Friday, July 31, 2009

कोई फरिश्ता आयेगा-हिंदी शायरी (koi farishta ayega-hindi shayri)

अपनी सुरक्षा स्वयं नहीं की तो
कोई दूसरा आकर क्यों करेगा।
अपने घाव पर मरहम नहीं लगाया तो
दूसरा कौन आकर दर्द दूर करेगा।
भलाई के नारे सुनकर मत बहकना
बिकती है बाजार में
मिलेगी तभी जब उसके दाम भरेगा।
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जब बाजार में ख्याल
सच बनकर बिक जाते हों
वहां खरीददार पर तरस तो आयेगा।
टूटते बिखरते जज्बात
अन्याय और आंतक की सहते लात
लोग झेल रहे हैं इस इंतजार में
उनका बचाने कोई आकाश से आयेगा।
हाथ पांव होते लाचार
बुद्धि होते हुए भी नहीं आता विचार
आकाश की तरफ ताक रहे खिलौने की तरह
इस उम्मीद में कि
उनको चलना सिखाने कोई फरिश्ता आयेगा।

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Monday, July 27, 2009

तुम हो वह तिल-हास्य कवितायें (hasya kavita)

दिल बहलाना अब व्यापार हो गया है
और व्यापार कभी
दिल बहलाने के लिये नहीं होता।
मुफ्त में कुछ कोई नहीं दिल बहलाता
कहीं न कहीं जेब से पैसा जाता
विज्ञापन वह फन है
जिसमें हर कोई माहिर नहीं होता।
देखते रहे चाहे कितना खेल आंखों से
जेब से पैसा जब निकलता है
तब कोई नहीं देख रहा होता।
............................
बहला लो चाहे कितना दिल
कहीं न कहीं चुकाओगे बिल।
दिल के व्यापारी
खेल का भी व्यापार करते हैं
जिससे तेल निकालेंगे, तुम हो वह तिल
............................
संगीत का शोर न हो तो
आंखों से कौन देखता है दृश्य।
जब कानों से देखने का काम लेंगे
तो क्या समझेंगे
वाह वाह जुबान से किये जाते हैं
बुद्धि से हो जाती है सोच अदृश्य।

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Saturday, July 25, 2009

अक्षर,शब्द और भाषा-हिंदी कविता (akshara,shabda & bhasha-hindi kavita)

अकेला अक्षर कभी शब्द नहीं बनता
अकेला शब्द कभी भाषा नहीं बनता।
कई मिलकर बनाते हैं एक भाव समूह
जिससे उनका निज परिचय बनता।
एक का अस्तित्व कौन जानेगा
जब तक दूसरा नहीं दिखेगा
कहीं से पढ़कर ही कोई अपने हाथ से लिखेगा
भाषा में एक अकेला शब्द अहंकार भी है
जिसके भाव के इर्द गिर्द घूम रहा हर कोई
विनम्रता से परे सारी जनता।
अक्षर का अकेलापन
शब्द का बौनापन
बृहद भाषा समूह के बिना दर्दनाक होता है
जो जान लेता है
वही सच्चा लेखक बनता

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Tuesday, July 21, 2009

नजर और नजरिया-हिन्दी शायरी (nazar aur nazariya-hindi shayri)

अपनी पीर किसे दिखाऊं
हर शख्स आकंठ डूबा है
अपनी ही तकलीफों में
किसको अपना समंदर दिखाऊं।

लोगों के नजर और नजरिये में
इतना फर्क आ जाता है
जो सोचते और देखते है
अल्फाजों में बयां दूसरा ही बन जाता है
सुनते कुछ हैं
समझ में कुछ और ही आता है
पहले उनको अपना दर्द दिखाऊं
या इलाज करना सिखाऊं

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Sunday, July 19, 2009

सोच या सच का सामना-व्यंग्य चिंतन (sach ka samna-hindi vyangya)

