बड़े साहब के हाथ काली लकीर से हैं बंधे, हुक्म के बोझ लिपिक चपरासी के हैं कंधे।
‘दीपकबापू’ रिश्वत के दाम एक से हुए दो हजार, राजप्रहरी बने जिनके काले हैं धंधे।।
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राजकाज के धंधे से अपना घर चलाते, लोकतंत्र यज्ञ अपने में वंश के दीप जलाते।
‘दीपकबापू’ चंदे से बढ़ाते रहते विदेशी खाता, जनमत का सोना धनबल में गलाते।।
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जंगल में जहां पेड़ थे पत्थर के महल खड़े हैं, प्यार से ज्यादा कागजी शब्द बड़े हैं।
‘दीपकबापू’ भक्ति बेचते हुए विक्रेता बने भगवान, विद्वान शब्द अपने नाम से जड़े हैं।।
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रोटी की चिंता में क्यों घुले जाते, हमारे नाम दाने लिखे सोच में क्यो धुले जाते।
‘दीपकबापू’ भर लिये भंडार अन्न धन के, फिर बेईमानी की तराजू में क्यों तुले जाते ।।
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अन्न जल सहज मिले सत्य क्या मानेंगे, मायापुरी के वासी भजन भाव क्या जानेंगे।
‘दीपकबापू’ पहियों पर सवारी करने वाले, पदयात्रा के पथ का आनंद क्या जानेंगे।