Monday, December 29, 2008

अपना लेखक घर पर ही टांगकर सम्मलेन में जायें-व्यंग्य

अक्सर कुछ लेखक जब कहीं बड़े लेखकों की साहित्य से संबंधित ऐसी बात सुनते हैं जो उनको अरुचिकर लगे तो उस पर अपनी कड़ी प्रतिक्रिया कहीं अखबार में पत्र संपादक में लिखते हैं-उनको अखबार अन्य कहीं जगह दे भी नहीं सकते क्योंकि बड़े साहित्यकारों के लिये सभी जगह सुरक्षित है। आजकल अंतर्जाल पर भी ऐसी ही प्रतिक्रियायें पढ़ने को मिल रही हैं।

हिंदी में कुछ ऐसे लेखक हैं जो मशहूर नहीं है पर साहित्य में रुचि होने के कारण लिखते भी हैं और अवसर मिल जाये तो ऐसे सम्मेलनों मे जाते हें जहां साहित्य या उससे जुड़ी किसी विद्या पर चर्चा होती है । कहा जाये तो ऐसे सम्मेलनों में अंशकालिक लेखक आम श्रोता और वक्ता के रूप में जाते हैं। वहां कुछ कथित बड़े साहित्यकार आते हैं जो प्रसिद्धि के शिखर पर होने के कारण वहां वह भाषण वगैरह करते हैं। हिंदी साहित्य में दो तरह के लेखक हैं एक तो वह जो केवल पूर्णकालिक लेखक हैं उन्हें बड़ा साहित्यकार इसलिये माना जाता है कि वह केवल लिखते हैं और उनके संबंध इस तरह बन जाते हैं कि उनको पुरस्कार भी मिलते हें। अंशकालिक लेखक वह हैं जो अपनी रोजी रोटी अन्य काम कर चलाते हैं और लिखना उनके के लिये एक स्वांत सुखाय विधा है। तय बात है साहित्येत्तर सक्रियता न होने के कारण उनको इनाम या सम्मान नहीं मिलता इसलिये वह छोटे साहित्यकार कहलाते हैं। इन अंशकालिक लेखकों की बड़े साहित्यकारों की नजर में कोई अहमियत नहीं होती।

बहरहाल अंशकालिक साहित्यकार होने के बावजूद इस लेखक ने देखा है कि अनेक कथित बड़े साहित्यकार अपनी रचनाओं की वजह से कम वक्तव्यों की वजह से अधिक जाने जाते हैं। दरअसल ऐसे बड़े साहित्यकारों को यह अहंकार है कि वह समाज का मार्गदर्शन कर रहे हैं पर अगर समाज की वर्र्तमान हालत देखें तो यह आसानी से समझा जा सकता है कि इन साहित्यकारों ने अपनी सारहीन और काल्पनिक रचनाओं के अलावा कुछ नहीं दिया। ऐसे अनेक कथित बड़े साहित्यकार हैं जिनका नाम आम आदमी नहीं जानता। उनके चेले चपाटे गाहे बगाहे उनकी प्रशंसा में गुणगान अवश्य करते हैं पर हिंदी भाषा का पाठक वर्ग उनको नहीं जानता। आम पाठक की बात ही क्या अनेक लेखक तक उनको नहीं पढ़ पाये। आखिर ऐसा क्यों हैं कि हिंदी में मूर्धन्य साहित्यकार हैं पर हिंदी भाषी लोगों की जुबान पर नहीं चढ़ा।

थोड़ा विचार करें तों स्वतंत्रता के बाद इस देश में अव्यवस्थित विकास के साथ हिंदी का प्रचार बढ़ा। एक प्रगतिशील विचाराधारा के लोगों ने सभी जगह अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया। उसके लेखक पश्चिमी विचाराधाराओं से प्रभावित हो। यहां हम अगर देखें तो राष्ट्रवादी और प्रगतिशील विचाराधारा दोनों ही पश्चिम से आयातित है। भारत में व्यक्ति,परिवार, समाज और राष्ट्र के ं क्रम चलता है जबकि पश्चिम में इसके विपरीत है। प्रगतिशील तो इससे भी आगे हैं वह सभी को टुकड़ों में बांटकर चलते हैं। भारतीय विचार कहता है कि किसी एक व्यक्ति का कल्याण करो तो वह उसका लाभ अपने परिवार को भी देता है। इस तरह परिवार, परिवार से समाज और समाज राष्ट्र का कल्याण होता है। पश्चिमी विचार धारा कहती है कि राष्ट्र का कल्याण करो तो व्यक्ति का कल्याण होगा। प्रगतिशील विचार धारा हर जगह व्यक्ति,परिवार,समाज, और राष्ट्र में भेद करती हुई चलती है। इसी प्रगतिशील विचारधारा ने एकछत्र राज्य किया। दरअसल इसके लेखक पश्चिम के लेखकों और दार्शनिकों के विचारों को यहां प्रस्तुत करते और उसे आधुनिक कहकर बताते और अपनी रचनाये करते गये। उनकी रचनाओं में पात्र या क्षेत्र भारत के हैं पर उस पर उनकी लेखकीय दृष्टि पश्चिमी ढंग की है। बांटकर खाओ का नारा लगता है तो पहले व्यक्ति ओर शय दोनों को ही अलग कर देखना पड़ता है। बांटने के लिये काटना पड़ता है और इस तरह शुरु हो जाता है नकारात्मक विचाराधारा।

शिक्षा,कला,फिल्म,पत्रकारिता तथा साहित्य में इस विचाराधारा के लोगों का वर्चस्व रहा। रचनाऐं खूब हुईं पर भारतीय पुट नदारद रहा। लेखक प्रसिद्ध होकर इनाम और सम्मान प्राप्त करते गये पर पाठक का प्रेम उनको कभी नहंीं मिला। इनका शिक्षा जगत पर प्रभाव इतना रहा कि राष्ट्रवादी विचारा धारा के लेखक भी उसमें बहते गये। अब राष्ट्रवादी लेखक भी प्रगतिशीलों से अलग होने का दावा करते हैं पर कार्यशैली के बारे में वह कोई उनसे अलग नहीं है। दोनों की नारों और वाद की लय में चलते हैं पर समाज की वास्तविकताओं को दोनों ने नजरअंदाज किया।

जब कुछ अंशकालिक लेखक इन बड़ लेखकों की बात सुनकर दुःखी होते हैं तो उनके पास कोई चारा नहीं होता कि तत्काल इसका प्रतिवाद करें। वह अखबारों में पाठकों के पत्र पर अपना विरोध करते हैं। आजकल अंंतर्जाल पर ब्लाग लिखने वाले भी अपना दुःख व्यक्त करने लगे हैं। दरअसल उन्हें यह भ्रम हो जाता है कि इतने बड़े साहित्यकार कैसी बेतुकी बातें कर रहे हैं पर बड़े यानि क्या? सबसे ज्यादा छपते हैं तो यहां अगर संबंध हों तो कोई भी छप सकता है। वैसे भी आजकल साहित्यक पत्र पत्रिकाओंं में जो लोग छप रहे हैं वह प्रसिद्ध लोग हैं। आम आदमी के लिये तो लेखन एक विलासिता बन गयी है और यह सब इ्रन्हीं प्रगतिशील लोगों द्वारा बनायी गयी वैचारिक व्यवस्था का परिणाम है।