कोई काम सोचने से वह सच नहीं हो जाता। आदमी की सोच पता नहीं कहां कहां घूमती है। बड़े बड़े ऋषि और मुनि भी इस सोच के जाल से नहीं बच पाते। अगर यह देह है तो उसमें बुद्धि, अहंकार और मन उसमें अपनी सक्रिय भूमिका निभायेंगे। इस सोच पर किसी बुद्धिमान और ज्ञानी का भी नियंत्रण नहीं रहता।
मान लीजिये कोई अत्यंत मनुष्य अहिंसक है। वह सपने में भी किसी के विरुद्ध हिंसा तो कर ही नहीं सकता पर अगर वह रात में सोते समय अपने कान में मच्छर के भिनभिनाने की आवाज से दुःखी हो जाता है उस समय अगर सोचता है कि इस मच्छर को मार डाले पर फिर उसे याद आता है उसे तो अहिंसा धर्म का पालन करना है। उसने मच्छर को नहीं मारा पर उसके दिमाग में मारने का विचार तो आया-भले ही वह उससे जल्दी निवृत हो गया। कहने का तात्पर्य यह है कि सोच हमेशा सच नहीं होता।
मान लीजिये कोई दानी है। वह हमेशा दान कर अपने मन को शांति प्रदान करता है। उसके सामने कुछ दादा लोग किसी ठेले वाले का सामान लूट रहे रहे हैं तब वह उसे क्रोध आता है वह सोचता है कि इन दादाओं से वह सामान छीनना चाहिये फिर उसे अपनी बेबसी का विचार आता है और वह वहां से चला जाता है। यह छीनने का विचार किसी भी दान धर्म का पालन करने वाले के लिये अपराध जैसा ही है। उस दानी आदमी ने दादाओं सामान छीनकर उस ठेले वाले को वापस लौटाने का प्रयास नहीं किया पर यह ख्याल उसके मन में आया। यह छीनने का विचार भी बुरा है भले ही उसका संदर्भ उसकी इजाजत देता है।
पंच तत्वों से बनी इस देह में मन, बुद्धि और अहंकार की प्रकृतियों का खेल ऐसा है कि इंसान को वह सब खेलने और देखने को विवश करती हैं जो उसके मूल स्वभाव के अनुकूल नहीं होता। क्रोध, लालच, अभद्र व्यवहार और मारपीट से परे रहना अच्छा है-यह बात सभी जानते हैं पर इसका विचार ही नहीं आये यह संभव नहीं है।
मुख्य बात यह है कि आदमी बाह्य व्यवहार कैसा करता है और वही उसका सच होता है। इधर पता नहीं कोई ‘सच का सामना’ नाम का कोई धारावाहिक प्रारंभ हुआ है और देश के बुद्धिमान लोगों ने हल्ला मचा दिया है।
पति द्वारा पत्नी की हत्या की सोचना या पत्नी द्वारा पति से बेवफाई करने के विचारों की सार्वजनिक अभिव्यक्ति को बुद्धिमान लोग बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। कई लोग तो बहुत शर्मिंदगी व्यक्त कर रहे हैं। इस लेखक ने सच का सामना धारावाहिक कार्यक्रम के कुछ अंश समाचार चैनलों में देखे हैं-इस तरह जबरन दिखाये जाते हैं तो उससे बचा नहीं जा सकता। उसके आधार वह तो यही लगा कि यह केवल सोच की अभिव्यक्ति है कोई सच नहीं है। सवाल यह है कि इसकी आलोचना भी कहीं प्रायोजित तो नहंी है? हम इसलिये इस कार्यक्रम की आलोचना नहीं कर पा रहे क्योंकि इसे देखा नहीं है पर इधर उधर देखकर बुद्धिजीवियों के विचारों से यह पता लग रहा है कि वह इसे देख रहे हैं। देखने के साथ ही अपना सिर पीट रहे हैं। इधर कुछ दिनों पहले सविता भाभी नाम की वेबसाईट पर ही ऐसा बावेला मचा था। तब हमें पता लगा कि कोई यौन सामग्री से संबंधित ऐसी कोई वेबसाईट भी है और अब जानकारी में आया कि सच का सामना भी कुछ ऐसे ही खतरनाक विचारों से भरा पड़ा है।
