा प्रभाव पड़े तो वह इससे बच जाये यह संभव नहीं है। इसलिये उस समय जो बच्चे थे वह जब सक्रिय जीवन में आये तो कायरता उनके साथी थी।

इस संबंध में पिछले साल की टीवी पर ही दिखायी गयी एक घटना याद आ रही है जब बिहार में एक स्त्री को निर्वस्त्र किया जा रहा था तब लोग नकारा होकर देख रहे थे। तब लगने लगा कि समाज पर हिंदी फिल्मों ने अपना रंग दिखा दिया है। इधर हमारे टीवी चैनल वाले भी इन फिल्मों के रंग में रंगे हैं और वह ऐसे अवसरों पर ‘हमारा क्या काम’ कर अपने फोटो खींचते रहते हैं।
आजकल की सक्रिय पीढ़ी बहुत डरपोक है। फिल्म के एक हादसे से ही उस पर इतना प्रभाव पड़ता रहा है कि हजारों लोग भय के साये में जीते हैं कहीं किसी खलनायक से लड़ने का विचार भी उनके मन में नहीं आता।
सच बात तो यह है कि इन फिल्मों का हमारे लोगों के दिमाग पर बहुत प्रभाव पड़ता रहा है और आज की पीढ़ी के सक्रिय विद्वान अगर यह नहीं मानते तो इसका मतलब यह है कि वह समाज का विश्लेषण नहीं करते। फिल्मों के इसी व्यापाक प्रभाव का उनसे जुड़े लोगों ने अध्ययन किया इसलिये वह इसके माध्यम से अपने ऐजंेडे प्रस्तुत करते रहे हैं। अगर आप थोड़ा बहुत अर्थशास्त्र जानते हैं और किसी व्यवसाय में रहे हों तो इस बात को समझ लीजिये कि इसका प्रायोजक फिल्मों से पैसा कमाने के साथ ही अपने ऐजेंडे इस तरह प्रस्तुत करता है कि समाज पर उसका प्रभाव उसके अनुकूल हो। आपको याद होगा जब देश आजाद हुआ तो देशभक्ति के वही गाने लोकप्रिय हुए जो फिल्मों में थे। फिर तो यह आलम हो गया कि हर फिल्में एक गाना देशभक्ति का होने लगा था। फिर होली, दिवाली तथा राखी के गाने भी इसमें शामिल हुए और उसका प्रभाव पड़ा।
अगर आप कोई फिल्म में देखें तो उसका विषय देखकर ही आप समझ जायेंगे कि उसके पीछे कौनसा आर्थिक तत्व है। हमने तो यही आंकलन किया है कि जहां से पैसा आ रहा है उसकी हर कोई बजा रहा है। आजकल के संचार माध्यमों में तमाम तरह के प्रसारण देखकर इस बात को समझ लेते हैं कि उनके आर्थिक स्त्रोत कहां हैं। यह जरूरी नहीं है कि किसी को प्रत्यक्ष सहायता दी जाये बल्कि इसका एक तरीका है ‘विज्ञापन’। इधर आप देखें तो अनेक धनपतियों -जिनको हम आज के महानायक भी कहते सकते हैं-के अनेक व्यवसाय हैं। वह क्रिकेट और फिल्मों से जुड़े हैं तो उनको इस बात की आवश्यकता नहीं कि आत्मप्रचार के लिये सीधे पैसा दें बल्कि उनसे अप्रत्यक्ष रूप से विज्ञापन पाने वाले उनका प्रचार स्वतः करेंगे। उनका जन्म दिन और मंदिर में जाने के दृश्य और समाचार स्वतः ही प्रस्तुत संचार माध्यमों में चमकने लगते हैं। फिर उनके किसी एक व्यवसाय के विज्ञापन से मिलने वाली राशि बहुत अच्छी हो तो उनके दूसरे व्यवसाय का भी प्रचार हो जायेगा।
हमने तो आत्मंथन किया है और अपने मित्रों से भी कई बार इस बात पर चर्चा की और सभी इस बात पर सहमत थे कि इन फिल्मों के माध्यम से समाज को कायर, लालची और अहंकारी बनाया गया है। वह इस बात को भी मानते हैं कि हो सकता है कि यह ऐजेंडा समाज को अपने चंगुल में रखने के प्रयास के उद्देश्य से ही हुआ हो। बहरहाल बच्चों की बहादुरी देखकर यह मन में आया कि यकीनन अब फिल्मों का इतना प्रभाव नहीं है और यकीनन उन बच्चों में हिंदी फिल्मों द्वारा पैदा किया जाने वाला कायरता का भाव उनमें नहीं जम पाया है। यह भाव इस तरह पैदा होता है कि एक चाकू पकड़े बदमाश भी इतना खतरनाक ढंग से पेशा आता है कि बाकी सभी लोग सांस थामें उसे देखते हैं तब तक, जब तक कोइ नायक नहीं आ जाता। इन फिल्मों पर यह आरोप इसलिये भी लगता है कि क्योंकि अधिकतर फिल्मों में खलनायक को लोगों का गोलियों से सीना छलनी करते दिखाने के बाद जब नायक से उसकी मुठभेड़ होती है तो वह लात घूंसों में दिखती है-कभी ऐसा नहीं दिखाया गया कि नायक पिस्तौल लेकर पहुंचा हो और पीछे से खलनायक को मारा हो। अपराधी खतरनाक, चालाक और अजेय होते हैं पर उतने नही जितने फिल्मों में दिखाया गया। ऐसे बहादुर बच्चों को सलाम। आजकल के बच्चों को तो बस हमारी यही शिक्षा है कि सब देखो। श्लील हो या अश्लीन वेबसाईट या फिल्म! सब चलेगा! मगर यह हिन्दी फिल्में मत देखना वरना कायरों की तरह जियोगे। जिन माता पिता को अपने बच्चे बहादुर बनाने हैं वह फिल्मों से अपने बच्चों को बचायें चाहे वह अंग्रेजी की हों-आखिर हिंदी फिल्में भी उनकी नकल होती हैं।
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Friday, September 04, 2009

कल्पनातीत-हिंदी शायरी (Unthinkable - Hindi poetry)

बरसात में सड़क पर चलते हुए
जब पानी से भरे छोटे छोटे समंदर
और कीचड़ के पहाड़ों से गिरता टकराता हूं।
तब याद आती है
सुबह अखबार में छपी तरक्की की खबरें
और उसे सभी में बांटने के लिये
शोर करते लोगों के जूलूस की फोटो याद
तब बरबस हंसी आ जाती है
उनको कल्पनातीत पाता हूं।
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Wednesday, September 02, 2009

मुफ्त की इज्जत और शौहरत-हिंदी व्यंग्य कविता (muft ki ijjat aur shauharat-vyagnya kavita)

जेब खाली हो तो
अपना चेहरा आईने में देखते हुए भी
बहुत डर लगता है
अपने ही खालीपन का अक्स
सताने लगता है।

क्यों न इतरायें दौलतमंद
जब पूरा जमाना ही
आंख जमाये है उन पर
और अपने ही गरीब रिश्ते से
मूंह फेरे रहता है।

