उसकी मौत पर भारतीय प्रचार माध्यम शोकाकुल हैं। हैरानी होती है यह देखकर कि मौत पर संवेदनायें प्रकट करना भी अब व्यवसाय हो गया है-पहले तो दिखावा भर था। जीवन का अंतिम सत्य मृत्यु है। हमारा अध्यात्मिक दर्शन कहता है कि देह का विनाश होता है पर आत्मा अमर है-यही आत्मा हम हैं। अतः जन्म पर प्रसन्नता और मरण पर शोक अज्ञानता का परिचायक है।
वह एक गायक कलाकार था और पश्चिम में उसने मनोरंजन के अलावा कोई अन्य कार्य नहीं किया। उसने पैसे कमाये और जीवन को भरपूर ढंग से जिया। भौतिक जीवन की जो सर्वोच्च सीमा होती है उसे उसने छू लिया। एक आम काले परिवार मे जन्मे उस कलाकार ने दौलत और शौहरत के उस शिखर पर जाकर झंडा फहराया जिसकी कल्पना कर लाखों युवक अपना जीवन बरबाद कर देते हैं। पश्चिम के व्यवसायिक प्रचार माध्यमों द्वारा व्यवसायिक संवेदनायें देना कोई बड़ी बात नहीं है पर भारत में एक तरह से पाठकों और दर्शकों के साथ जोर जबरदस्ती लगती है।
आज एक वाचनलय में अखबार पढ़ते हुए एक आदमी ने अखबार दिखाते हुए पूछा-‘यह कौन था।’
हमने कहा-‘गायक कलाकार था।’
उसने पूछा-‘भारत का था।’
हमने कहा-‘नहीं।’
उसने कहा-‘फिर यहां पर इतनी तवज्जो क्यों दे रहे हैं? क्या कोई दूसरी खबर नहीं है।’
हमने कहा-पता नहीं।
उसने कहा-‘टीवी पर भी यही आ रहा था। वह तो अंग्रेजी में गाता था। कितनों को समझ में आती है?’
उसके वार्तालाप से दूसरे लोग हमारी तरफ देखने लगे। हमने जगह बदल दी।
दरअसल अंग्रेजी आपके समझ में नहीं आये तो भी स्वीकार करने में कठिनाई होती है। हम तो शान से कहते हैं कि अंग्रेजी हमें नहीं आती इसलिये ही हिंदी ने हमारी खोपड़ी में पूरी जगह घेर ली है। कहना चाहिये कि अंग्रेजी को जगह बनाने का अवसर नहीं मिला इसलिये ही हिंदी ने यह सुअवसर प्राप्त किया। एक बार हमने प्रयास किया था कि अंग्रेजी का ज्ञान प्राप्त करें-इसके लिये एक शिक्षक के यहां केवल अंग्रेजी पढ़ने भी जाते थे-पर हिंदी ने जगह देने से इंकार कर दिया।
एक बार वह गायक कलाकर भारत भी आया था। स्टेडियम पर भारी भीड़ थी। लोग उसे सुनने आये थे या देखने कहा नहीं जा सकता-संभव है वह एक दूसरे को दिखाने आये हों कि उनको अंग्रेजी के गानों से कितना रस मिलता है। अंग्र्रेज चले गये पर अंग्रेजी अब भी गुलामी करा रही है। हालत यह है कि हिंदी प्रचार माध्यमों, फिल्मों और अन्य स्त्रोंतो से धन कमाने वाले अपने को अंग्रेजी का ज्ञानी साबित करते हैं। कई तो ऐसे हैं जिन्हें हिंदी ही नहीं आती बल्कि चेहरा उनका और सुर किसी अन्य का होता है।
हिंदी और अंग्रेजी का समान ज्ञान रखने वाले एक मित्र से हमने पूछा था कि-‘तुम अंग्रेजी में पढ़ते के साथ ही कार्यक्रम भी देखते हो। क्या बता सकते हो कि अंग्रेजी वापरने वाले कितने लोग उसका सही उपयोग करते हैं।’
उसने कहा कि चूंकि भाव समझ में आता है इसलिये हम ध्यान नहीं देते पर अंग्रेजी के हिसाब से गलतियां ढूंढने बैठोगे तो अधिकतर लोग गलतियां करते हैं।
शायद भारतीय प्रचार माध्यम नहीं चाहते कि वह विश्व की मुख्य धारा से कट जायें इसलिये ही वह विदेशी सरोकारों की खबरें जबरन प्रस्तुत करते हैं जिनके प्रति उनके 98 प्रतिशत उपभोक्ता उदासीनता का भाव अपनाये रहते हैं।
हमें उस गायक कलाकर के गायन, सुर और संगीत की समझ में नहीं थी। हमारी क्या इस देश के वह लोग ही नहीं जानते जो उसके प्रशंसक होने का दावा करत हैं कि उसने गाया क्या था? बस वह गाता और यहां लोग लहराते। 110 करोड़ के इसे देश में ऐसे बहुत कम लोग होंगे जो उसके दो चार गीत याद रखते होंगे। हमारे देश के गायक कलाकारों-किशाोर कुमार, महेंद्र कपूर, मुकेश, मोहम्मद रफी और मन्ना डे- ने अपने सुर से अमरत्व प्राप्त कर लिया। उन्होंने देह त्यागी पर वह आज भी लोगों के हृदय में कानों के माध्यम से जिंदा हैं। उनके गाये अनेक गााने बरबस ही मूंह में आते हैं।
उस पश्चिमी गायक कलाकार का जीवन वृतांत हमें बहुत भाता है और सच बात तो यह है कि वह अपने आप में एक जीवंत फिल्म था। उसकी मृत्यु पर हमें भी अफसोस है पर उसे व्यक्त करते हुए ऐसा लगता है जैसे कि ‘बेगानी मौत पर अब्दुल्ला गमगीन’। यह वाक्य हम वाचनालय में उस चर्चा करने के बाद उस आदमी से दूर जाते समय कहना चाहते थे पर वहां लोगों की नाराजगी देखकर खामोश रहे। किसी के साथ या हादसे होेने पर अफसोस होता है। ऐसे अवसर पर मृतक या पीड़ित के प्रतिकूल बात कहना हमारी संस्कृति के विरुद्ध है पर उनके और परिवार के साथ सहानुभूति या संवेदना जताने वालों की भाव भंगिमा और इरादे तो चर्चा का विषय बनते ही हैं। यही कारण है कि उस गायक कलाकार की मृत्यु से हमारे मन में कुछ देर अफसोस हुआ पर बाद में जिस तरह देश में उसकी प्रतिक्रिया इस तरह व्यक्त की गयी जैसे कि उसके साथ वाकई उनकी हमदर्दी है-इस दिखावे पर वाचनालय में उस आदमी से हुई बातचीत ने हमें अपने हिसाब से इसपर सोचने को मजबूर कर दिया।
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