इस लेखक का उद्देश्य न तो सच का सामना का समर्थन करना है न ही विरोध पर जैसे देश का पूरा बुद्धिजीवी समाज इसके विरोध में खड़ा हुआ है वह सोचने को विवश तो करता है। बुद्धिजीवियों ने इस पर अनेक विचार व्यक्त किये पर किसी ने यह नहीं कहा कि इस कार्यक्रम का नाम सच का सामना होने की बजाय सोच का सामना करना होना चाहिये। दरअसल सच एक छोटा अक्षर है पर उसकी ताकत और प्रभाव अधिक इसलिये ही वह आम आदमी को आकर्षित करता है। लोग झूठ के इतने अभ्यस्त हो गये है कि कहीं सच शब्द ही सुन लें तो उसे ऐसे देखने लगेंगे कि जैसे कि कोई अनूठी चीज देख रहे हों।
पहले ऐसे ही सत्य या सच नामधारी पत्रिकायें निकलती थीं-जैसे ‘सत्य कहानियां, सत्य घटनायें, सच्ची कहानियां या सच्ची घटनायें। उनमें होता क्या था? अपराधिक या यौन कहानियां! उनको देखने पर तो यही सच लगता था कि दुनियां में अपराध और यौन संपर्क को छोड़कर सभी झूठ है। यही हाल अब अनेक कार्यक्रमों का है। फिर सच तो वह है जो वास्तव में कार्य किया गया हो। अगर कथित सच का सामना धारावाहिक की बात की जाये तो लगेगा कि उसमें सोचा गया है। वैसे इस तरह के कार्यक्रम प्रायोजित है। एक कार्यक्रम में पत्नी के सच पर पति की आंखों में पानी आ जाये तो समझ लीजिये कि वह प्रायोजित आंसू है। अगर सच के आंसू है तो वह कार्यक्रम के आयोजक से कह सकते हैं कि-‘भई, अपना यह कार्यक्रम प्रसारित मत करना हमारी बेइज्जती होगी।’
मगर कोई ऐसा कहेगा नहीं क्योंकि इसके लिये उनको पैसे दिये जाते होंगे।
लोग देख रहे हैं। इनके विज्ञापन दाताओं को बस अपने उत्पाद दिखाने हैं और कार्यक्रम निर्माताओं को अपनी रेटिंग बढ़ानी है। सच शब्द तो केवल आदमी के जज्बातों को भुनाने के लिये है। इसका नाम होना चाहिये सोच का सामना। तब देखिये क्या होता है? सोच का नाम सुनते ही लोग इसे देखना बंद कर देंगे। सोचने के नाम से ही लोग घबड़ाते हैं। उनको तो बिना सोच ही सच के सामने जाना है-सोचने में आदमी को दिमागी तकलीफ होती है और न सोचे तो सच और झूठ में अंतर का पता ही नहीं लगता। यहां यह बता दें कि सोचना कानून के विरुद्ध नहीं है पर करना अपराध है। एक पुरुष यह सोच सकता है कि वह किसी दूसरे की स्त्री से संपर्क करे पर कानून की नजर में यह अपराध है। अतः वहां कोई अपने अपराध की स्वीकृति देने से तो रहा। वैसे यह कहना कठिन है कि वहां सभी लोग सच बोल रहे होंगे पर किसी ने अगर अपने अपराध की कहीं स्वीकृति दी तो उस भी बावेला मच सकता है।
निष्कर्ष यह है कि यह बाजार का एक खेल है और इससे सामाजिक नियमों और संस्कारों का कोई लेना देना नहीं है। अलबत्ता मध्यम वर्ग के बद्धिजीवी-सौभाग्य से जिनको प्रचार माध्यमों में जगह मिल जाती है-इन कार्यक्रमों की आलोचना कर उनको प्रचार दे रहे हैं। हालांकि यह भी सच है कि उच्च और निम्न मध्यम वर्ग के लोगों पर इसका प्रभाव होता है और उसे वही देख पाते हैं जो खामोशी से सामाजिक हलचलों पर पैनी नजर रखते हैं। बहरहाल मुद्दा वहीं रह जाता है कि यह सोच का सामाना है या सच का सामना। सोच का सामना तो कभी भी किया जा सकता है पर उसके बाद का कदम सच का होता है जिसका सामना हर कोई नहीं कर सकता
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Sunday, July 12, 2009