अपना हाथ ही जगन्नाथ
फिर भी लगाये हैं उन लोगों से आस
जिनके घरों मे रुपया उगा है जैसे घास
घोड़ों की तरह हिनहिना रहे सभी
शायद मिल जाये कुछ कभी
मिले हमेशा दुत्कार
फिर भी आशा रखे कि मिलेगा पुरस्कार
इसलिये दौलतमंदों के लिये
मुफ्त की इज्जत और शौहरत का दरिया
कमअक्लों की भीड़ के घेरे में ही बहता है।

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Monday, August 31, 2009

गमों के शेर-हिंदी कविता (gamon ke sher-hindi sahityak kavita)

बेजान चीजों के इश्क ने
अपने ही रिश्तों में गैर का अहसास
घोल दिया है।
किसी से दिल लगाना बेकार लगता है
दोस्ती को मतलब से तोल दिया है।
हर तरफ चलती है मोहब्बत की बात
आती नहीं कभी चाहने की रात
सुबह से शाम तक
तन्हा गुजारता इंसान
तड़ता है अमन के पलों के लिये
जिसने शायरों के लिये
गमों के शेर लिखकर
वाह वाही लूटने का रास्ता खोल दिया है।

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Saturday, August 29, 2009

अमन और प्यार का पैगाम-हास्य व्यंग्य कविता (aman aur pyar ka paigam-vyangya kavita)

कागज पर छपी तस्वीरों से मूंह मोड़कर
पत्थर के बुतों को तोड़कर
किताबों में शब्दों के झुंड जोड़कर
अपनी छड़ी के सहारे
पूरी दुनियां में
अमन और प्यार का पैगाम
कुछ इंसानों ने सुनाया।
मां के पेट से पैदा हुए सभी
पर कुछ लोग ऐसे जताते हैं
जैसे धरती ने उनको बुलाया।

अपने लिखे शब्दों को
सर्वशक्तिमान का बताते
आम इंसान होकर उसका दूत जताते
आलोचना करने पर सजा
बिना सोचे हां करने पर ही आया उनको मजा
खूनी इतिहासों में
सर्वशक्तिमान के लफ्ज ढूंढने वालों!
उसने सभी को एक जैसा बनाया
न सुनो उनकी
जिन्होंने खुद को खास कहकर
दुनियां के गुरु होने के अहसास को भुनाया।
..................................

दूसरे के ईमान पर किया
हथियार लेकर हमला।
फिर बनाया अपने ईमान का गमला।
अच्छी बाते कह गये
पर नीयत हमेशा शक में रही
झूठ पर लगी ताकत के सहारे मोहर
गर्दन कटी उसकी, जिसने सच बात कही
ईमान परस्त होना अच्छा है
पर बेईमान हैं वह लोग जो
उसको बढ़ाने के लिये जुटाते अमला।
.....................




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Sunday, August 23, 2009

प्रेमी, प्रेयसी और सच-हिंदी हास्य कविता (love couple and sach ka samana-hindi hasya kavita)

आशिक ने दोस्त से कहा
‘‘यार, सोचता हूं
सच की मशीन पर बैठकर
साक्षात्कार कराऊं।
वैसे भी कहा गया है कि
त्रिया चरित्र के बारे में कोई नहीं जानता
हर कोई अपने अनुमान को सही मानता
आजकल के घोर कलियुग में तो
कहना ज्यादा कठिन है
इसलिये सच पता करने का
यह पश्चिमी मार्ग अपनाऊं।’’
सुनकर दोस्त ने कहा
‘‘किस मूर्ख ने कहा है कि
सच के सामने की मशीन से
अपनी जिंदगी का प्रमाणपत्र पाओ
दोस्त! तुम जिस इश्क के चक्कर में हो
वह भी पश्चिमी मार्ग है
जिसमें आदमी और औरत चलते है
एक अकेले राही की तरह
चाहने वालों के नाम
स्टेशन की तरह बदल जाते हैं
फिर तुम कौन दूध के धुले हो
कहीं उसने कह दिया कि
तुम भी गर्म आसन (हाॅट सीट) पर
बैठकर अपना सच बताओ
तो फिर कहां जाओगे
झूठ बोलते पकड़े जाओगे
आओगे मेरे पास पूछने कि
‘रूठी प्रेयसी को कैसे मनाऊं।’
तब मेरा जवाब यही होगा कि
‘मैं खुद ही भुगत रहा हूं
तुम्हें रास्ता कहां से बताऊं।’’
.......................................


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Tuesday, August 11, 2009

अपनी मेहनत पर पछताओगे-हिंदी शायरी (mehnat aur moti-hindi shayri)

विध्वंस कानों में शोर करते हुए
आंखों को चमत्कार की तरह दिखता है।
इसलिये हर कोई उसी पर लिखता है।

अथक परिश्रम से
पसीने में नहाई रचना
शांति के साथ पड़ी रहती हैं एक कोने में
कोई अंतर नहीं होता उसके होने, न होने में।
आवाज देकर वह नहीं जुटाती भीड़
इसलिये कोई उस पर नहीं लिखता है।
.........................
किसी के मन में हिलौरें
नहीं उठाओगे।
तो कोई दाम नहीं पाओगे।
हर किसी में सामथर्य नहीं होता
कि जिंदगी की गहराई में उतरकर
शब्दों के मोती ढूंढ सके
तुम सतह पर ही डुबकी लगाकर
अपनी सक्रियता दिखाओ
चारों तरफ वाह वाह पाओगे।

सच्चे मोती लाकर क्या पाओगे।
उसके पारखी बहुत कम है
नकली के ग्राहक बहुत मिल जायेंगे
पर तुम्हारे दिल को सच से
तसल्ली मिल सकती है
पर इससे पहले की गयी
अपनी मेहनत पर पछताओगे।

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Monday, August 10, 2009

दोनों हाथों मे लड्डू-व्यंग्य कविता (donon hathon men laddu-vyangya kavita)

उन्होंने पूछा
‘अपनी जाति पर तुम गर्व क्यों करते हो
अपने हर पर्व पर तुम आहें क्यो भरते हो
कहीं अपनी पहचान ढूंढते हो
कहीं अपने जन्म की पहचान
चीखों में भरते हो।’
जवाब मिला
‘अपने दबे कुचले होने की बात कहने से
हमदर्द ढेर सारे मिल जाते हैं
यहां जज्बातों के सौदागर
अन्याय की बात पर दौड़े आते
हर जगह सुर्खियों में जगह पाते
अपनी अदाओं से तो वैसे ही चमकते हैं
जब होता है काम फीका
तब अपने खिलाफ अन्याय का दर्द भर कर
लोगों कें दिलों में जगह बनाये रखने
और मशहूरी के लिये
यह अभिनय भी हम अच्छी तरह करते हैं
हम तो दोनों हाथों मे लड्डू भरते हैं
इससे फर्क नहीं पड़ता कि
तुम देखकर बस,आहें भरते हो।

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Sunday, August 09, 2009

इन्टरनेट हैकर्स-आलेख (internet hecker-hindi lekh)