यह लेखक इतने बड़े हैं और क्रांति करने वाली रचनायें करते हैं तो समाज इतना कायर कैसे हो गया? जवाब है कि फिल्मों ने कायर बनाया। एक हीरो सारे खलनायकों का नाश करता है उसे कहीं आम आदमी की भीड़ लगाते हुए देखा नहीं जाता। जनता की एकता का सपना देखने वाले किसी प्रगतिशील ने इसका कभी विरोधी नहीं किया जबकि वह जानते थे कि समाज कायरता की तरफ जा रहा हैं। ऐसे कई दृश्य फिल्मों में दिखाये गये जिसमे ईमानदारी पुलिस कर्मी के परिवार का खलनायक ने बर्बाद किया। इन फिल्मों से पहले कभी ऐसा नहीं हुआ पर आदमी डरता चला गया। कई फिल्मों में गवाह को डराते हुए दिखाया गया। ऐसे अनेक दृश्य हैं जिन्हें देखते हुए अन्याय के खिलाफ लड़ने पर उसका दुष्परिणाम देखकर किसी के अंदर साहस नहीं हो सकता। ऐसे में इन बड़े लेखकों ने आंखें मूंद रखीं। एक और दिलचस्प बात यह है कि विदेश से पुरस्कार प्राप्त लोगों को सिर पर उठाया गया। इसके बारे में विख्यात साहित्यकार नरेंद्र कोहली जी का कहना कि वह एक साजिश के तरह भारत विरोधियों को दिये जाते हैं। हां, इस देश में कायरता के बीज बोने वालों को ही प्रोत्साहित किया गया ताकि उनके झंडे तले ही भीड़ आये कहीं स्वतंत्र रूप से कार्यवाही न करे।

इन कथित बड़े लेखकों ने रहीम और कबीर का मजाक उड़ाया। जानते हैं क्यों? उन जैसा कोई सच लिख नहीं सकता। इन्होंने पूज्यनीय धार्मिक पात्रों को मिथक बताकर प्रचार किया। जानते हैं क्यों? ताकि लोग उनको भूल जायें और उनके द्वारा सुझाये गये नये भगवानों को पूजें। उनके अधिकतर पात्र विदेशों में राज्य कर रहे नेता ही रहे हैं? उनका बयान इस तरह करते हैं जैसे कि उनमें कोई दोष नहीं था। उनकी जनता उनसे बहुत खुश रही थी। भारत में पूज्यनीय धार्मिक पात्रों के दोष गिनाते हैं पर उनके विदेशी पात्रों के दोष कौन देखने बाहर जाये?

पहली बात तो यह है कि अंशकालिक लेखकों को यह भ्रम नहीं पालना चाहिये कि वह किसी बड़े लेखक को सुनने जा रहे हैं। ऐसे सम्मेलनों में जाना चाहिये क्योंकि व्यंग्य लिखने के लिये वहां अच्छी सामग्री मिल जाती है। लेखक कोई बड़ा या छोटा नहीं होता। उसकी रचना कितनी प्रभावी है यह महत्वपूर्ण है और यकीनन इस समय देश में उंगलियों पर गिनने लायक ही ऐसे कुछ लेखक हैं जिनका वाकई हिंदी के आम पाठक पर प्रभाव है पर उनको कोई बड़े इनाम नहीं मिले। इसलिए ऐसे सम्मेलनों में बड़े आराम से जायें पर अपना लेखक घर पर ही टांग जायें तो कोई अफसोस नहीं होगा।
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Friday, December 26, 2008

दुःख की अनुभूति-हिंदी शायरी

ऊंचा मकान है
जिसके चारों और फैली हरियाली
अंदर कमरें में महंगे सोफे पर वह शख्स
सामने टीवी पर चलते दृश्य
हाथों में रिमोट से
बदलता है वह परिदृश्य
दिमाग में छाये तनाव के बादल
भौतिकता के शिखर पर बैठकर
बेचैनी उसका पीछा नहीं छोड़ती

आखिर दौलत,शौहरत और बड़ा ओहदा
सुख का प्रतीक माने जाते
पर फिर भी दुःख की अनुभूति
यह सब कुछ मिल जाने पर
आदमी का पीछा क्यों नहीं छोड़ती

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Tuesday, December 23, 2008

दिखावे के रिश्ते में वफ़ा का रस-हिन्दी शायरी

ऊंचे सिंहासन पर
बैठे इतना न इतराओ
अपने पास लगी भीड़ को
अपना भक्त न बताओ
जब गिरोगे वहाँ से
सब पास खड़े लोग, दूर हो जायेंगे
यह पूज रहे हैं उस सिंहासन को
जिस पर तुम बैठे हो
दिखा रहे हैं जैसे तुम ही भगवान् हो
पर तुम्हारे बाद भी दूसरे लोग
इस आसन पर बैठने आयेंगे
यही भक्त
तुम्हारा नाम भूलकर
उनको पूजने लग जायेंगे
लोग खेलते हैं अपनी भावनाओं से
तुम मत बहलना
खेलती हैं माया
लोग ख़ुद खेलने का वहम पाल लेते हैं
दिखावे के रिश्ते में वफ़ा का रस भर देते हैं
जुबान पर कुछ और है और दिल में कुछ और
इस जहाँ में झूठ ही बनता है सिरमौर
जिन्दगी का सत्य समझ जाओ
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अपनी जेब में पैसा हो तो
अनजान भी जोड़ने लग जाते हैं रिश्ते
अगर नहीं हो अपने पास कौडी
तो करीब के भी लोग भूल जाते हैं
वफ़ा बिकती है बाज़ार में
सस्ती या महंगी हो
उसके रस और रंग भी अलग अलग दिखते

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Saturday, December 20, 2008

बदलाव लाने वाला यह कौन आया-हास्य कविता

एक शिक्षक ने बच्चों को पढाते हुए
नैतिक आचरण की शिक्षा दी और बताया
"अपने काम के लिए वेतन के अलावा
किसी से पैसे लेना ही भ्रष्टाचार है
चोरी से बड़ा अपराध है
जो करे देश का गद्दार है
इसलिए हमेशा ईमानदारी से काम करना
खतरे की तलवार हमेशा देश पर टंगी रहेगी वरना
ऐसा ही विद्वानों ने भी बताया''

दूसरे दिन ही अनेक छात्रों के अभिभावक स्कूल
में पहुंचकर प्राचार्य से लड़ने लगे और बोले
''यह कैसा शिक्षक रखा है
जो दे रहा है ऐसी गंदी शिक्षा
क्या हमारे बच्चों से मंगवायेगा भिक्षा
उपरी कमाई को कहता है भ्रष्टाचार
जिन्दगी की असलियत का नहीं करता विचार
वेतन से भला कभी घर चलते हैं
यह बच्चे क्या ऐसे पलते हैं
चोरी ही सबसे बड़ा अपराध है
बरसों से किताबे में यही पढाया
उसमें बदलाव लाने वाला यह कौन आया
हमने कितने संजोये हैं
बच्चों के भविष्य को लेकर सपने
यह उनको बिखेर देगा
क्या हमने इसलिए अपने बच्चों को
स्कूल में भिजवाया"