बहस और बाजार-व्यंग्य कविता (bahas aur bazar-hindi vyangya kavita)

सभागार के तले
मंच पर चले
बहसों के दौर
सुबह और शाम।
दिन पर चले पर नतीजा सिफर
छलकते हैं फिर भी रात को जाम।


अक्लमंदों की महफिल सजती है
उनकी दिमागी बोतल से
निकलते हैं लफ्ज
ऊपर लगी है मुद्दों की छाप
बाहर आते ही उड़ जाते बनकर भाप
मशहूर हो जाते बस यूं ही नाम।

बंद कमरे में हुई बहस
बाजार में बिकने आ जाती है
जमाने में छा जाती है
किसी नतीजे पर पहुंचने की उम्मीद है बेकार
नहीं चली बहस आगे
तो जज्बातों के सौदागार हो जायेंगे बेजार
इसलिये मुद्दे बार बार
चमकाये जाते हैं
कभी लफ्ज तो कभी छाप
बदलकर सामने आते हैं
अक्लमंद करते हैं बहस
पीछे बाजार करता है अपना काम।
इसलिये जिस शय को बाजार में बेचना है
उस पर जरूरी है बंद कमरे में
पहले बहस कराने का काम।
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Wednesday, July 08, 2009

बाजार में सजा स्वयंवर-हास्य व्यंग्य (bazar men svyanvar-hindi hasya vyangya)