उस दिन अखबार में पढ़ा कि चीन में इंटरनेट के हेकर्स को प्रशिक्षण देने वाले बकायदा संस्थान खुल गये हैं। यह कोई एक दो नहीं बल्कि बड़ी तादाद में है। यह पढ़कर माथा ठनका। इससे पहले चीनी हेकर्स द्वारा पूरी दुनियां में उत्पात बचाने की चर्चा हो चुकी है। हो सकता है कि कुछ लोग इसे गंभीरता से नहीं ले रहे हों पर खबर पढ़कर लगा कि जैसे अब अंतर्जालीय आतंकवाद की तैयारी हो रही है।
इन हैकर्स को विदेशियों के सर्वरों की सूचनायें एकत्रित करने और उन्हें हैक करने का बकायदा प्रशिक्षण दिया जा रहा है। यह कोई मनोरंजन के लिये नहीं हो रहा बल्कि इस आतंकवाद का बकायदा व्यवसायिक उपयोग होने की आशंका प्रतीत होती है। चीन में इस समय बेकारी बहुत है और हो सकता है कि उसके युवक युवतियां इसमें बेहतर संभावनायें ढूंढ रहे हों। देश के कुछ लोगों को शायद यह मजाक लगे पर इस लेखक ने तीस साल पहले आतंकवाद पर कविता लिखी थी और आज भी लिखता है और यही अनुभव बताता है कि कहीं न कहीं अवैध ढंग से धन कमाने वाले इसी प्रकार के आतंकवाद के पीछे जाकर अपना काम करते हैं। यह हैकरी का धंधा कोई अकेले चीनी नहीं करेंगे बल्कि उनको उन देशों में अपने जमीनी संगठन की जरूरत होगी जहां से अपने कुकृत्य से धन वसूल करना होगा। ऐसे में बकायदा गिरोह बन सकते हैं।

चीन में जिस तरह की व्यवस्था है उसमें यह संभव नहीं है कि वहां के हैकर अपने देश के लोगों के विरुद्ध यह काम करें इसलिये इससे असली खतरा अन्य देशों को हैं जिसमें भारत का नाम होना तय है। जिस तरह खूनी आतंकवाद में विश्व के लोग भेद करते हैं वैसे ही इस अंतर्जालीय आतंकवाद में भी करेंगे और उसमें भी भारत के आतंकवाद को अनदेखा किया जा सकता है। भारत में सरकारी और निजी क्षेत्र में अनेक संगठन हैं और उनको निशाना बनाने का प्रयास भविष्य में हो सकता है। अखबारों में हैकर को प्रशिक्षण देने वाले संस्थानों सार्वजनिक रूप से खुलना इस बात का ही संकेत हैं। उस समय चीन जांच और कार्यवाही में सहयोग करेगा यह तो सोचना ही बेकार है। फिर भारत में कहीं न कहीं उन हैकर्स का जमीनी संगठन जरूर बनेगा जिसके सहारे वह यहां अंतर्जालीय आतंक फैला सकें।
कहने को चीन तो यही कहेगा कि यह तो निजी क्षेत्र के कुछ लोग कर रहे हैं पर यह सब जानते हैं कि वहां की सरकार के बिना वहां पता भी नहीं हिल सकता।
अभी हाल ही में भारतीय नक्शे के साथ छेड़छाड़ की बात सामने आयी जिसपर गूगल ने अपनी गलती मानी पर एक हिदी ब्लाग लेखक ने अपनी टिप्पणी में लिखा कि यह किसी चीनी हैकर्स की बदमाशी है। इसमें भारतीय अधिकार वाले क्षेत्र चीनी क्षेत्र में दिखाई दिये गये। कुछ ब्लाग लेखकों ने इस पर शोर मचाया तो कुछ ने इसे तकनीकी पक्ष में अपने विचार रखते हुए बताया कि यह एक चीनी हैकर की शरारत है। एक हिंदी ब्लाग लेखक का कहना है कि गूगल के आधिकारिक नक्शे में सब पहले ही जैसे है। जिस नक्शे में हेराफेरी की गयी है उसे कोई भी कापी कर उसमें हेरफेर कर सकता है। संभव है कि गूगल ने इस इरादे के साथ उसे खुला रखा हो कि कोई अच्छा परिवर्तन वहां हो जाये तो उसे अपने नक्शे में भी दिखाया जाये। इसी बारे में एक ब्लाग लेखक ने बताया कि किसी चीनी हैकर ने उसमें घुसकर परिवर्तन किया है। मजे की बात यह है कि गूगल इस गलती को अपनी मान रहा है भारतीय ब्लाग लेखक तो कहते हैं कि उसकी कोई गलती नहीं है पर वह मानेगा क्योंकि उससे लोगों में यह संदेश जायेगा कि उनके सारा डाटा सुरक्षित हैं। अगर अपनी गलती न मानकर वह चीनी हैकर पर बात डालता हो यह संदेश उल्टा जायेगा। आशय यह है कि चीनी हैकर्स को यह सुविधा मिल गयी है कि वह अपराध भी कर बच भी गया। इस लेखक को अधिक जानकारी नहीं है पर जो टीवी चैनल पर देखा और हिंदी ब्लाग जगत में पढ़ा उसी के आधार पर यह सब लिख रहा है।
कुछ तकनीकी ब्लाग लेखक बताते हैं कि गूगल ने बाहर के लोगों से मदद लेने के लिये अपने कुछ साफ्टवेयर खुले रख छोड़ रखे हैं। इनमें गूगल समूह का नाम तो सभी जानते हैं। इस समूह में हिंदी ब्लाग जगत के अनेक तकनीकी ब्लाग लेखकों ने ‘चिट्ठाकार समूह’ शुरु किया जो आजतक चल रहा है। इसी में ही भारतीय भाषाओं के जानकारों ने हिंदी के यूनिकोड टूल भी स्थापित किये हैं जो इस लेखक के लिये भी बड़े उपयोगी सिद्ध हो चुके हैं।
कहने का तात्पर्य है कि गूगल अपने साथ अधिक से अधिक लोग जोड़ने की गुंजायश रखता है और यही कारण है कि वह रचनाकर्मियों और व्यवसायियों का प्रिय बना हुआ है। जिन लोगों ने हिंदी ब्लाग जगत की शुरुआत की उनके लिये गूगल ही सबसे बड़ा सहायक रहा है और वह इसी कारण कि उसने इसके लिये गुंजायश रखी हुई है। अब सवाल यह है कि भारत के लोगों की नीयत साफ है इसलिये वह तो रचनाकर्म में लग जाते हैं पर चीन में तो हालत ऐसी नहीं है इसलिये वह ऐसे साफ्टवेयरों में प्रवेश कर उनका भारत विरोधी उपयोग के लिये कर सकते हैं। जोर जबरन जनसंख्या पर नियंत्रण के प्रयासों ने वहां के समाज का ढर्रा ही बिगाड़ दिया है। फिर इधर उसने यौन सामग्री से सुसज्जित वेबसाईटों पर प्रतिबंध भी लगाया। यहां यह बात याद रखने लायक है कि चीन में कंप्यूटर पर सक्रिय रहने वालों की संख्या भारत से कहीं अधिक है। दूसरी बात यह है कि चीन सरकार स्वयं ही कंप्यूटर पर काम करने वालों को प्रोत्साहन दे रही है। इसके विपरीत भारत में निजी मठाधीशी की परंपरा है। इसके चलते जिनका वर्चस्व कला, साहित्य, पत्रिकारिता तथा अन्य क्षेत्रों में बना हुआ है उनको लगता है कि अंतर्जाल पर आमजन की अधिक सक्रियता से उनके पीछे की भीड़ वहां से खिसक जायेगी। इसलिये वह न केवल स्वयं उपेक्षा का भाव रखे हुए हैं बल्कि दूसरों को भी निरुत्साहित करते हैं। ऐसे में वेबसाईट और ब्लाग पर रचनाकर्म के लिये सक्रिय ब्लाग लेखकों को एकाकी होकर ही अपना काम करना पड़ता है। ऐसे में हैकरी वगैरह से निपटने के लिये उनको समय कहां मिल सकता है। उधर चीन में तो बकायदा हैकरों का एक तरह संगठन बनता जा रहा है। उनका सामना करने का सामथ्र्य अमेरिका और ब्रिटेन के अंतर्जाल विशेषज्ञों में ही हो सकता है पर वह क्यों भारत के लिये यह काम करेंगे?
अनेक अमेरिकी आर्थिक विशेषज्ञ चीन की प्रगति में काले धन का योगदान मानते हैं जिसमें अपराधिक क्षेत्रों का अधिक योगदान है। अंतर्जाल पर ब्लैकमेल और वसूली के लिये धन जुटाने के प्रकरण बढ़ सकते हैं। फिर भारत विरोधी केवल धन से ही संतुष्ट कहां होते हैं? वह सांस्कृतिक, साहित्यक तथा धार्मिक क्षेत्रों मे भी वैचारिक आक्रमण करते हैं। ऐसे में अंतर्जाल पर हिंदी की समृद्धि के लिये प्रयासरत ब्लाग लेखकों को अपने ब्लाग की रक्षा भी करने के लिये सोचना पड़ेगा। जब यह लेखक अपने दो ब्लाग जब कैद में फंसे देखता है तब इस बात पर विचार करना ही पड़ता है।
यह लेखक जब किसी दिन अपना ब्लाग चीन में पढ़ा गया देखता है तो चिंता की लकीर माथे पर आने लगती हैं। इंटरनेट में हैकर्स का नाम सुनते थे पर जिस तरह तेजी से घटनाक्रम घूम रहा है उससे तो लगता है कि यहां एकचित से लिखना कोई आसान नहीं रहने वाला। हालंाकि वह समय दूर है। अभी हिंदी ब्लाग जगत पर किसी की नजर नहीं जा रही। भारत में ही लोगों को नहीं पता तो चीन वालों की नजर कहां से जायेगी। अलबत्ता नक्शे में हेरफेर इस बात को दर्शाता है कि यह तो एक तरह से अंतर्जाल पर हमले की शुरुआत है। इससे यह संकेत तो मिल गया है कि जहां भी चीनी हैकर्स को जब अवसर मिलेगा वह भारत विरोधी कार्यवाही को अंजाम दे सकता है। हिंदी के ब्लाग अनेक भाषाओं में पढ़े देखे गये हैं सिवाय चीनी भाषा के-इससे यह तो तय है कि उनसे मित्रता की आशा फिलहाल तो नहीं की जा सकती।
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Thursday, August 06, 2009