प्राचार्य ने उनसे माफी मांगी और
उस शिक्षक को अपने स्कूल से हटाया

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Thursday, December 18, 2008

इस तरह अपमान करना कोई कठिन काम नहीं था-आलेख

अमेरिका के राष्ट्रपति पर इराक के एक पत्रकार द्वारा जूता फैंके जाने की घटना को लेकर कुछ लोग जिस तरह उसकी प्रशंसा कर रहे हैं वह हास्यास्पद है। सबसे अजीब बात यह है कि अनेक देशों के पत्रकार उसका समर्थन कर रहे हैं। वह यह भूल रहे हैं कि उसने अपने ही देश के लोगो को धोखा दिया है। वह एक पत्रकार के रूप में उस जगह पर गया था किसी आंदोलनकारी के रूप में नहीं। इतना ही नहीं वहां इराक के प्रधानमंत्री भी उपस्थित थे और वह पत्रकार किसी स्वतंत्रता आंदोलन का प्रवर्तक नहीं था। अगर वह पत्रकार नहीं होता तो शायद इराक के सुरक्षाकर्मी ही उसे अंदर नहीं जाने देते जो कि उसके देश के ही थे।
आज के सभ्य युग में प्रचार माध्यमों में अपना नाम पाने के लिये उससे जुड़+े लोगों को सभी जगह महत्व दिया जाता है और इस पर कोई विवाद नहीं है। टीवी चैनलों के पत्रकार हों या अखबारों के उन जगहों पर सम्मान से बुलाये जाते हैं जहां कहीं विशिष्ट अतिथि इस उद्देश्य से एकत्रित होते हैं कि उनका संदेश आम आदमी तक पहुंचे। कहीं कोई विशेष घटना होती है तो वहां पत्रकार सूचना मिलने पर स्वयं ही पहुंचते हैं। कहीं आपात स्थिति होती है तो उनको रोकने का प्रयास होता है पर वैसा नहीं जैसे कि आदमी के साथ होता है। पत्रकार लोग भी अपने दायित्व का पालन करते हैं और विशिष्ट और आम लोगों के बीच एक सेतु की तरह खड़ होते हैंं। ऐसे में पत्रकारों का दायित्व बृहद है पर अधिकार सीमित होते हैं। सबसे बडी बात यह है कि उनको अपने व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों से परे होना होता है। अगर वह ऐसा नहीं कर पाते तो भी वह दिखावा तो कर ही सकते है। अमेरिका के राष्ट्रपति का विरोध करने के उस पत्रकार के पास अनेक साधन थे। उसका खुद का टीवी चैनल जिससे वह स्वयं जुड़ा है और अनेक अखबार भी इसके लिये मौजूद हैं।

ऐसा लगता है कि अभी विश्व के अनेक देशों के लोगों को सभ्यता का बोध नहीं है भले ही अर्थ के प्रचुर मात्रा में होने के कारण उनको आधुनिक साधन उपलब्ध हो गये हों। जब इराक मेंे तानाशाही थी तब क्या वह पत्रकार ऐसा कर सकता था और करने पर क्या जिंदा रह सकता था? कतई नहीं! इसी इराक में तानाशाही के पतन पर जश्न मनाये गये और तानाशाह के पुतलों पर जूते मारे गयेै। यह जार्ज बुश ही थे जिन्होंने यह कारनामा किया। जहां तक वहां पर अमेरिका परस्त सरकार होने का सवाल है तो अनेक रक्षा विद्वान मानते हैं कि अभी भी वहां अमेरिकी हस्तक्षेप की जरूरत है। अगर अमेरिका वहां से हट जाये तो वहां सभी गुट आपस मेंे लड़ने लगेंगे और शायद इराक के टुकड़े टुकड़े हो जाये। अगर उनके पास तेल संपदा न होती तो शायद अमेरिका वहां से कभी का हट जाता और इराक में आये दिन जंग के समाचार आते।
अमेरिका के राष्ट्रपति जार्जबुश कुछ दिन बाद अपने पद से हटने वाले हैं और इस घटना का तात्कालिक प्रचार की दृष्टि से एतिहासिक महत्व अवश्य दिखाई देता है पर भविष्य में लोग इसे भुला देंगे। इतिहास में जाने कितनी घटनायें हैं जो अब याद नहीं की जाती। वह एक ऐसा कूड़ेदान है जिसमें से खुशबू तो कभी आती ही नहीं इसलिये लोग उसमें कम ही दिलचस्पी लेते हैं और जो पढ़ते है उनके पास बहुत कुछ होता है उसके लिये। घटना वही एतिहासिक होती है जो किसी राष्ट्र, समाज, व्यक्ति या साहित्य में परिवर्तन लाती है। इस घटना से कोई परिवर्तन आयेगा यह सोचना ही मूर्खता है। कम से कम उन बुद्धिजीवियों को यह बात तो समझ ही लेना चाहिये जो इस पर ऐसे उछल रहे हें जैसे कि यहां से इस विश्व की कोई नयी शुरुआत होने वाली है।

चाहे कोई भी लाख कहे एक पत्रकार का इस तरह जूता फैंकना उचित नहींं कहा जा सकता जब वह वाकई पत्रकार हो। अगर कोई आंदोलनकारी या असंतुष्ट व्यक्ति पत्रकार के रूप में घूसकर ऐसा करता तो उसकी भी निंदा होती पर ऐसे में कुछ लोग उनकी प्रशंसा करते तो थोड़ा समझा जा सकता था।

पत्रकार के परिवार सीना तानकर अपने बेटे के बारे में जिस तरह बता रहे थे उससे लगता है कि उनको समाज ने भी समर्थन दिया है और यह इस बात का प्रमाण है कि वहां के समाज में अभी सभ्य और आधुनिक विचारों का प्रवेश होना शेष है। समाचारों के अनुसार मध्य ऐशिया के एक धनी ने उस जूते की जोडी की कीमत पचास करोड लगायी है पर उसका नाम नहीं बताया गया। शायद उस धनी को यह बात नहीं मालुम कि पत्रकार ने अपने ही लोगों के साथ धोखा किया है। वैसे भी कोई धनी अमेरिका प्रकोप को झेल सकता है यह फिलहाल संभव नहीं लगता। अमेरिका इन घटनाओं पर आगे चलकर क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करता है यह अलग बात है पर कुछ दिनों में उसी पत्रकार को अपने देश में ही इस विषय पर समर्थन मिलना कम हो जायेगा। अभी तो अनेक लोग इस पर खुश हो रहे हैं देर से ही सही उनके समझ में आयेगी कि इस तरह जूता फैंकना कोई बहादुरी नहीं है। किसी भी व्यक्ति के लिये प्रचार माध्यम से जुड़कर काम के द्वारा प्रसिद्धि प्राप्त करने कोई कठिन काम नहीं है इसलिये उसे धोखा देकर ऐसा हल्का काम करने की आवश्यकता नहीं है। कुछ समय बाद क्या स्थिति बनती है यह तो पत्रकार और उसके समर्थकों को बाद में ही पता चलेगा। मेहमान पर इस तरह आक्रमण करना तो सभी समाजों में वर्जित है और समय के साथ ही लोग इसका अनुभव भी करेंगे।
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Friday, December 12, 2008

आंतक तुम्हारे दिल में घर नहीं बनायेगा-तीन क्षणिकायें

आतंक को पंख नहीं है
पर फिर भी हमेशा उड़ता नजर आता
इंसान के दिल में बैठा डर
उसे चुंबक की तरह खींच लाता है
शायद इसलिये इंसानों के
जज्बातों से खिलवाड़ कर
अपने धंधे चलाने वालों को
आतंक की हवा बाजार में बेचने के लिये
सड़क पर असली खून
बहाना जरूरी नजर आता है
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आने से पहले मौत इंसान को
जिंदगी में कितनी बार डराती है
अपना भूत हमेशा उसके पीछे दौड़ाती है
जेहन में जो आदमी के है
वही दहशत उसका सहारा बन जाती है
....................................................