वैसे तो भारतीय संस्कृति और संस्कारों में लोगों को ढेर सारे दोष दिखाई देते हैं पर फिर भी वह उसमें तमाम कथ्यों और तथ्यों की पुनरावृत्ति करते वही दिखाई देते हैं। भारतीय ग्रंथों में वर्णित हैं स्वयंवर की प्रथा। इसमें लड़की स्वेच्छा से वर का चुनाव करती है। भारतीय समाज में स्त्री को समान स्थान देने का दावा करने वाले इसी प्रथा का उदाहरण देते हैं।
सच बात तो यह है कि प्राचीन भारतीय ग्रंथों में मनुष्य मन को मोह लेने वाले सारे तत्व हैं। इससे आगे यह कहें कि जैसे जिसकी दृष्टि है वैसे ही वह उसे दिखाई देते हैं। हम अपने इन्हीं ग्रंथों को देखें तो उनका यह संदेश साफ है कि जिस दृष्टि से इस दुनियां को देखोगे वैसे ही दिखाई देगी। भारतीय ग्रंथों से आगे अन्य कोई सत्य ढूंढ नहीं सकता। भारत पर हमला करने वालों ने सबसे पहले उन स्थानों को जलाया और नष्ट किया जहां से पूरे देश में ज्ञान पहुंचता था। उन स्थानों पर योगी, योद्धा और युग का निर्माण होता था।
यही हमलावर अपने साथ आधे अधूरे कचड़ा बुद्धि वाल ज्ञानी भी ले आये जिन्होंने चमत्कारों और लोभ के सहारे यहां अपने ज्ञान का प्रचार किया। उन्होंने समाज में भेद स्थापित किये और यहां अपना परचम फहराया।

वह और उनके चेले माया की चमक में उस गहरे ज्ञान को क्या समझते? उन्होंने तो बस हाथ ऊपर उठाकर सर्वशक्तिमान से धन ,सुख और दिल की शांति मांगना ही सिखाया। इसे हम सकाम भक्ति का भी सबसे विकृत रूप कह सकते हैं। जीवन का अंतिम सत्य मौत है, पर उन्होंने अपने को जिंदा दिखाने के लिये मुर्दों को पूजना सिखाया।
सुना है आजकल एक अभिनेत्री का स्वयंवर का प्रत्यक्ष प्रसारण किसी टीवी चैनल पर दिखाया जा रहा है। स्वयंवर भारतीय समाज की एक आकर्षक और मन लुभावनी परंपरा रही है पर यह सभी लड़कियों के लिये नहीं है। स्वयंवर अधिकतर धनी मानी और राजसी युवतियों के भी इस आशा के साथ होते थे क्योंकि उसमें योद्धा, बुद्धिमान और सुयोग्य वर आने की संभावना अधिक होती थी। सामान्य लड़कियों के लिये स्वयंवर कभी आयोजित किये गये हों इसकी जानकारी नहीं है। भारतीय महापुरुषों तथा परंपराओं को सही ढंग से लोग नहीं इसलिये इन स्वयंवरों का इतिहास भी जानना जरूरी है। जिन आधुनिक लड़कियों के मन में उस अभिनेत्री को देखकर स्वयंवर की इच्छा जागे वह जरा यह भी समझ लें कि इन स्वयंवरों के बाद का इतिहास उन महान महिलाओं के लिये तकलीफदेह रहा है जो इन स्वयंवरों की नायिकायें थी।
सबसे पहले श्रीसीता जी के स्वयंवर का इतिहास देख लें। उनके पिता को अपनी असाधारण पुत्री-याद रहे वह राजा जनक को हल जोतते हुए मिली थी-के लिये असाधारण वर की आवश्यकता थी। श्रीराम के रूप में वह मिला भी। श्रीराम जी और श्रीसीता जी की यह जोड़ी पति पत्नी के रूप में आदर्श मानी जाती है पर दोनों ने कितने कष्ट उठाये सभी जानते हैं।
दूसरा स्वयंवर द्रोपदीजी का प्रसिद्ध है। उसके बाद जो महाभारत हुआ तो उससे श्रीगीता के संदेश इस विश्व में स्थापित हुआ। द्रोपदी को जीवन में कितना कष्ट हुआ सभी जानते हैं।
तीसरा स्वयंवर भी हुआ है जिसमें नारद जी ने भगवान विष्णु से श्रीहरि जैसा चेहरा मांग लिया तो उन्होंने वानर जैसा दे दिया। अपमानित होकर लौटे नारद ने भगवान श्री विष्णु को शाप दिया कि कभी न कभी आपको वानर की सहायता लेनी पड़ेगी। श्रीरामावतार के रूप में यह शाप उन्होंने भोगा। जिसमें वानरों की सहायता लेनी पड़ी और उसमें भी श्रीहनुमान तो सेवक होते हुए भी श्रीहरि जैसे ही प्रसिद्ध हुए।
च ौथा स्वयंवर संयोगिता का है जिसमें से श्री प्रथ्वीराज उनका अपहरण कर ले गये। इतिहासकार मानते हैं कि वहां से जो इस देश में आंतरिक संघर्ष प्रारंभ हुआ तो वह गुलामी पर ही खत्म हुआ।
स्वयंवर एक अच्छी परंपरा हो सकती है पर सामान्य लोगों द्वारा इसे कभी अपनाया नहीं गया। वजह साफ है कि राजा या धनी आदमी के लिये तो कोई भी दामाद चुनकर उसको संरक्षण दिया जा सकता है पर सामान्य आदमी को देखदाख कर ही अपनी पुत्री का विवाह करना पड़ता है। विवाह का मतलब होता है गृहस्थी बसाना। विवाह एक दिन का होता है पर गृहस्थी तो पूरे जीवन की है। इसमें आर्थिक और सामाजिक दबावों का सामना करना पड़ता है।
वैसे एक बात समझ में नहीं आती कि आधुनिक समय में जो लोग आजादी से जीना चाहते हैं वह किसलिये विवाह के बंधन में फंसना चाहते हैं। अब तो अपने देश में बिना विवाह साथ रहने की छूट मिल गयी है। यहां याद रखने वाली है कि विवाह एक सामाजिक बंधन हैं। जो समाज आदि को नहीं मानते हुए इश्क के चक्कर में पड़ते हैं फिर इस सामाजिक बंधन के ंमें फिर उसी समाज को मान्यता क्यों देते हैं। कहीं धर्म बदलकर तो कहीं जाति बदलकर विवाह करते हैं। एक तरफ प्यार की आजादी की मांग उधर फिर यह विवाह जैसा सामाजिक बंधन! कभी कभी यह बातें हास्य ही पैदा करती हैं।
टीवी पर आता है कि प्यार पर समाज का हमला। अरे, भई जब आप अपने प्यार को एक समाज की विवाह प्रथा छोड़कर दूसरे की अपनाओगे तो हारने वाले समाज को तो गुस्सा आयेगा। यह स्वयंवर भी इसी तरह की परंपरा है। हिन्दू धर्म के आधार ग्रंथों की रचना के पीछे ऐसे ही स्वयंवर है पर फिर भी लोग इसे अब नहीं अपनाते।
आखिर में जाति और लिंग के आधार पर भेद करने वाली जिन ऋचाओं, श्लोकों और दोहों को हमारा हिन्दू समाज आज भले ही नहीं मानता पर उन्हीं की आड़ में उनकी आलोचना होती है पर जिसे पूरे समाज ने कभी नहीं अपनाया उसी स्वयंवर प्रथा का बाजारीकरण कर दिया। भई, यह बाजार है। आजकल इसमें स्वयंवर सज रहा है क्योंकि उससे बाजार पैसा कमा सकता है।
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Saturday, July 04, 2009