समाज और सवाल-हास्य कविता (samaj aur saval-hasya kavita)


बरसों से फ्लाप दुकान का
बोझ ढो रहे थे यौनाचार्य।
कभी दुध वाला पैसे देने के लिए लड़ता
तो कभी किराने वाला पकड़ता
एक तो वैसे ही जमाने से
मूंह छिपाते
फिर आधुनिक चिकित्सा शिक्षा पद्धति से
शिक्षित समाज में
उनके पास यौन रोगी भी कम आते
अब चमक रहा है उनका चेहरा
जब से परिचय बदलकर
लिख दिया है समलैंगाचार्य।’
...................................
समाज की समस्याओं पर
वह हमेशा सवाल उठाते हैं।
जवाब ढूंढने से क्यों न हो उनको परहेज
लोग उनके
सवाल पर ही वाह वाह किये जाते हैं।
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Sunday, August 02, 2009

दिल का चैन और इज्जत-हिंदी शायरी (dil ka chain aur ijjat-hindi shayri)

कामयाबी की कीमत
मुद्रा में आंकी जाने लगी है।
इज्जत और दिल के चैन का
मोल लोग भूल गये हैं
ढेर सारी दौलत एकत्रित कर
प्रतिष्ठा का भ्रम पाले
अपने पांव तले
दूसरे इंसान को कुचलने की चाहत
हर इंसान में जगी है।
..............................
वह कौनसी तराजू हैं
जिसमें इंसान की इज्जत
और दिल का चैन तुल जाये।
दौलत के ढेर कितने भी बड़े हों
फिर भी उनमें कोई द्रव्य नहीं है
जिसमें दिल का अहसास उसमें घुल जाये।
.............................

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Saturday, August 01, 2009

हिंसा में मनोरंजन की तलाश-हिन्दी व्यंग्य कविता (hindi vyangya kavita)

प्रचार माध्यमों में अपराधियों की
चर्चा कुछ इस तरह ऐसे आती है
कि उनके चेहरे पर चमक छा जाती है।
कौन कहां गया
और क्या किया
इसका जिक्र होता है इस तरह कि
असली शैतान का दर्जा पाकर भी
अपराधी कि खुशी बढ़ जाती है।

पर्दे के नकली हीरो का नाम
देवताओं की तरह सुनाया जाता है
उसकी अप्सरा है कौन नायिका
भक्त है कौन गायिका
इस पर ही हो जाता है टाइम पास
असली देवताओं को देखने की किसे है आस
दहाड़ के स्वर सुनने
और धमाकों दृश्य देखने के आदी होते लोग
क्यों नहीं फैलेगा आतंक का रोग
पर्दे पर भले ही हरा लें
असली शैतानों को नकली देवता नहीं हरा सकते
रोने का स्वर गूंजता है
पर दर्द किसे आता है
झूठी हमदर्दी सभी जगह सजाई जाती है।

कविता हंसने की हो या रोने की
बस वाह-वाह किया जाता है
दर्द का व्यापार जब तक चलता रहेगा
तब तक जमाना यही सहेगा
ओ! अमन चाहने वाले
मत कर अपनी शिकायतें
न दे शांति का संदेश
यहां उसका केवल मजाक उड़ाकर
हिंसा में मनोरजन की तलाश की जाती है।
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Friday, July 31, 2009

कोई फरिश्ता आयेगा-हिंदी शायरी (koi farishta ayega-hindi shayri)

अपनी सुरक्षा स्वयं नहीं की तो
कोई दूसरा आकर क्यों करेगा।
अपने घाव पर मरहम नहीं लगाया तो
दूसरा कौन आकर दर्द दूर करेगा।
भलाई के नारे सुनकर मत बहकना
बिकती है बाजार में
मिलेगी तभी जब उसके दाम भरेगा।
................................
जब बाजार में ख्याल
सच बनकर बिक जाते हों
वहां खरीददार पर तरस तो आयेगा।
टूटते बिखरते जज्बात
अन्याय और आंतक की सहते लात
लोग झेल रहे हैं इस इंतजार में
उनका बचाने कोई आकाश से आयेगा।
हाथ पांव होते लाचार
बुद्धि होते हुए भी नहीं आता विचार
आकाश की तरफ ताक रहे खिलौने की तरह
इस उम्मीद में कि
उनको चलना सिखाने कोई फरिश्ता आयेगा।

..................................