तुम डरो नहीं तो
आतंक कहीं नजर नहीं आयेगा
समझ लो जब तक तय नहीं है
तो मौत का दिन नहीं आयेगा
फिर किसी का आतंक
तुम्हारे दिल में घर नहीं बनायेगा

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Tuesday, December 09, 2008

विश्वास करने के सजा धोखा कर दे जाते-हिन्दी शायरी

शादी में शराब पीकर
नृत्य करते हुए
ऊपर गालिया दागते हुए
लोग बन्दर जैसे नजर आते
और बन्दर कहो तो चिढ जाते
किससे कहें अपने मन की बात
इंसानों के भेष में में सांप-बिच्छू , भेडिये
और सियार हमारे सामने आते
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किताबों पढ़कर चंद शब्द लेकर
चल रहे हैं साथ लेकर उपाधियों के झुंड
दिखते हैं नरमुंड
बोलते हैं प्यार से जैसे अपने हों
दिखाते हैं ऐसे सच जो सिर्फ सपने हों
मौका पाते ही पीठ में चुरा घोंप जाते
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कितनी बार तो निकला होगा
लहू हमारी पीठ से
जब भी पाला पडा किसी ढीठ से
अब तो चेहरे पर नकाब लगाकर
वह कत्ल नहीं करते
मुट्ठी में सब बंद है सब फैसले उनके
बिना जिरह के ही फ़ैसले करते
विश्वास करने की सजा
धोखा कर दे जाते

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Saturday, December 06, 2008

जमाने को दिखाने के लिये जो रोते हैं-व्यंग्य कविता

वह उदास था
उसके चेहरे पर थी गम की लकीरें
पर उससे कहा गया कि
जब तक रोएगा नहीं तब
तक उसके दुःख को सच नहीं माना जायेगा
उसके दर्द को तभी माना जायेगा असली
जब वह अपने आंसू जमीन पर गिरायेगा

उसने कहा
‘दिखाने के लिये जो रोते हैं
उनके पास ही ऐसे हथकंडे होते हैं
दिल में हो या नहीं गम
पर दहाड़ कर रोते हैं
अगर कोई गम है दिल में
तो बहकर ऐसे नहीं बाहर आयेगा
कि इंसान उसे दिखायेगा
गम होना अलग चीज है
उस पर आंसू बहाना अलग
जिनके दिल में सच में दर्द है
वह दिखाता है चेहरा
पर जुबान पर क्भी नहीं आयेगा

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Thursday, December 04, 2008

कूटनीति के साथ के साथ सैन्य कार्रवाई भी संभव-आलेख

भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध की प्रत्यक्ष रूप से युद्ध की संभावना नहीं है पर इस बात से इंकार करना भी कठिन है कि कोई सैन्य कार्यवाही नहीं होगी। पाकिस्तान के राष्ट्रपति जरदारी ने स्पष्ट रूप से 20 आतंकवादी भारत को सौंपने से इंकार कर दिया पर उन्होंने यह नहीं कहा कि वह उनके यहां नहीं है। स्पष्टतः उन्होंने दोनों पक्षों के बीच अपने आप को बचा लिया या कहें कि एकदम बेईमानी वाली बात नहीं की। हालांकि इससे यह आशा करना बेकार है कि वह कोई भारत के साथ तत्काल अपना दोस्ताना निभाने वाले हैं जिसकी चर्चा वह हमेशा कर रहे हैंं।

जरदारी आतंकवादियों का वह दंश झेल चुके हैं जिसका दर्द वही जानते हैं। अगर वह सोचते हैं कि आतंकवादियों का कोई क्षेत्र या धर्म होता है तो गलती पर हैंं। भारत के आतंकवादी उनके मित्र हैं तो उन्हें यह भ्रम भी नहीं पालना चाहिये क्योंकि यही आतंकवादी उनके भी मित्र हैं जो पाकिस्तान के लिये आतंकवादी है। आशय यह है कि आतंकवादी उसी तरह की राजनीति भी कर रहे हैं जैसे कि सामान्य राजनीति करने वाले करते हैं। राजनीति करने वाले लोग समाज को धर्म, जाति,भाषा, और क्षेत्र के नाम बांटते हैं और यही काम आतंकी अपराध करने वाले समूह सरकारो में बैठे लोगों के साथ कर रहे हैं। वह उनको बांटकर यह भ्रम पैदा करते हैं कि वह तो सभी के मित्र हैं। अगर आम आदमी की तरह शीर्षस्थ वर्ग के लोग भी अगर इसी तरह आतंकी अपराध करने वाले समूहों की चाल में आ जायेंगे तो फिर फर्क ही क्या रह जायेगा? आसिफ जरदारी किस तरह के नेता हैं पता नहीं? वह परिवक्व हैं या अपरिपक्व इस बात के प्रमाण अब मिल जायेंगे। एक बात तय रही कि जब तक भारत का आतंकवाद समाप्त नहीं होगा तब तक पाकिस्तान में अमन चैन नहीं होगा यह बात जरदारी को समझ लेना चाहिये।

कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि बेनजीर के शासनकाल में ही भारत के विरुद्ध आतंकवाद की शुरुआत हुई थी। अगर जरदारी अपनी स्वर्गीय पत्नी को सच में श्रद्धांजलि देना चाहते हैं तो वह चुपचाप इन आतंकवादियों को भारत को सौंप दें पर अगर वह अभी ऐसा करने में असमर्थ अनुभव करते हैं तो फिर उन्हें राजनीतिक चालें चलनी पड़ेंगी। इसमें उनको अमेरिका और भारत से बौद्धिक सहायता की आवश्यकता है पर सवाल यह है कि क्या अमेरिका अभी भी ढुलमुल नीति अपनाएगा। हालांकि उसके लिये अब ऐसा करना कठिन होगा क्योंकि रक्षा विशेषज्ञ उसे हमेशा चेताते हैं कि आतंकवादी भारत में अभ्यास कर फिर उसे अमेरिका में अजमाते हैं। अमेरिका की खुफिया एजेंसी एफ.बी.आई. ने ऐसे ही नहीं भारत में अपना पड़ाव डाला है। भारत की खुफिया ऐजेंसियेां के उनके संपर्क पुराने हैं और जिसके तहत एक दूसरे को सूचनाओं का आदान प्रदान होता है-यह बात अनेक बार प्रचार माध्यमों में आ चुकी है।

संयुक्त राष्ट्र के महासचिव वान कहते हैं कि यह अकेले भारत पर नहीं बल्कि पूरे विश्व पर हमला है। इजरायल भी स्वयं अपने पर यह हमला बताता है। पाकिस्तान इस समय दुनियां में अकेला पड़ चुका है। ऐसे में अगर वहां लोकतांत्रिक सरकार नहीं होती तो शायद उसे और मुश्किल होती पर इस पर भी विशेषज्ञ एक अन्य राय रखते हैं वह यह कि जब वहां लोकतांत्रिक सरकार होती है तब वहां की सेना दूसरे देशों में आतंकवाद फैलाने के लिये बड़ी वारदात करती है पर जब वहां सैन्य शासन होता है तब वह कम स्तर पर यह प्रयास करती है। वह किसी तरह अपने लेाकतांत्रिक शासन का नकारा साबित कर अपना शासन स्थापित करना चाहती है।

अनेक विदेश और र+क्षा मामलों में विशेषज्ञ वहां किसी तरह सीधे आक्रमण करने के प+क्ष में हैंं। यह कूटनीति के अलावा सैन्य कार्यवाही के भी पक्षधर हैं। एक बात जो महत्वपूर्ण है। वह यह कि पाकिस्तान की सीमा अफगानिस्तान से लगी अपनी सीमा पर उन तालिबानों ने को तबाह करने में वहां की सेना अक्षम साबित हुई है और इसलिये वहां से भागना चाहती है और अब भारत के तनाव के चलते ही वह भारतीय सीमा पर भागती आ रही है। हो सकता है कि यह उसकी चाल हो। मुंबई में पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आई.एस.आई. और सेना के हाथ होने के प्रमाण को विशेषज्ञ इसी बात का द्योतक मानते हैंं।