सिंधी भाषा का लिपि विवाद खत्म करना होगा-आलेख

भारतीय भाषाओं में सिंधी भाषा का भी अग्रणी स्थान रहा है पर किसी एक प्रदेश की भाषा न होने के कारण अब लुप्तप्रायः होती जा रही है। सिंधी भाषा बोलने वाले अधिकतर पाकिस्तान और भारत में ही हैं। दोनों ही देशों में अनेक लोगों की मातृभाषा होने के कारण सिंधी अस्तित्व बचाने के लिये जूझ रही है। अगर हम देखें तो भाषा के कारण ही सिंधी समाज एक जाति के रूप में अस्तित्व कायम रख पाया है पर सरकारी और गैरसरकारी समर्थन मिलने के बावजूद इस समाज ने अपनी भाषा को बचाने का अधिक प्रयास नहीं किया। कुछ सिंधी भाषी लेखकों ने अपने स्तर पर सिंधी में लिखने का प्रयास किया पर सामाजिक समर्थन न मिलने से उनका अभियान अधिक नहीं चल पाया।
सच बात तो यह है कि अंग्रेजी ने जिस तरह हिंदी भाषा को नुक्सान पहुंचाया उतना ही सिंधी भाषा को भी पहुंचाया। सिंधी समाज के लोग अपने बच्चों के लिये सिंधी भाषा की उपयोगिता नहीं समझते हालांकि इसकी वजह से उनकी पहचान खत्म होती जा रही है। दरअसल सिंधी समाज इस कारण भी अपने भाषा के प्रति उदासीन होता गया क्योंकि उसके विद्वान हमेशा ही लिपि को लेकर उलझे रहे। जब यह भाषा लगभग समाप्त प्रायः हो रही है तब भी इस पर विवाद बने रहना आश्चर्य की बात है।
वैसे सिंधी समाज पूरी तरह से व्यवसायिक है इसलिये वह उसी भाषा का उपयोग करने के लिये प्रयत्नशील रहा है जो उसके लिये आय का साधन हो। इसके बावजूद इस समाज के कुछ युवकों ने यह प्रयास किया कि सिंधी देवनागरी में लिखकर समाज के लिये कुछ काम किया जाये पर उनको अपने ही समाज के कर्णधारों का समर्थन नहीं मिला। इसके अलावा क्षेत्रवाद ने भी इस भाषा के लेखकों को अधिक प्रोत्साहन नहीं दिया। कुछ क्षेत्रों में सिंधी भाषा अभी भी देवनागरी के साथ अरेबिक लिपि में पढ़ाई जाती है और यह वह हैं जहां सिंधी समाज पूरी तरह से बसा हुआ है। सिंधी समाज के लोग चूंकि व्यवसायी हैं इसलिये उनकी बसाहट उन क्षेत्रों में भी है जहां वह कम हैं और जहां अधिक हैं तो भी अन्य समाज भी संख्या बल में उनसे बराबर हैं। वहां प्रादेशिक भाषाओं के साथ सिंधी समाज के विद्यार्थी अपनी शिक्षा प्राप्त करते हैं। अनेक सिंधी भाषी लेखकों ने हिंदी भाषा में अपना स्थान बना लिया है पर उनके द्वारा अपनी भाषा में लिखने का प्रयास विफल चला जाता है।
इधर अंतर्जाल पर सिंधी भाषा को लेकर कुछ उत्साहजनक संकेत मिले पर उनका सतत प्रवाह बना रहेगा इसमें संदेह है। इस समय अंतर्जाल पर हिंदी लिखने वाले अनेक लेखक सिंधी भाषी हैं और उन्होंने अच्छा मुकाम भी प्राप्त कर लिया है। उनमें से कुछ लेखकों ने सिंधी में लिखने का प्रयास किया है।
इस लेखक की प्राथमिक शिक्षा सिंधी देवनागरी विद्यालय में हुई थी। इसी कारण सिंधी देवनागरी में यहां भी एक ब्लाग बनाया। उसकी ठीकठाक प्रतिक्रिया हुई। मुश्किल लिपि की है पर आजकल उपलब्ध टूलों के कारण लाभ भी हुआ। देवनागरी से अरेबिक टूल से अनुवाद एक जानकार को पढ़ाया तो उससे लगा कि वह ठीक अनुवाद करता है पर अरेबिक से हिंदी में अनुवाद कोई ठीक नहीं है पर फिर भी पढ़ा जा सकता है। उस ब्लाग पर लिखते हुए पाकिस्तान के सिंधी ब्लाग लेखकों से कुछ समय तक संपर्क रहा पर फिर उस पर नहीं लिखा तो वह टूट गया। उस सिंधी भाषी ब्लाग पर अधिक सक्रियता यह लेखक नहीं दिखाता पर उनसे यह तो पता लग ही गया है कि अनेक सिंधी भाषी अंतर्जाल पर बहुत बढ़िया काम कर रहे हैं और उनमें यह भी इच्छा है कि वह हिंदी के साथ सिंधी में भी काम करे पर उनका आपसी सामंजस्य नहीं बन पाता। एक ब्लाग लेखक ने यह प्रयास किया था कि उनका भी कोई फोरम बन जाये पर लिखने वालों की संख्या एक तो कम है फिर उनकी उदासीनता अभी भी बनी हुई है। इस लेखक के एक पाठ पर भारत के ही एक सिंधी पाठक ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि‘सिंधी भाषा को देवानागरी या रोमन लिपि में न लिखें क्योंकि अरेबिक लिपि उसकी जान है।’
इस लेखक ने उसे लिखा था कि‘अब इस तरह के विवाद का लाभ नहीं है। अगर हमें सिंधी भाषा में लिखना और पढ़ना है तो तीनों लिपियों के साथ चलना होगा। भाषा से अधिक कथन की तरफ अपना ध्यान देना होगा।’
यह टिप्पणी उसी क्षेत्र से की गयी थी जहां सिंधी अरेबिक लिपि में पढ़ाई जाती है हालांकि वहां अब छात्रों की संख्या अब बहुत कम हो गयी है और वह टिप्पणीकार कोई पुराने समय का विद्यार्थी रहा होगा।
सिंधियों को अपनी स्थिति पर विचार करना चाहिये। यहां एक सिंधी विद्वान का कथन याद आता है जो अक्सर अपने समाज के लोगों से प्रश्न करते हैं। वह कहते हैं कि ‘हम किस आधार पर यह कहते हैं कि हम सिंधी हैं क्योंकि उसकी तो हमें भाषा ही नहीं आती। देश में सामाजिक व्यवस्था ऐसी है कि समाज पूरी तरह से टूट नहीं सकता। ऐसे में जब आज से पचास वर्ष बाद जब कोई सिंधी परिवार का पिता अपनी बेटी या बेटे का रिश्ता लेकर किसी दूसरे के यहां जायेगा तो क्या कहेगा कि‘आपके और हमारे पूर्वज सिंधी थे इसलिये आपके यहां रिश्ता करने आये हैं। तब वह कौनसा प्रमाण लायेगा कि वह सिंधी है।’
दो भाषाओं का ज्ञान कठिन या अनावश्यक है यह कहना ही निरर्थक है। अनेक सिंधी परिवारों के लेखक हिंदी में लिख रहे हैं तो सिंधी देवानागरी में लिखने का प्रयास करते हैं। ऐसे में उनको समाज से समर्थन न मिलना उनके साथ ही समाज के अन्य लोगों के लिये परेशानी का कारण बन सकता है जब यह समाज अपनी भाषाई पहचान खो बैठेगा जो कि इसका आधार है। इस लेखक का तो यह भी कहना है कि केवल सिंधी ही भाषी ही नहीं बल्कि अन्य भाषी लोग भी अपनी निज भाषायें बचाने का प्रयास करें क्योंकि यही हिंदी की ताकत है कि वह विभिन्न भाषाओं को अपने साथ संजोये रख सकती है। वैसे भी लिपि विवाद अनुवाद टूलों के कारण अर्थहीन होता चला जा रहा है। भले ही अरेबिक लिपि से देवनागरी लिपि में अनुवाद अधिक शुद्ध नहीं है पर पाठों का भाव तो समझ में आ ही जाता है।
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Friday, July 03, 2009