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Monday, July 27, 2009

तुम हो वह तिल-हास्य कवितायें (hasya kavita)

दिल बहलाना अब व्यापार हो गया है
और व्यापार कभी
दिल बहलाने के लिये नहीं होता।
मुफ्त में कुछ कोई नहीं दिल बहलाता
कहीं न कहीं जेब से पैसा जाता
विज्ञापन वह फन है
जिसमें हर कोई माहिर नहीं होता।
देखते रहे चाहे कितना खेल आंखों से
जेब से पैसा जब निकलता है
तब कोई नहीं देख रहा होता।
............................
बहला लो चाहे कितना दिल
कहीं न कहीं चुकाओगे बिल।
दिल के व्यापारी
खेल का भी व्यापार करते हैं
जिससे तेल निकालेंगे, तुम हो वह तिल
............................
संगीत का शोर न हो तो
आंखों से कौन देखता है दृश्य।
जब कानों से देखने का काम लेंगे
तो क्या समझेंगे
वाह वाह जुबान से किये जाते हैं
बुद्धि से हो जाती है सोच अदृश्य।

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Saturday, July 25, 2009

अक्षर,शब्द और भाषा-हिंदी कविता (akshara,shabda & bhasha-hindi kavita)

अकेला अक्षर कभी शब्द नहीं बनता
अकेला शब्द कभी भाषा नहीं बनता।
कई मिलकर बनाते हैं एक भाव समूह
जिससे उनका निज परिचय बनता।
एक का अस्तित्व कौन जानेगा
जब तक दूसरा नहीं दिखेगा
कहीं से पढ़कर ही कोई अपने हाथ से लिखेगा
भाषा में एक अकेला शब्द अहंकार भी है
जिसके भाव के इर्द गिर्द घूम रहा हर कोई
विनम्रता से परे सारी जनता।
अक्षर का अकेलापन
शब्द का बौनापन
बृहद भाषा समूह के बिना दर्दनाक होता है
जो जान लेता है
वही सच्चा लेखक बनता

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Tuesday, July 21, 2009

नजर और नजरिया-हिन्दी शायरी (nazar aur nazariya-hindi shayri)

अपनी पीर किसे दिखाऊं
हर शख्स आकंठ डूबा है
अपनी ही तकलीफों में
किसको अपना समंदर दिखाऊं।

लोगों के नजर और नजरिये में
इतना फर्क आ जाता है
जो सोचते और देखते है
अल्फाजों में बयां दूसरा ही बन जाता है
सुनते कुछ हैं
समझ में कुछ और ही आता है
पहले उनको अपना दर्द दिखाऊं
या इलाज करना सिखाऊं

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Sunday, July 19, 2009

सोच या सच का सामना-व्यंग्य चिंतन (sach ka samna-hindi vyangya)

