Monday, October 28, 2013

हिन्दी-क्षणिकायें (two hindi short poem's)




आओ विकास के मसले पर बहस करे,
गड्ढों में सड़क है
अस्पतालों में दवायें नहीं तो क्या
चिकित्सक तो हैं,
बदबूदार है तो क्या
पानी मिलता तो है,
सच्चाई हमेशा कड़वी रहेगी
आओ कुछ देर के लिये
अपनी जुबान से
अपने दिमाग में कुछ सपने भरें।
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अंधे हाथी को पकड़कर कर
गलतबयानी करते
तो समझ में आता है,
मगर अब तो आंखें वाले भी
अपने अपने नजरिये से देखने लगे हैं,
दिमाग से नहीं रहा जुबां का रिश्ता
आंखों में तारों की जगह पत्थर लगे है।
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लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा "भारतदीप"
ग्वालियर, मध्यप्रदेश 
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior, Madhya pradesh
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
 
यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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Wednesday, October 16, 2013

ज्ञान बघारना एक सरल विषय-हिन्दी व्यंग्य (gyan bagharna ek saral vishay-hindi vyangya lekh,hindi satire article)



                        परोपदेशे कुशल बहुतेरे’, यह उक्ति बहुत प्रसिद्धि है।  इस उक्ति से हमारे देश के जनसामान्य का इसमें पूरा चरित्र समझा जा सकता है। श्रीमद्भागवत गीता हमारा विश्व प्रसिद्ध ज्ञान और विज्ञान का  ग्रंथ है। उसके अनेक अंश हमारे यहां सुनाकर लोग यह प्रमाणित करते हैं कि वह वाकई बहुत बड़े विद्वान है।  इसके संदेशों को धारण कर उसके आधार पर चलने और समाज को देखने वाले नगण्य ही हैं।  इतना जरूरी है कि लोग इसके आधार पर अपना ज्ञान बघारते हुए तनिक भी नहीं चूकते।
                        उस दिन एक सज्जन ने दीपक बापू से  कहा-‘‘देखिये, सभी जानते हैं कि काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार में लिप्तता अत्यंत खतरनाक होती है पर कोई इसे समझता नहीं है।’’
                        दीपक बापू ने उन पर प्रश्नवाचक दृष्टि डालते हुए कहा-‘‘आप समझते हैं?समझते हैं तो क्या उसे धारण करते हैं?’’
                        वह सज्जन बोले-‘‘नहीं! यह मुश्किल लगता है।
                        दीपक बापू ने कहा-‘‘फिर कहने से क्या फायदा? दूसरे  ज्ञान धारण नहीं करते, पर यह भी तो समझना चाहिये कि हम भी नहीं करते।
                        सज्जन बोले-‘‘बात कहने में तो आती है न!
                        दीपक बापू ने कहा-‘‘यह कहने वाली नहीं वरन् व्यर्थ रुदन करने वाली बात है। इससे अच्छा तो यह है कि आप और हम मिलकर महंगाई, भ्रष्टाचार और बीमारियों जैसे ज्वलंत विषयों पर अपनी भड़ास निकालें।’’
                        सज्जन अपना सिर खुजलाने लगे-‘‘आपकी बात समझा नहीं। मेरा विचार था कि अपने दिल का बोझ हल्का करूं और आप तो सुबह ही दर्दनाक विषयों पर चर्चा करने की प्रेरणा देने लगे।’’
                        दीपक बापू ने कहा-‘‘यह विषय कम दर्दनाक है बनिस्पत उस ज्ञान चर्चा के जिस पर हम चलते नहीं। उस पर बात करने से हमें खीज होती है।’’
                        सज्जन ने कहा-‘‘याद आया, आप तो व्यंग्यकार हैं! अच्छा व्यंग्य किया। दिल खुश कर दिया आपने।
                        आत्मप्रशंसा सभी को अच्छी लगती है पर अति सर्वदा वर्जियते! इसलिये दीपक बापू उस वार्तालाप से बाहर होकर अपने कदम दूसरी तरफ बढ़ाते हुए चल दिये।