इस समय पाकिस्तान पूरे विश्व की नजरों में है और भारत जो भी कार्यवाही करेगा उसके लिये वह अन्य देशों को पहले विश्वास में लेगा तभी सफलता मिल पायेगी। भारत अकेला युद्ध करेगा पर उसके लिये उसे विश्व का समर्थन चाहिये। लोग सीधे कह रहे हैं कि अकेले ही तैश में आकर युद्ध करना ठीक नहीं होगा। पाकिस्तान की सेना का वहां अभी पूरी तरह नियंत्रण है और फिलहाल वहां के लोकतांत्रिक नेताओं का उनकी पकड़ से बाहर तत्काल निकलना संभव नहीं है। ऐसे में कुटनीतिक चालों के बाद ही कोई कार्यवाही होगी तब ही कोई परिणाम निकल पायेगा। अगर भारत ने कहीं विश्व की अनदेखी की तो उसके लिये भविष्य में परेशानी हो सकती है। जिन्होंने 1971 का युद्ध देखा है वह यह बता सकते हैं कि युद्ध कितनी बड़ी परेशानी का कारण बनता है। यही कारण है कि प्रबुद्ध वर्ग वैसी आक्रामक प्रतिक्रिया नहीं दे रहा जैसी कि प्रचार माध्यम चाहते हैं। यह प्रचार माध्यम अपनी व्यवसायिक प्रतिबद्धताओं के चलते देश भक्ति के जो नारे लगा रहे हैं वह इस बात का जवाब नहीं दे सकता कि क्या उसे इससे कोई आय नहीं हो रही है। एस.एम..एस. करने पर जनता का खर्च तो आता ही है।

पाकिस्तान के प्रचार माध्यम भी भारत के प्रचार माध्यमों की राह पर चलते हुए अपने देश में कथित रूप से भारत के बारे में दुष्प्रचार कर रहे हैं पर वह उस तरह का सच अपने लोगों का नहीं बता रहे जैसा कि भारतीय प्रचार माध्यम करते हैं। भले ही भारतीय प्रचार माध्यम अपने लिये ही कार्यक्रम बनाते हैं पर कभी कभार सच तो बता देते हैं पर पाकिस्तान के प्रचार माध्यम उससे अभी दूर हैंं। उन्हें यह समझ लेना चाहिये कि यह आंतकी अपराधी उनके देश के ही दुश्मन हैं। पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ जरदारी और प्रधानमंत्री गिलानी मोहरे हैं पर उन पर यह जिम्मेदारी आन पड़ी है जिस पर पाकिस्ताने के भविष्य का इतिहास निर्भर है। भारत के दुष्प्रचार में लगे पाक मीडिया को ऐसा करने की बजाय ऐसी सामग्री का प्रकाशन करना चाहिये जिससे कि वहां की जनता के मन में भारत के प्रति वैमनस्य न पैदा हो।
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Monday, December 01, 2008

दुनियां के दृश्य और नजर-हिंदी शायरी

किसी इमारत में लगी आग

कहीं रास्ते में बिखरा खून

किर्सी जगह हथियारों की आवाज से गूंजता आकाश

दिल और दिमाग को डरा देता है

पर कहीं अमन है

खिलता है फूलों से ऐसे भी चमन हैं

गीत और संगीत का मधुर स्वर

कानों के रास्ते अंदर जाकर

दिल को बाग बाग कर देता है

दुनियां में दृश्य तो आते जातें

देखने वाले पर निर्भर है

वह अपनी आंखों की नजरें

कहां टिका देता है

कहां से फेर लेता है

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Monday, November 24, 2008

भीड़ में अपनी पहचान हो जाने की चिंता-हिंदी शायरी

नायक बेचने के लिये
उनको खलनायक भी चाहिए
अपने सुर अच्छे साबित करने के लिये
उनको बेसुरे लोग भी चाहिए
यह बाजार है
जहां बेचने वाला
खरीददार की फिक्र करता नहीं
उसकी जेब का कद्रदान होता है
सौदा बेचने के लिये
बेकद्री भी होना चाहिए
ओ बाजार में अपने लिये
चैन ढूंढने वालों
जेब में पैसा हो तो
खर्च करने के लिये अक्ल भी चाहिए
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बाजार में भीड़
पर भीड़ में अक्ल नहीं होती
बिकती अक्ल बाजार में
तो भला भीड़ कहां से होती
इसलिये सौदागर चाहे जो चीज
बाजार में बेच जाते हैं
जो ठगे गये खरीददार
शर्म के मारे कहां शिकायत लेकर आते हैं
भीड़ में अपनी कमअक्ल की
पहचान हो जाने की चिंता सभी में होती

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Sunday, November 16, 2008

एक बिचारा,जिम्मेदारी का मारा- व्यंग्य आलेख

अपने देश के बुद्धिजीवियों का एक वर्ग है जो हमेशा हर दुर्घटना के प्रति समाज की संवेदनहीनता को उबार कर सामने ले आता है-देखिये जनाब! यह दुर्घटना हुई पर लोग हैं कि इस तरफ ध्यान नहीं दे रहे, या देखिये सभी लोग स्वार्थी हो गये हैं और देश में कहीं सूखा, अकाल या बीमारी का प्रकोप है तो कहीं बमकांड और अग्निकांड की वजह से लोग मरे पर लोग अपने कामों में वैसे ही व्यस्त थे जैसे पहले थे।
ऐसे लोगों का उद्देश्य भले ही अपने को संवेदनशील साबित करना हो पर वह होते नहीं बल्कि उनको लिखने या बोलने के लिये कोई विषय नहीं होता तो वह एक चालू विषय उठा लेना होता है। ‘संवेदनायें मर गयी हैं’ इस विषय पर मैं भी तब कोई कविता चिपका देता हूं जब खालीपीली बैठे लिखने का ख्याल आ जाता है क्योंकि आखिर अपने लिखने पढ़ने का शुरुआती दौर इन्हीं लोगों के साथ गुजरा है जो केवल समाज की संवेदनहीनता पर ही विचार करते हैं-यह आदत बहुत प्रयास करने पर भी नहीं जा पाती। हालांकि समाज की संवेदनायें एक विषय है पर धरातल पर इसका क्या स्वरूप है कोई नहीं जानता।

इस प्रसंग पर लिखते हुए एक दिलचस्प फोटो का विचार आया जो एक ब्लागर मित्र ने भेजा था। हमारे यह मित्र ब्लागर उत्साही है और ऐसा कोई दिन नहीं जाता जब उनकी तरफ से ऐसे दिलचस्प फोटो न आते हों। बात उस फोटो की करें। कहीं बाढ़ आयी हुई थी। एक मकान मेंें परिवार के सभी सदस्य अपने कमरे में रखे सोफों पर बैठकर टीवी पर अपने मनोरंजन कार्यक्रम देख रहे थे सिवाय उस गृहस्वामी के जो मकान के बाहर खड़ा अंदर मौजूद पानी को बाहर निकालने की चिंता में मग्न था। परिवार के अन्य सदस्यों को कहीं दूसरी जगह बाढ़ आने की चिंता क्या होती उनके स्वयं के घटनों तक पानी था। गृहस्वामी अंदर की तरफ झांक रहा था क्योंकि ऐसा लगता था कि परिवार के अन्य सदस्यों ने यह मान लिया था कि अगर मुखिया कहलाने को गौरव उसके पास है तो बाहर खड़ा वह शख्स स्वयं ही इसका बाढ़ के पानी को किसी भी तरह बाहर निकालकर अपनी भूमिका निभायेगा।

उस फोटो को देखकर मुझे हंसी आयी। भला बाढ़ पर कोई हंसने जैसी बात हो सकती है? अरे, उस पर तो दर्द भरे लेख, समाचार और कवितायें ही लिखी जानी चाहिये। मगर फोटो! जब सारे प्रचार माध्यम दर्दनाक फोटो छापते हों तब मित्र ब्लागर एकदम अलग और असाधारण फोटो भेजकर जो कहना चाहते थे वह तो कोई भी समझ सकता है कि ऊंचाई पर होने के बावजूद जिस मकान में सोफे में बैठने की जगह से एक इंच नीचे पानी भरा हो और लोग बैठकर आराम से टीवी देख रहे हों तब हंसे कि दुःख व्यक्त करें। हमारे इन मित्र ब्लागर की सक्रियता वाकई बहुत लुभावनी है। (वैसे जिन लोगों को अलग से कुछ फोटो वगैरह देखने की इच्छा हो तो वहा कमेंट में अपना ईमेल पता छोड़ दें तब मैं उनको भेज दूंगा। हालांकि उनके मुताबिक वह भी इंटरनेट से ही यही कलेक्ट करते हैं पर अगर आसानी से उपलब्ध हो तो बुराई क्या है?)