कोई काम सोचने से वह सच नहीं हो जाता। आदमी की सोच पता नहीं कहां कहां घूमती है। बड़े बड़े ऋषि और मुनि भी इस सोच के जाल से नहीं बच पाते। अगर यह देह है तो उसमें बुद्धि, अहंकार और मन उसमें अपनी सक्रिय भूमिका निभायेंगे। इस सोच पर किसी बुद्धिमान और ज्ञानी का भी नियंत्रण नहीं रहता।
मान लीजिये कोई अत्यंत मनुष्य अहिंसक है। वह सपने में भी किसी के विरुद्ध हिंसा तो कर ही नहीं सकता पर अगर वह रात में सोते समय अपने कान में मच्छर के भिनभिनाने की आवाज से दुःखी हो जाता है उस समय अगर सोचता है कि इस मच्छर को मार डाले पर फिर उसे याद आता है उसे तो अहिंसा धर्म का पालन करना है। उसने मच्छर को नहीं मारा पर उसके दिमाग में मारने का विचार तो आया-भले ही वह उससे जल्दी निवृत हो गया। कहने का तात्पर्य यह है कि सोच हमेशा सच नहीं होता।
मान लीजिये कोई दानी है। वह हमेशा दान कर अपने मन को शांति प्रदान करता है। उसके सामने कुछ दादा लोग किसी ठेले वाले का सामान लूट रहे रहे हैं तब वह उसे क्रोध आता है वह सोचता है कि इन दादाओं से वह सामान छीनना चाहिये फिर उसे अपनी बेबसी का विचार आता है और वह वहां से चला जाता है। यह छीनने का विचार किसी भी दान धर्म का पालन करने वाले के लिये अपराध जैसा ही है। उस दानी आदमी ने दादाओं सामान छीनकर उस ठेले वाले को वापस लौटाने का प्रयास नहीं किया पर यह ख्याल उसके मन में आया। यह छीनने का विचार भी बुरा है भले ही उसका संदर्भ उसकी इजाजत देता है।
पंच तत्वों से बनी इस देह में मन, बुद्धि और अहंकार की प्रकृतियों का खेल ऐसा है कि इंसान को वह सब खेलने और देखने को विवश करती हैं जो उसके मूल स्वभाव के अनुकूल नहीं होता। क्रोध, लालच, अभद्र व्यवहार और मारपीट से परे रहना अच्छा है-यह बात सभी जानते हैं पर इसका विचार ही नहीं आये यह संभव नहीं है।
मुख्य बात यह है कि आदमी बाह्य व्यवहार कैसा करता है और वही उसका सच होता है। इधर पता नहीं कोई ‘सच का सामना’ नाम का कोई धारावाहिक प्रारंभ हुआ है और देश के बुद्धिमान लोगों ने हल्ला मचा दिया है।
पति द्वारा पत्नी की हत्या की सोचना या पत्नी द्वारा पति से बेवफाई करने के विचारों की सार्वजनिक अभिव्यक्ति को बुद्धिमान लोग बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। कई लोग तो बहुत शर्मिंदगी व्यक्त कर रहे हैं। इस लेखक ने सच का सामना धारावाहिक कार्यक्रम के कुछ अंश समाचार चैनलों में देखे हैं-इस तरह जबरन दिखाये जाते हैं तो उससे बचा नहीं जा सकता। उसके आधार वह तो यही लगा कि यह केवल सोच की अभिव्यक्ति है कोई सच नहीं है। सवाल यह है कि इसकी आलोचना भी कहीं प्रायोजित तो नहंी है? हम इसलिये इस कार्यक्रम की आलोचना नहीं कर पा रहे क्योंकि इसे देखा नहीं है पर इधर उधर देखकर बुद्धिजीवियों के विचारों से यह पता लग रहा है कि वह इसे देख रहे हैं। देखने के साथ ही अपना सिर पीट रहे हैं। इधर कुछ दिनों पहले सविता भाभी नाम की वेबसाईट पर ही ऐसा बावेला मचा था। तब हमें पता लगा कि कोई यौन सामग्री से संबंधित ऐसी कोई वेबसाईट भी है और अब जानकारी में आया कि सच का सामना भी कुछ ऐसे ही खतरनाक विचारों से भरा पड़ा है।
इस लेखक का उद्देश्य न तो सच का सामना का समर्थन करना है न ही विरोध पर जैसे देश का पूरा बुद्धिजीवी समाज इसके विरोध में खड़ा हुआ है वह सोचने को विवश तो करता है। बुद्धिजीवियों ने इस पर अनेक विचार व्यक्त किये पर किसी ने यह नहीं कहा कि इस कार्यक्रम का नाम सच का सामना होने की बजाय सोच का सामना करना होना चाहिये। दरअसल सच एक छोटा अक्षर है पर उसकी ताकत और प्रभाव अधिक इसलिये ही वह आम आदमी को आकर्षित करता है। लोग झूठ के इतने अभ्यस्त हो गये है कि कहीं सच शब्द ही सुन लें तो उसे ऐसे देखने लगेंगे कि जैसे कि कोई अनूठी चीज देख रहे हों।
पहले ऐसे ही सत्य या सच नामधारी पत्रिकायें निकलती थीं-जैसे ‘सत्य कहानियां, सत्य घटनायें, सच्ची कहानियां या सच्ची घटनायें। उनमें होता क्या था? अपराधिक या यौन कहानियां! उनको देखने पर तो यही सच लगता था कि दुनियां में अपराध और यौन संपर्क को छोड़कर सभी झूठ है। यही हाल अब अनेक कार्यक्रमों का है। फिर सच तो वह है जो वास्तव में कार्य किया गया हो। अगर कथित सच का सामना धारावाहिक की बात की जाये तो लगेगा कि उसमें सोचा गया है। वैसे इस तरह के कार्यक्रम प्रायोजित है। एक कार्यक्रम में पत्नी के सच पर पति की आंखों में पानी आ जाये तो समझ लीजिये कि वह प्रायोजित आंसू है। अगर सच के आंसू है तो वह कार्यक्रम के आयोजक से कह सकते हैं कि-‘भई, अपना यह कार्यक्रम प्रसारित मत करना हमारी बेइज्जती होगी।’
मगर कोई ऐसा कहेगा नहीं क्योंकि इसके लिये उनको पैसे दिये जाते होंगे।
लोग देख रहे हैं। इनके विज्ञापन दाताओं को बस अपने उत्पाद दिखाने हैं और कार्यक्रम निर्माताओं को अपनी रेटिंग बढ़ानी है। सच शब्द तो केवल आदमी के जज्बातों को भुनाने के लिये है। इसका नाम होना चाहिये सोच का सामना। तब देखिये क्या होता है? सोच का नाम सुनते ही लोग इसे देखना बंद कर देंगे। सोचने के नाम से ही लोग घबड़ाते हैं। उनको तो बिना सोच ही सच के सामने जाना है-सोचने में आदमी को दिमागी तकलीफ होती है और न सोचे तो सच और झूठ में अंतर का पता ही नहीं लगता। यहां यह बता दें कि सोचना कानून के विरुद्ध नहीं है पर करना अपराध है। एक पुरुष यह सोच सकता है कि वह किसी दूसरे की स्त्री से संपर्क करे पर कानून की नजर में यह अपराध है। अतः वहां कोई अपने अपराध की स्वीकृति देने से तो रहा। वैसे यह कहना कठिन है कि वहां सभी लोग सच बोल रहे होंगे पर किसी ने अगर अपने अपराध की कहीं स्वीकृति दी तो उस भी बावेला मच सकता है।
निष्कर्ष यह है कि यह बाजार का एक खेल है और इससे सामाजिक नियमों और संस्कारों का कोई लेना देना नहीं है। अलबत्ता मध्यम वर्ग के बद्धिजीवी-सौभाग्य से जिनको प्रचार माध्यमों में जगह मिल जाती है-इन कार्यक्रमों की आलोचना कर उनको प्रचार दे रहे हैं। हालांकि यह भी सच है कि उच्च और निम्न मध्यम वर्ग के लोगों पर इसका प्रभाव होता है और उसे वही देख पाते हैं जो खामोशी से सामाजिक हलचलों पर पैनी नजर रखते हैं। बहरहाल मुद्दा वहीं रह जाता है कि यह सोच का सामाना है या सच का सामना। सोच का सामना तो कभी भी किया जा सकता है पर उसके बाद का कदम सच का होता है जिसका सामना हर कोई नहीं कर सकता
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Sunday, July 12, 2009

बहस और बाजार-व्यंग्य कविता (bahas aur bazar-hindi vyangya kavita)

सभागार के तले
मंच पर चले
बहसों के दौर
सुबह और शाम।
दिन पर चले पर नतीजा सिफर
छलकते हैं फिर भी रात को जाम।


अक्लमंदों की महफिल सजती है
उनकी दिमागी बोतल से
निकलते हैं लफ्ज
ऊपर लगी है मुद्दों की छाप
बाहर आते ही उड़ जाते बनकर भाप
मशहूर हो जाते बस यूं ही नाम।

बंद कमरे में हुई बहस
बाजार में बिकने आ जाती है
जमाने में छा जाती है
किसी नतीजे पर पहुंचने की उम्मीद है बेकार
नहीं चली बहस आगे
तो जज्बातों के सौदागार हो जायेंगे बेजार
इसलिये मुद्दे बार बार
चमकाये जाते हैं
कभी लफ्ज तो कभी छाप
बदलकर सामने आते हैं
अक्लमंद करते हैं बहस
पीछे बाजार करता है अपना काम।
इसलिये जिस शय को बाजार में बेचना है
उस पर जरूरी है बंद कमरे में
पहले बहस कराने का काम।
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Wednesday, July 08, 2009

बाजार में सजा स्वयंवर-हास्य व्यंग्य (bazar men svyanvar-hindi hasya vyangya)

वैसे तो भारतीय संस्कृति और संस्कारों में लोगों को ढेर सारे दोष दिखाई देते हैं पर फिर भी वह उसमें तमाम कथ्यों और तथ्यों की पुनरावृत्ति करते वही दिखाई देते हैं। भारतीय ग्रंथों में वर्णित हैं स्वयंवर की प्रथा। इसमें लड़की स्वेच्छा से वर का चुनाव करती है। भारतीय समाज में स्त्री को समान स्थान देने का दावा करने वाले इसी प्रथा का उदाहरण देते हैं।
सच बात तो यह है कि प्राचीन भारतीय ग्रंथों में मनुष्य मन को मोह लेने वाले सारे तत्व हैं। इससे आगे यह कहें कि जैसे जिसकी दृष्टि है वैसे ही वह उसे दिखाई देते हैं। हम अपने इन्हीं ग्रंथों को देखें तो उनका यह संदेश साफ है कि जिस दृष्टि से इस दुनियां को देखोगे वैसे ही दिखाई देगी। भारतीय ग्रंथों से आगे अन्य कोई सत्य ढूंढ नहीं सकता। भारत पर हमला करने वालों ने सबसे पहले उन स्थानों को जलाया और नष्ट किया जहां से पूरे देश में ज्ञान पहुंचता था। उन स्थानों पर योगी, योद्धा और युग का निर्माण होता था।
यही हमलावर अपने साथ आधे अधूरे कचड़ा बुद्धि वाल ज्ञानी भी ले आये जिन्होंने चमत्कारों और लोभ के सहारे यहां अपने ज्ञान का प्रचार किया। उन्होंने समाज में भेद स्थापित किये और यहां अपना परचम फहराया।