शराबी ईमेल-हास्य व्यंग्य (hasya vyangya)

उस ईमेल में सबसे ऊपर लगे फोटो में शराब की बोतलें सजी थीं। नीचे संदेश में लिखा था कि ‘कृपया इस ईमेल को ध्वस्त न करें। इसे पढ़ें और अपने अन्य मित्रों को भेजें। इस ईमेल को पढ़कर एक आदमी ने इसे ध्वस्त कर दिया तो अगले दिन ही सुबह उसके घर में रखी शराब की बोतल अपने आप ही गिर कर टूट गयी।
एक आदमी ने यह ईमेल पांच लोगों को भेजा तो उसे सुबह ही मुफ्त पांच बोतलों का पार्सल मिला।
एक आदमी ने इसे दस लोगों को भेजा तो उसे उसके मित्र ने एक बढ़िया काकटेल पार्टी दी।
एक अधिकारी ने इसे पंद्रह लोगों को भेजा तो अगले दिन ही उसे प्रमोशन मिल गया।’
यह एक मित्र ने भेजा था और साथ में लिखा था कि इसे मजाक न समझें। हम बहुत गंभीर हो गये। इस बात को लेकर कि हम जैसे व्यक्ति के साथ इस तरह का मजाक करना खतरनाक भी हो सकता था। छहः वर्ष पहले छूटी लत वापस भी आ सकती थी पर लिखने का यह नशा जो बचपन से लगा है उसकी वजह से बचने की संभावना थी पर फ्री में शराब की बोतल का मोह छोड़ना मुश्किल था।
अगले दिन हम एक शराब की दुकान के पास से गुजर रहे थे तो ईमेल की याद आ गयी तो वहीं खड़े हो गये। दरअसल हमें उस फोटो की याद आ गयी। पीछे से एक मित्र ने टोककर कहा-‘चले जाओ, खरीद लो बोतल। डरते किसलिये हो। कोई नहीं देख रहा सिवाय हमारे। हां अगर घर बुलाकर एकाध पैग पिला दो तो हम किसी से नहीं कहेंगे। वैसे तुम कवि हो और इसका सेवन तुम्हारे लिये फायदेमंद है। अच्छी कवितायें लिख लोगे।
हमने कहा-‘क्या इस शराब वाले ने तुम्हें कोई कमीशन दिया है जो प्रचार कर रहे हो? हम तो बस बोतलें देख रहे थे। वैसे ही सजी थीं जैसे कि हमारे ईमेल पर। हमने पांच लोगों को ईमेल भेजा है और सोच रहे थे कि शायद यह शराब वाला हमें मुफ्त में दो चार शराब की बोतलें देगा। सुबह से कोई पार्सल तो मिला नहीं।’
वह मित्र घूरकर हमें देखने लगा और बोला-‘यह क्या कह रहे हो?’
हमने कहा-‘सच कह रहे हैं हमने पांच लोगों को ईमेल किया है। हमें एक ईमेल मिला था जिसमें लिखा था कि यही ईमेल अगर मित्रों को भेजोगे तो कुछ न कुछ मिलेगा। हमने सोचा कि ब्लाग तो हमारे हिट होने से रहे तो हो सकता है कि शराब की एकाध बोतल ही फ्री में मिल जाये।’
उसे हमने पूरी कथा सुनाई तो वह एकदम चीख पड़ा-‘क्या बात है शराब के नाम पर अभी भी तुम बहकने लगते हो। कहते हो कि छोड़ दी है फिर यह कैसा स्वांग रचा है। लगता है कि इंटरनेट ने तुम्हारे दिमाग के सारे बल्ब फ्यूज कर दिये हैं।’
हमने कहा-‘सच कह रहे हैं हमने पांच लोगों को ईमेल भेजा है।’
’’अच्छा-‘’वह घूरकर बोला-‘आज से बीस साल पहले हमने तुम्हें एक सर्वशक्तिमान की एक दरबार के लिये एक पर्चा दिया था कि इसे छपवाकर सौ लोगों को दो तो फायदा होगा तब तुमने कहा था कि यह सब ढकोसला है और आज ईमेल पर शराब का संदेश भेजने की बात आ गयी तो सब भूल गये। क्या जमाना आया गया। आदमी सर्वशक्तिमान के संदेश छपवाता नहीं है पर शराब के ईमेल भेजने को तैयार है।’
तब हमें याद आया कि इस तरह के पर्चे पहले छपते थे कि अमुक जगह सर्वशक्तिमान के अमुक रूप की तस्वीर प्रकट हुई है। उसके बारे में यह पर्चा छपवाकर सौ लोगों को भेजो तो सारी समस्या हल हो जायेगी। दरअसल यह सर्वशक्तिमानों के दरबारों का प्रचार होता था। उसमें यह भी बताया जाता था कि अमुक जगह अमुक तस्वीर मिली तो जिसने प्रचार किया उसको लाभ हुआ जिसने वह पर्चे छपवाने की बजाय फैंक दिया तो उसे हानि हुई। हमने सतर्कता से मित्र को जवाब दिया-‘वह पर्चे छपवाने में पैसे खर्च होते हैं जबकि हमारा इंटरनेट कनेक्शन ब्राडबैंड वाला है इसलिये कोई अलग से पैसा नहीं देना पड़ता। इसलिये प्रयास करने में क्या बुराई है।’
मित्र बोला-‘हां, इससे इंटरनेट के कनेक्शन बने रहेंगे यह क्या कम है? उनकी कमाई नहीं होगी। फिर यह पूरब और पश्चिम का मेल कैसे हो रहा है? कहां अध्यात्म की बातें करते हो और कहां यह शराब की दुकान पर झांक रहे हो। निकल लो। किसी चाहने वाले ने देख लिया तो उसके सामने तुम्हारी पोल खुल जायेगी।’
हम सहम गये। हमारे दिमाग से ईमेल वाली बात निकल ही नहीं रही थी। पांच लोगों को ईमेल किया था पर कहीं से कोई पार्सल आदि नहीं मिला। फिर सोचा कि-‘यार, यह इंटरनेट पर पूरब पश्चिम का मेल कुछ इस तरह ही होगा। प्रचार का तरीका पुराना पर इष्ट तो नया होगा। कहां सर्वशक्तिमान के स्वरूप आदमी को प्रिय थे अब तो यह शराब ही प्रिय है।’