                        भारत में आधुनिक लोकतंत्र, शिक्षा तथा जीवन शैली ने सभी को मुखर कर दिया है। एक फिल्म का गाने के कुछ शब्द याद आते हैं गाना आये या नहीं पर गाना चाहिये  हमारे यहां राजनीति शास्त्र का ज्ञान न हो तो भी राजनीति की जा सकती है। पैसा, पद और पराक्रम हो तो कोई भी राजकीय पद प्राप्त किया जा सकता है पर कर्तव्य निर्वाह करने कितने लोग सक्षम दिखते हैं वह भी देखने वाली बात है।  ज्ञान पढ़ा हो पर उसे धारण किये ही लोगों की भीड़ जुटाकर अपने आपको संत साबित किया जा सकता है।  आजकल तो कर्ज व्यवस्था ऐसी हो गयी है कि अपने पास धन कम हो तो भी क्या अमीरों जैसी सुविधायें कर्ज लेकर भी प्राप्त की जा सकती हैं।  अनेक भवन व्यवसायी फोन कर लोगों को बताते हैं कि वह कर्ज लेकर मकान खरीद सकते हैं। जिन लोगों ने कर्ज लेकर सामान बनाया है वह दूसरों को कर्ज लेकर घी पियो के आधार अपना ज्ञान बांटते हैं। प्रचार पुरुषों की दृष्टि में समाज विकास कर रहा है पर ज्ञान साधक आर्थिक, सामाजिक, वैचारिक, बौद्धिक तथा स्वास्थ्य की दृष्टि से अस्थिर लोगों के समूह को चूहों की तरह इधर से उधर भागते देख रहे हैं।
                        आजकल चिकित्सा पर ज्ञान बघारने के लिये उसका शास्त्र पढ़ने की बजाय अपने अंदर एक बीमारी पालना भर जरूरी  है।  एक चिकित्सक के पास चक्कर लगाते रहो। ठीक हो या न हो पर उसके इलाज से चाहे जहां अपना ज्ञान बघारने लगो। हमारे यहां पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर ज्ञान बघारने वालों की बहुत बड़ी तादाद है।  जिसने एक बार शादी कर ली वह दूसरों को बताता है कि इसमें कौन कौनसी परंपरायें हैं जिनके निर्वाह से धार्मिक संस्कार पूरा होता है।  कौनसी जगह विवाह कार्यक्रम के लिये  ठीक है। कौनसा हलवाई सबसे अच्छा और स्वादिष्ट वैवाहिक भोजन बनाता है।
                        बात निकलती है तो कहां से कहां पहुंच जाती है।  हम बात कर रहे थे ज्ञान बघारने की।  जब तक देह है उसके साथ वह सब बुराईयां जुड़ी रहेंगी जिनसे बचने की बात की जाती है। मुख्य मुद्दा आत्मनियंत्रण से है जो कि स्वयं को ही अपनानी होती है।  दूसरा कैसा है, इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि हम कैसे हैं? होता इसका उल्टा है।  लोग दूसरों के दोष देखते हैं। उससे भी ज्यादा कष्ट वह अपने दोष छिपाने के लिये उठाते हैं।  उससे भी ज्यादा बुरा यह कि लोग अपने आपसे अपने दोष छिपाते हैं। आत्ममंथन की प्रक्रिया से बचना सभी को सुविधाजनक लगता है।
                        दूसरे की लकीर को छोटा दिखाने के लिये अपनी बड़ी लकीर खींचने की बजाय लोग अपनी  थूक से दूसरे की लकीर मिटाने लगते हैं। अपने अंदर कोई सद्गुण पैदा करने की बजाय दूसरे की निंदा कर अपनी झेंप मिटाते हैं।  आत्मप्रवंचना में समय बरबाद करते हैं।  कोई अच्छा काम करना लोगों के लिये संभव नहीं होता तो वह ज्ञान बघारते हैं।  ऐसा ज्ञान जो हर कोई जानता है। उस पर चलता कौन है यह अलग से विचार का विषय है।

लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा "भारतदीप"
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Tuesday, October 08, 2013

जश्न मनाने के खतरे-हिन्दी व्यंग्य कविता(jashna manane ke khatre-hindi vyangya kavita)



दौलत का जश्न जो सरेआम मनायेंगे
उनके लुंटने के खतरे कभी कम नहीं होंगे,
अपनी ताकत कमजोर पर जो  हमेशा दिखायेंगे,
उनकी हार  के खतरे कभी कम नहीं होंगे,
जिस्म की नुमाइश से जो ज़माने के जज़्बात भड़कायेंगे
उन पर घाव होने के खतरे कभी कम नहीं होंगे।
कहें दीपक बापू
साहुकारों की इज्जत सामान दिखाने से नहीं
दरियादिली  से बढ़ती है,
बाहुबल से बेबसों को बचाने वालों पर
दुनियां मरती है,
नंगा जिस्म कभी सुहाता नहीं
कपड़ो से ही उसकी शान बढ़ती है,
अपनी अपनी सोच है अपना अपना नजरिया
बचते बचाते चलो,
हादसे बहुत होने लगे हैं
किसी के सहलाने से अपने घावों के दर्द कम नहीं होंगे
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लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा "भारतदीप"
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