वह और उनके चेले माया की चमक में उस गहरे ज्ञान को क्या समझते? उन्होंने तो बस हाथ ऊपर उठाकर सर्वशक्तिमान से धन ,सुख और दिल की शांति मांगना ही सिखाया। इसे हम सकाम भक्ति का भी सबसे विकृत रूप कह सकते हैं। जीवन का अंतिम सत्य मौत है, पर उन्होंने अपने को जिंदा दिखाने के लिये मुर्दों को पूजना सिखाया।
सुना है आजकल एक अभिनेत्री का स्वयंवर का प्रत्यक्ष प्रसारण किसी टीवी चैनल पर दिखाया जा रहा है। स्वयंवर भारतीय समाज की एक आकर्षक और मन लुभावनी परंपरा रही है पर यह सभी लड़कियों के लिये नहीं है। स्वयंवर अधिकतर धनी मानी और राजसी युवतियों के भी इस आशा के साथ होते थे क्योंकि उसमें योद्धा, बुद्धिमान और सुयोग्य वर आने की संभावना अधिक होती थी। सामान्य लड़कियों के लिये स्वयंवर कभी आयोजित किये गये हों इसकी जानकारी नहीं है। भारतीय महापुरुषों तथा परंपराओं को सही ढंग से लोग नहीं इसलिये इन स्वयंवरों का इतिहास भी जानना जरूरी है। जिन आधुनिक लड़कियों के मन में उस अभिनेत्री को देखकर स्वयंवर की इच्छा जागे वह जरा यह भी समझ लें कि इन स्वयंवरों के बाद का इतिहास उन महान महिलाओं के लिये तकलीफदेह रहा है जो इन स्वयंवरों की नायिकायें थी।
सबसे पहले श्रीसीता जी के स्वयंवर का इतिहास देख लें। उनके पिता को अपनी असाधारण पुत्री-याद रहे वह राजा जनक को हल जोतते हुए मिली थी-के लिये असाधारण वर की आवश्यकता थी। श्रीराम के रूप में वह मिला भी। श्रीराम जी और श्रीसीता जी की यह जोड़ी पति पत्नी के रूप में आदर्श मानी जाती है पर दोनों ने कितने कष्ट उठाये सभी जानते हैं।
दूसरा स्वयंवर द्रोपदीजी का प्रसिद्ध है। उसके बाद जो महाभारत हुआ तो उससे श्रीगीता के संदेश इस विश्व में स्थापित हुआ। द्रोपदी को जीवन में कितना कष्ट हुआ सभी जानते हैं।
तीसरा स्वयंवर भी हुआ है जिसमें नारद जी ने भगवान विष्णु से श्रीहरि जैसा चेहरा मांग लिया तो उन्होंने वानर जैसा दे दिया। अपमानित होकर लौटे नारद ने भगवान श्री विष्णु को शाप दिया कि कभी न कभी आपको वानर की सहायता लेनी पड़ेगी। श्रीरामावतार के रूप में यह शाप उन्होंने भोगा। जिसमें वानरों की सहायता लेनी पड़ी और उसमें भी श्रीहनुमान तो सेवक होते हुए भी श्रीहरि जैसे ही प्रसिद्ध हुए।
च ौथा स्वयंवर संयोगिता का है जिसमें से श्री प्रथ्वीराज उनका अपहरण कर ले गये। इतिहासकार मानते हैं कि वहां से जो इस देश में आंतरिक संघर्ष प्रारंभ हुआ तो वह गुलामी पर ही खत्म हुआ।
स्वयंवर एक अच्छी परंपरा हो सकती है पर सामान्य लोगों द्वारा इसे कभी अपनाया नहीं गया। वजह साफ है कि राजा या धनी आदमी के लिये तो कोई भी दामाद चुनकर उसको संरक्षण दिया जा सकता है पर सामान्य आदमी को देखदाख कर ही अपनी पुत्री का विवाह करना पड़ता है। विवाह का मतलब होता है गृहस्थी बसाना। विवाह एक दिन का होता है पर गृहस्थी तो पूरे जीवन की है। इसमें आर्थिक और सामाजिक दबावों का सामना करना पड़ता है।
वैसे एक बात समझ में नहीं आती कि आधुनिक समय में जो लोग आजादी से जीना चाहते हैं वह किसलिये विवाह के बंधन में फंसना चाहते हैं। अब तो अपने देश में बिना विवाह साथ रहने की छूट मिल गयी है। यहां याद रखने वाली है कि विवाह एक सामाजिक बंधन हैं। जो समाज आदि को नहीं मानते हुए इश्क के चक्कर में पड़ते हैं फिर इस सामाजिक बंधन के ंमें फिर उसी समाज को मान्यता क्यों देते हैं। कहीं धर्म बदलकर तो कहीं जाति बदलकर विवाह करते हैं। एक तरफ प्यार की आजादी की मांग उधर फिर यह विवाह जैसा सामाजिक बंधन! कभी कभी यह बातें हास्य ही पैदा करती हैं।
टीवी पर आता है कि प्यार पर समाज का हमला। अरे, भई जब आप अपने प्यार को एक समाज की विवाह प्रथा छोड़कर दूसरे की अपनाओगे तो हारने वाले समाज को तो गुस्सा आयेगा। यह स्वयंवर भी इसी तरह की परंपरा है। हिन्दू धर्म के आधार ग्रंथों की रचना के पीछे ऐसे ही स्वयंवर है पर फिर भी लोग इसे अब नहीं अपनाते।
आखिर में जाति और लिंग के आधार पर भेद करने वाली जिन ऋचाओं, श्लोकों और दोहों को हमारा हिन्दू समाज आज भले ही नहीं मानता पर उन्हीं की आड़ में उनकी आलोचना होती है पर जिसे पूरे समाज ने कभी नहीं अपनाया उसी स्वयंवर प्रथा का बाजारीकरण कर दिया। भई, यह बाजार है। आजकल इसमें स्वयंवर सज रहा है क्योंकि उससे बाजार पैसा कमा सकता है।
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Saturday, July 04, 2009