बहरहाल बात करें समाज की संवेदनाओं की! लगता है कि अंग्रेज अपना काम कर गये। लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति अब अपना रंग दिखाने लगी है और यही कारण है कि लोग जिस समाज में रह रहे हैं उसके ही मूल स्वभाव को नहीं समझ पाते। लिखते हैं समाज पर उसे परे होकर-तब उन्हें लगता है कि इस समाज से परे दिखना जरूरी है क्योंकि तब उसकी बुराईयों से अपने को परे दिखा पायेंगे।

समाज के संवेदनशील या असंवेदनशील होने को विषय आज तक विवादास्पद है। अगर एक तरह से देखें तो समाज की कोई संवेदना हो भी नहीं सकती क्योंकि वह तो प्रत्येक जीव के स्वभाव का भाग है। समाज कोई पैदा नहीं होता व्यक्ति पैदा होता और मरता है। फिर संवेदनाओं को प्रकट करने से क्या लाभ? किसी दुर्घटना में अगर किसी की मृत्यु हो जाये तो उससे भला क्या कोई संवेदना जतायेगा क्योंकि समस्या तो उसके आश्रितों के सामने आने वाली होती है। उनका काम केवल संवेदना से नहीं बल्कि सहायता से भी चलता है। खालीपीली शाब्दिक संवेदना तो दिखावे की होती है। पीडि़तों के निकट जो लोग होते हैं उनके कुछ दयालू होते हैं। समाज की संवेदनाओं पर विचार करने वाले इस बात को याद रखें कि समाज के बुरे लोग रहेंेंगे तो भले भी रहेंगे। सभी लुटेरे नहीं होंगे वहां कुछ दानी भी होंगें।
अकाल,बाढ़,अग्निकांड,बमकांड,सांप्रदायिक या सामूहिक हत्यायें जैसे हादसों को यह देश झेलने का अभ्यस्त हो चुका है। क्या यह आज हो रहा है? क्या यह पहले नहीं हुआ। इस देश में जब रियासतें थी तब उनकी जंगों के इतिहास को भला कौन भूल सकता है। छोटी छोटी बातों पर युद्ध और खून खराबे होते थे। लोग मरते थे। अकाल और बाढ़ भी बहुत बार आयी होगी तब क्या लोगों ने उसका मुकाबला नहीं किया होगा? अनेक भारत विरोधी विदेशी आज भी कहते हैं कि भारत में अंधविश्वास और रूढि़वादिता अधिक है पर वह अपने देशों में निजी दानदाताओं द्वारा बनायी गयी इमारतें नहंी दिखा सकते। वह दिखा सकते हैं तो बस अपने यहां अपने राजाओं के महल। जहां तक विदेशी ज्ञानी विद्वानों का सवाल है तो वह आज भी मानते हैं कि भारत के लोग संक्रमण काल मेंे एक दूसरे के जितना काम आते हैं उतना अन्य कहीं नहीं। यही कारण है कि यह देश अनेक संकटों से उबर कर आता है-हालांकि इसका कारण यह भी है कि अपने देश पर प्राकृतिक की कृपा कम नहीं रहीं इसका प्रमाण वह अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्ट है जिसमें कहा गया है कि जितना भूजल भारत में उपलब्ध है अन्यत्र कहीं नहीं।
फिर भारतीय अध्यात्म कहता है कि मरने वाले की चिंता मत करो जो जीवित है उसकी सहायता के लिये तत्पर रहो और इस देश के लोग तत्पर रहे हैं। अपने समाज की मूल अवधारणाओं से अलग सोचने वाले बुद्धिजीवी केवल मृतकों के प्रति संवेदनायें जताते है जीवित के लिये उनके मन में क्या स्थान है यह थोड़ा शोध का विषय है। जन्म और मरण दिन मनाने की परंपराओं की चर्चा देश के प्राचीन ग्रंथों में कतई नहीं है। किस्से पर किस्सा निकल आता है। भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण ने संपूर्ण देश को नयी दिशायें दीं (हालांकि उसका स्वरूप आज के स्वस्प से बड़ा था) और तमाम तरह के आदर्श स्थापित किये पर कभी उन्होंने अपना जन्म दिन मनाया हो इसकी चर्चा नहीं मिलती पर उनके नाम लेकर भारतीय समाज में कथित धर्मरक्षा में लगे अनेक लोग अपने जन्म दिन अपने जीवित रहते हुए ही मनवाते हैं-हालांकि यह विषय अलग से चर्चा का विषय है।
सच बात तो यह है कि इस देश के आम लोग भावुक होते हैं। जानते सभी हैं पर सोचते हैं कि कहंकर भल किसी से बैर क्यों लिया जाये? फिर संतों की आलोचना में वह अपना समय नष्ट करने की बजाय भक्ति में लगाना अच्छा समझते हैं। किसी पर विपत्ति आ जाये तो जिसके मन में आ जाये और अगर पहुंच सकता है तो मदद करने चला जाता है पर वह कहीं जाकर गाता नहीं है। उसी तरह जो नहीं जाता या दूर होने के कारण नहीं पहुंच पाता वह जानता है कि शाब्दिक संवेदनाओं से से किसी का काम नहीं चलने वाला। जो इसमें समाज की संवेदनहीनता ढूंढते हैं तो केवल अज्ञानता ही कहा जा सकता है।

बात उस फोटो की करें। अंदर टीवी देख रहे सभी सदस्यों के चेहरे पर हंसी और प्रसन्नता थी पर अंदर की तरफ ताक रहे उस गृहस्वामी के चेहरे पर चिंता के भाव साफ दिखा रहे थे कि वह तनाव में था क्योंकि मुखिया होने के कारण बाहर से आये इस संकट को निकालने का जिम्मा उसे लेना ही था और उसके लिये संवेदनाओं के रूप में बस एक ही शब्द सही था ‘‘ एक बिचारा, जिम्मेदारी का मारा’’। उस फोटो को अन्य लोगों ने भी देखा होगा पर शायद ही उसके बारे में किसी ने ऐसी राय बनायी हो।
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Friday, November 07, 2008