हमने गलत नहीं सोचा। टीवी, कूलर,फ्रिज, और गाड़ियों का अविष्कार इस देश में नहीं हुआ पर उपलब्ध सभी को हैं। हां, उनके उपयोग का तरीका जरूर पश्चिमी देशों से नहीं मिलता। कारें तो एक से एक सुंदर आ रही हैं पर रोड पुरानी और खटारा है। फ्र्रिज है पर लाईट की उठक बैठक उसके साथ लगी हुई है। टीवी आया पर विदेश के लोग उसका आनंद उठाते हैं जबकि हम लोग चिपक जाते हैं। फिर यह सभी चीजें चाहिये पर दहेज के रूप में। मतलब यह कि हम अपने चलने फिरने का ढर्रा नहीं बदल सकते पर इस्तेमाल करने वाली चीजों का बदल देते हैं। यही हाल उस शराब की ईमेल का है। पहले सर्वशक्तिमान की दरबारें कमाई का जरिया होती थी तो अब शराब की दुकानें हो गयी हैं इसलिये प्रचार के लिये उनका ही तो फोटा लगेगा न!
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Wednesday, July 01, 2009

दहेज और भ्रष्टाचार-हास्य कविता

प्रवचन करते समय
गुरुजी ने भक्तों को समझाया।
‘‘भ्रष्टाचार करना होता बहुत बड़ा शाप
दहेज समाज के लिये है एक शाप
इसी कारण देश और समाज
कभी आगे बढ़ न पाया।’‘

फिर गौर किया सामने तो
पूरा पंडाल खाली पाया
उन्होंने पूछा अपने शिष्य से
तो वहां से भी बड़ा दर्दनाक उत्तर आया।

‘महाराज, बोलने के लिये
बस क्या दो ही विषय थे
ध्यान, योग, और भक्ति पर
चाहे कुछ बोल देते
इस तरह लोगों की नाराजी तो न मोल लेते
भ्रष्टाचार का मायने भी जानते हैं आप
अपनी जेब में पैसा जाये तो कमाई
दूसरे करे तो पाप
मिट रहा है समाज पर
दहेज विरोध की बात नहीं करता आत्मसात
कन्या भ्रुण को गर्भ में मिटाकर
करने पर उतारू है आत्मघात
रग रग मेे जो पहुंचे गये रोग
अब बने व्यसन, जिसके नशे में जी रहे लोग
आपने शायद गुरु जी से
शिक्षा सही ढंग से नहीं पायी
‘लोगों को जो पसंद है वही बोलो’
यही नीति उन्होंने हमेशा अपनाई
इसलिये इतनी लोकप्रियता पाई
आपने उत्तराधिकार में जो गद्दी
उनसे पाई
समझो वह गंवाई
इस दहेज और भ्रष्टाचार पर बोलकर
आपने हमें भी संकट में पहुंचाया।’’
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