सिंधी भाषा का लिपि विवाद खत्म करना होगा-आलेख

भारतीय भाषाओं में सिंधी भाषा का भी अग्रणी स्थान रहा है पर किसी एक प्रदेश की भाषा न होने के कारण अब लुप्तप्रायः होती जा रही है। सिंधी भाषा बोलने वाले अधिकतर पाकिस्तान और भारत में ही हैं। दोनों ही देशों में अनेक लोगों की मातृभाषा होने के कारण सिंधी अस्तित्व बचाने के लिये जूझ रही है। अगर हम देखें तो भाषा के कारण ही सिंधी समाज एक जाति के रूप में अस्तित्व कायम रख पाया है पर सरकारी और गैरसरकारी समर्थन मिलने के बावजूद इस समाज ने अपनी भाषा को बचाने का अधिक प्रयास नहीं किया। कुछ सिंधी भाषी लेखकों ने अपने स्तर पर सिंधी में लिखने का प्रयास किया पर सामाजिक समर्थन न मिलने से उनका अभियान अधिक नहीं चल पाया।
सच बात तो यह है कि अंग्रेजी ने जिस तरह हिंदी भाषा को नुक्सान पहुंचाया उतना ही सिंधी भाषा को भी पहुंचाया। सिंधी समाज के लोग अपने बच्चों के लिये सिंधी भाषा की उपयोगिता नहीं समझते हालांकि इसकी वजह से उनकी पहचान खत्म होती जा रही है। दरअसल सिंधी समाज इस कारण भी अपने भाषा के प्रति उदासीन होता गया क्योंकि उसके विद्वान हमेशा ही लिपि को लेकर उलझे रहे। जब यह भाषा लगभग समाप्त प्रायः हो रही है तब भी इस पर विवाद बने रहना आश्चर्य की बात है।
वैसे सिंधी समाज पूरी तरह से व्यवसायिक है इसलिये वह उसी भाषा का उपयोग करने के लिये प्रयत्नशील रहा है जो उसके लिये आय का साधन हो। इसके बावजूद इस समाज के कुछ युवकों ने यह प्रयास किया कि सिंधी देवनागरी में लिखकर समाज के लिये कुछ काम किया जाये पर उनको अपने ही समाज के कर्णधारों का समर्थन नहीं मिला। इसके अलावा क्षेत्रवाद ने भी इस भाषा के लेखकों को अधिक प्रोत्साहन नहीं दिया। कुछ क्षेत्रों में सिंधी भाषा अभी भी देवनागरी के साथ अरेबिक लिपि में पढ़ाई जाती है और यह वह हैं जहां सिंधी समाज पूरी तरह से बसा हुआ है। सिंधी समाज के लोग चूंकि व्यवसायी हैं इसलिये उनकी बसाहट उन क्षेत्रों में भी है जहां वह कम हैं और जहां अधिक हैं तो भी अन्य समाज भी संख्या बल में उनसे बराबर हैं। वहां प्रादेशिक भाषाओं के साथ सिंधी समाज के विद्यार्थी अपनी शिक्षा प्राप्त करते हैं। अनेक सिंधी भाषी लेखकों ने हिंदी भाषा में अपना स्थान बना लिया है पर उनके द्वारा अपनी भाषा में लिखने का प्रयास विफल चला जाता है।
इधर अंतर्जाल पर सिंधी भाषा को लेकर कुछ उत्साहजनक संकेत मिले पर उनका सतत प्रवाह बना रहेगा इसमें संदेह है। इस समय अंतर्जाल पर हिंदी लिखने वाले अनेक लेखक सिंधी भाषी हैं और उन्होंने अच्छा मुकाम भी प्राप्त कर लिया है। उनमें से कुछ लेखकों ने सिंधी में लिखने का प्रयास किया है।
इस लेखक की प्राथमिक शिक्षा सिंधी देवनागरी विद्यालय में हुई थी। इसी कारण सिंधी देवनागरी में यहां भी एक ब्लाग बनाया। उसकी ठीकठाक प्रतिक्रिया हुई। मुश्किल लिपि की है पर आजकल उपलब्ध टूलों के कारण लाभ भी हुआ। देवनागरी से अरेबिक टूल से अनुवाद एक जानकार को पढ़ाया तो उससे लगा कि वह ठीक अनुवाद करता है पर अरेबिक से हिंदी में अनुवाद कोई ठीक नहीं है पर फिर भी पढ़ा जा सकता है। उस ब्लाग पर लिखते हुए पाकिस्तान के सिंधी ब्लाग लेखकों से कुछ समय तक संपर्क रहा पर फिर उस पर नहीं लिखा तो वह टूट गया। उस सिंधी भाषी ब्लाग पर अधिक सक्रियता यह लेखक नहीं दिखाता पर उनसे यह तो पता लग ही गया है कि अनेक सिंधी भाषी अंतर्जाल पर बहुत बढ़िया काम कर रहे हैं और उनमें यह भी इच्छा है कि वह हिंदी के साथ सिंधी में भी काम करे पर उनका आपसी सामंजस्य नहीं बन पाता। एक ब्लाग लेखक ने यह प्रयास किया था कि उनका भी कोई फोरम बन जाये पर लिखने वालों की संख्या एक तो कम है फिर उनकी उदासीनता अभी भी बनी हुई है। इस लेखक के एक पाठ पर भारत के ही एक सिंधी पाठक ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि‘सिंधी भाषा को देवानागरी या रोमन लिपि में न लिखें क्योंकि अरेबिक लिपि उसकी जान है।’
इस लेखक ने उसे लिखा था कि‘अब इस तरह के विवाद का लाभ नहीं है। अगर हमें सिंधी भाषा में लिखना और पढ़ना है तो तीनों लिपियों के साथ चलना होगा। भाषा से अधिक कथन की तरफ अपना ध्यान देना होगा।’
यह टिप्पणी उसी क्षेत्र से की गयी थी जहां सिंधी अरेबिक लिपि में पढ़ाई जाती है हालांकि वहां अब छात्रों की संख्या अब बहुत कम हो गयी है और वह टिप्पणीकार कोई पुराने समय का विद्यार्थी रहा होगा।
सिंधियों को अपनी स्थिति पर विचार करना चाहिये। यहां एक सिंधी विद्वान का कथन याद आता है जो अक्सर अपने समाज के लोगों से प्रश्न करते हैं। वह कहते हैं कि ‘हम किस आधार पर यह कहते हैं कि हम सिंधी हैं क्योंकि उसकी तो हमें भाषा ही नहीं आती। देश में सामाजिक व्यवस्था ऐसी है कि समाज पूरी तरह से टूट नहीं सकता। ऐसे में जब आज से पचास वर्ष बाद जब कोई सिंधी परिवार का पिता अपनी बेटी या बेटे का रिश्ता लेकर किसी दूसरे के यहां जायेगा तो क्या कहेगा कि‘आपके और हमारे पूर्वज सिंधी थे इसलिये आपके यहां रिश्ता करने आये हैं। तब वह कौनसा प्रमाण लायेगा कि वह सिंधी है।’
दो भाषाओं का ज्ञान कठिन या अनावश्यक है यह कहना ही निरर्थक है। अनेक सिंधी परिवारों के लेखक हिंदी में लिख रहे हैं तो सिंधी देवानागरी में लिखने का प्रयास करते हैं। ऐसे में उनको समाज से समर्थन न मिलना उनके साथ ही समाज के अन्य लोगों के लिये परेशानी का कारण बन सकता है जब यह समाज अपनी भाषाई पहचान खो बैठेगा जो कि इसका आधार है। इस लेखक का तो यह भी कहना है कि केवल सिंधी ही भाषी ही नहीं बल्कि अन्य भाषी लोग भी अपनी निज भाषायें बचाने का प्रयास करें क्योंकि यही हिंदी की ताकत है कि वह विभिन्न भाषाओं को अपने साथ संजोये रख सकती है। वैसे भी लिपि विवाद अनुवाद टूलों के कारण अर्थहीन होता चला जा रहा है। भले ही अरेबिक लिपि से देवनागरी लिपि में अनुवाद अधिक शुद्ध नहीं है पर पाठों का भाव तो समझ में आ ही जाता है।
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