घर का ज्ञानी बैल समान-व्यंग्य आलेख

पता नहीं कब कैसे इस देश में यह परंपरा शुरू हुई कि बाहर से जब तक आदमी प्रमाण पत्र नहीं मिले उसे घर में भी सम्मान नहीं मिलता। यहाँ कुछ लोकोक्तियाँ प्रचलित हैं जैसे-घर का ज्ञानी बैल सामान ,दूसरे गाँव का सिद्ध, और अपने घर में तो हर आदमी शेर होता है,आदि आदि। यह अपने देश के लोगों की मूल प्रवृतियों का परिचायक है। कितना भी अच्छा करो पर जब तक विदेश से कोई प्रमाणपत्र न मिले तब तक यहाँ किसी को सम्मानीय नहीं माना जा सकता।
हालांकि लोगों को समझाने के लिए यह भी कहा गया है कि दूर के ढोल सुहानी-यानी परे लगने वाली सभी शये आकर्षक लगती हैं। आजकल तो कई शहरों में कचडे के रंग बिरंगे डिब्बे भी दिखते हैं। दूर से देखने पर ऐसे दिखते हैं कि वहां कोई खानपान की दूकान होगी। पास जाने पर पता लगता है कि वह तो कचडे का डिब्बा है। बहरहाल यह लोगों की आदत हो गयी है कि कहीं भी जाकर अपने लिए ढोल बजवा लो तभी यहाँ आपको सम्मान मिलेगा। अपने देश के लोगों की आदत देखकर तो यही लगता है कि अगर दक्षिण अफ्रीका में महात्मा गांधी जी अगर अंग्रेजों को खिलाफ विजय दर्ज नहीं की होती तो शायद ही इसे देश के लोग उनका लोहा मानते हुए उनके अनुयायी बनते। उनका जीवन सदैव संघर्षमय रहा। दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने संघर्ष अपनी आत्मा की आवाज पर शुरू किया था। उनकी कथनी और करनी में कभी कोई अंतर नहीं रहा पर लोगों ने उनसे कुछ और नहीं सीखा सिवाय इसके कि यहाँ लोकप्रिय होने के लिए विदेश में नाम कमाओ चाहे जिस तरह। उन्होंने अपने आन्दोलन के दौरान जो श्रम किया वह किसी के बूते का नहीं है-खासतौर से इस सुविधाभोगी युग में तो कतई नहीं। पर हाँ उन जितना तो नहीं पर उनकी तरह नाम कमाने की ललक कई महानुभावों में है।
लोगों की मानसिकता शायद इसी तरह की है कि वह दूसरे देशों या समाजों से सम्मानित होने पर ही लोहा मानते हैं। यही कारण है कि अधिकतर लब्ध प्रतिष्ठत लोग अपने लिए विदेश से कोई न कोई प्रमाण पत्र जुटाते हैं। इसके अलावा जिन महानुभावों को लगता है कि यहाँ नाम करने के लिए मेहनत करने की जगह सीधे विदेश से कोई सम्मान प्राप्त कर लो और वह सफल भी होते हैं। वैसे तो पहले विदेशी यहाँ सौ फीसदी विश्वसनीय माने जाते थे पर जब से फिक्सिंग वगैरह की बात चली है तो ऐसा भी लगता है कि विदेशी भी जरूर अपने लोगों को यहाँ प्रतिष्ठत करने के लिए कोई पुरस्कार दे सकते हैं। कुछ लोग अब जाकर ऐसे संशय उठाते हैं कि क्योंकि कुछ प्रतिभाशाली लोगों का यहाँ नाम इसलिए हुआ है कि वह विदेश से सम्मानित हैं। इनमें कुछ लेखक और चित्रकार हैं जो पहले विदेश में सम्मानित हुए तब यहाँ ऐसे चर्चित हुए कि प्रचार माध्यम उनकी बातें प्रकाशित ऐसे करते हैं जैसे कि वह ब्रह्म वाक्य हो।
अमेरिका की अनेक पत्रिकाएँ अपने यहाँ विश्व के प्रभावशाली,सैक्सी,धनी, विद्वान तथा अन्य अनेक तरह की सूचियां छपते हैं जिसमें स्त्री पुरुष दोनों के नाम होते हैं। इसमें अगर किसी भारतीय का नाम होता है तो अपने प्रचार मध्य उछाले लगते हैं। दूसरे से लेकर दसवें तक हो तो भी उछालते हैं और पहले पर हो तो कहना ही क्या? लगता है कि भारत की वजह से उन्होंने तमाम तरह की श्रेणियां भी बना दीं हैं। किसी की आँखें सेक्सी तो किसी की टांगें तो किसी की आवाज को सेक्सी घोषित कर देते हैं। अनेक लोग समाज सेवा और अपने प्रभाव की कारण भी चर्चित होते हैं।
इनमें जो नाम होते हैं उनमें कई लोगों का नाम चचित भी नहीं होता क्योंकि जन सामान्य उनका कोई सीधे सरोकार नहीं होता पर जो उनके 'प्रभाव क्षेत्र' में होते हैं वह आम आदमी का ही नही बल्कि समाज और देश का भविष्य तय करते हैं। कई लोगों को गलतफ़हमी होती है कि अमेरिका, ब्रिटेन और अन्य यूरोपीय देशो के राज प्रमुख दुनिया से सबसे ताक़तवर और प्रभावशाली लोग हैं उन्हें ऎसी रिपोर्ट बडे ध्यान से पढ़ना चाहिए। आखिर वह अपने राष्ट्र प्रमुखों को प्रभावशाली क्यों नहीं मानते जबकि विश्व में उनको सबसे ताक़तवर माना जाता है। आजकल भारत पर उनको अधिक ही मेहरबानी हैं और यहाँ के अभिनेता और अभिनेत्रियों के नाम भी इन आलीशानों की सूची में शामिल करते हैं।

हमारे देश में अगर आप किसी व्यक्ति से प्रभावशाली लोगों के बारे में सवाल करेंगे तो वह अपने विचार के अनुसार अलग-अलग तरह के प्रभाव के रुप बताएंगे। हाँ यहाँ उन लोगों को जरूर प्रभावशाली माना जाता है जो घरेलू हितों के लिए सार्वजनिक काम में पहुँच बनाकर करा लाते हैं। आम आदमी की दृष्टि में प्रभाव का सीधा अर्थ है 'पहुंच'। लोगों के निजी और सार्वजानिक कामों में कठिनाई और लंबी प्रक्रिया के चलते इस देश में उसी व्यक्ति को प्रभावशाली माना जाता रहा है जो अपनी पहुँच का उपयोग कर उसे करा ले आये। इस कारण दलाल टाईप के लोग भी 'प्रभावशाली ' जैसी छबि बना लेते हैं। अब जैसे-जैसे निजीकरण बढ़ रहा है वैसे ही उन लोगों की भी पूछ परख बढ़ रही है जो धनाढ्य लोगों के मूंह लगे हैं, क्योंकि वह भी अपने यहाँ लोगों को नौकरी पर लगवाने और निकलवाने की ताक़त रखने लगे हैं। हर जगह तथाकथित रुप से प्रभावशाली लोगों का जमावड़ा है और तय बात है कि वहाँ चाटुकारिता भी है। इसके बावजूद उनको सम्मानीय नहीं माना जाता क्यों कि इसके लिए उनके पास विदेश से प्रमाण पत्र के रूप में कोई सम्मान नहीं होता।

प्रभावशीलता और चाटुकारिता का चोली दामन का साथ है। सही मायने में वही व्यक्ति प्रभावशाली है जिसे आसपास चाटुकारों का जमावड़ा है-क्योंकि यही लोगों वह काम करके लाते हैं जो प्रभावी व्यक्ति स्वयं नहीं कर सकता है। वैसे भी हमारे देश में बचपन से ही अपने छोटे और बड़े होने का अहसास इस तरह भर दिया जाता है कि आदमी उम्र भर इसके साथ जीता है और इसी कारण तो कई लोग इसलिये प्रभावशाली बन जाते हैं क्योंकि वह लोगों के ऐसे छोटे-मोटे कुछ पैसे लेकर करवा देते हैं जो वह स्वयं ही करा सकते हैं-जिसे दलाल या एजेंट काम भी कहा जाता है और लोग उनका इसलिये भी डरकर सम्मान करते हैं कि पता नहीं कब इस आदमी में काम पड़ जाये। मजे की बात यह है कि घर का आदमी ही बाहर का मुश्किल काम कराकर लाये तो उसे "पहुँच" वाला नहीं माना जाता जब तक बाहर सम्मानित न हो जाए।
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Wednesday, November 05, 2008

सभी जगह होते हैं मध्यस्थ-आलेख

धर्म के नाम पर व्यापार करने वाले बहुत हैं पर उसके धर्म ग्रंथों का ज्ञान कितनों को है यह एक विचार का विषय है। देखा जाए तो ज्ञान न होने की वजह से ही आम लोग हर किसी रंग विशेष के वस्त्र पहनने वाले को संत मान लेते हैं। उसने कोई बात कही तो उसकी चर्चा तो लोग करते हैं पर जो गृहस्थ हैं उनको तो ज्ञान देना का अधिकार ही नहीं है यह मान कर लोग भारी गलती करते हैं। आखिर रंग विशेष के वस्त्र पहनी वाले व्यक्तियों की बात को ही महत्व क्यों दिया जाता है और सामान्य वेशधारी गृहस्थ को कोई भी आदमी एक ज्ञान या विद्वान के रूप में सम्मान क्यों नहीं देता? फिर भगवाधारी-कहीं श्वेत वस्त्रधारी भी-को बिना प्रमाण के ही सन्यासी,धर्मात्मा या ज्ञानी मान लेना एक और गलती है।
शायद इसका कारण मनुष्य का यह स्वभाव है कि वह अपने जैसे दिखने,बोलने और चलने वाले को महत्व नहीं देता क्योंकि उसके अंदर तब अपने समान दृष्टिगोचर होने वाले की बात मानने पर कुंठा पैदा होती है। आपने सुना होगा कि विपरीत लिंग वालों में एक दूसरे के प्रति आकर्षण होता है और यही नियम अपने से अलग दिखने वाले व्यक्ति पर भी लागू हो जाता है। सभी व्यक्ति अपने से प्रथक दृष्टिगोचर व्यक्ति का सम्मान कर यह दिखाते हैं कि वह स्वयं भी कोई निम्न कोटि के नहीं है। अपने जैसे दृष्टिगोचर व्यक्ति को देखकर सम्मान देने में उनको शायद हीनता का अनुभव होता है।

ऐसा ही भगवाधारी और श्वेतधारी कथित साधुओंसन्यासियो और संतों के साथ भी होता है। कोई भी अपने आश्रम या मंच पर दूसरे भगवा और श्वेत वस्त्रधारी संत,साधू सन्यासी को अपने बराबर के आसन पर नहीं बिठाता-यदि सामान्य स्थिति हो तो, आपातकाल में तो सभी सन्यासी या गृहस्थ एक हो जाते है। इस तरह कथित साधु और सन्यासी हो या सामान्य आदमी वह इसी भावना का शिकार होते हैं। संत, साधु सन्यासी भी अपने सामने जुटी भीड़ दिखाकर एक दूसरे के साथ प्रतिद्वंद्वता करते हैं। सभी लोगों में हर जगह अपने आश्रम बनाने की होड़ लगी है यह तो कोई भी देख सकता है। सच तो यह है कि ईंट और पत्थर के आश्रम बनाये जाते हैं पर नाम दिया जाता है कुटिया-पुराने धर्म ग्रंथों में यह धास फूंस की बनती थी।

कथित ज्ञानी और ध्यानी अपने प्रवचनों में पुरानी कहानियां सुनाते हैं पर उस मूल तत्त्व ज्ञान की चर्चा बिलकुल नहीं करते जो प्राचीन ग्रंथों में वर्णित है।
कहने को विश्व के सभी समाज सभ्य है पर जिस तरह विश्व में आतंक और अपराध बढे हैं और उससे आदमी पहले से अधिक डरपोक और अविश्वासी हो गया है। सभी कथित धर्मों के बीच में आम आदमी को उसके धर्म ग्रंथों की जानकारी देने वाला कोई न कोई मध्यस्थ होता है। सभी धर्मों में कर्म कांडों की रचना इस तरह की गयी है कि विवाह और अन्य धार्मिक कार्यक्रमों के लिए की मध्यस्थ की जरूरत पड़ जाती है। एक तरह से कहा जाए तो सभी मध्यस्थों को ही धर्म का प्रतीक बनाया गया है। आदमी के स्वतन्त्र रूप से सोचने और समझने का अवसर ही नहीं होता और यह मध्यस्थ उनको भेड़ की तरह हांके चला जाता है। एक मजे की बात यह कि सभी धर्मों में यह मध्यस्थ अपने कपडे के तय रंग रखते हैं जिससे समाज में उनको अलग से पहचान बनी रहे। हर धर्म आदमी के मनोविज्ञान को देखकर बनाया गया है कि वह अपने से अलग व्यक्तित्वों का ही सम्मान करता है।

यही वजह से सभी धर्मों के मध्यस्थों के कपडों के रंग ही उनके लोगों के लिए पवित्रता का प्रतीक माने जाते हैं। अनेक विज्ञानी और ज्ञानी इस संसार में हुए हैं पर कोई भी इस प्रवृति से मुक्ति नहीं पा सके। बहुत साधारण सी लगने वाली यह बात इतनी गूढ़ है कि इसे केवल गूढ़ ज्ञानी लोग ही जानते हैं।
अगर लोग यह चाहते हैं कि वह भ्रमित न हों तो उनको ऐसी बातों से मुक्त होना चाहिए। वह ऐसे लोगों से सिर्फ एक ही सवाल करें कि अगर वह ज्ञानी हैं और जीवन में निर्लिप्त भाव से रहते हैं तो फिर वह किसी ख़ास रंग का वस्त्र क्यों पहनते हैं जबकि सभी रंग पैदा इसी धरती पर होते हैं। उन्हें तो हर रंग में समान दिलचस्पी लेनी चाहिए। मगर नहीं! कोई ऐसा नहीं करेगा क्योंकि धर्म के नाम पर व्यवसाय बरसों से चल रहा है। ख़ास रंग की पहचान से वह लोगो अपनी पहचान बनाते हैं ताकि समाज उन पर यकीन करे।
इस प्रकार के ढोंग को रोकने ने लिए जरूरी है कि लोग इस बात को समझें कि धर्म के नाम पर भ्रमजाल में इस तरह फंसाया गया है कि न तो उनकी पहले वाली पीढियां मुक्त हो पायी और न आगे वाली मुक्त हो पाएंगी। लोगों को यह समझना चहिये कि धर्म का मतलब है अपने सांसरिक कर्तव्यों का प्रसन्नता पूवक निर्वहन और परमात्मा की भक्ति और ध्यान एकांत साधना है और उसमें भीड़ में लगने या मध्यस्थ के पास जाने की कोई आवश्यकता नहीं है. शेष फिर कभी।
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Sunday, November 02, 2008

शहर फिर भी लगते हैं वीरानों से -व्यंग्य कविता

इंसानों से नहीं होती अब वफादारी
फिर भी जमाने से चाहते हैं प्यार
हो गये हैं दीवानों से
लगाते हैं एक दूसरे पर इल्जाम
खेल रहे हैं दुनिया भर के ईमानों से
अपने तकदीर की लकीर बड़ी नहीं कर सकते
इसलिए एक दूसरे की थूक से मिटा रहे हैं
तय कर लिया है खेल आपस में
जंग का शतरंज की तरह
इसलिए अपने मोहरे पिटवा रहे हैं
जीतने वाले की तो होती चांदी
हारने वाले को भी मिलता है इनाम
नाम के लिए सभी मरे जा रहे हैं
सजाओं से बेखबर कसूर किये जा रहे हैं
कभी भेई टूट सकता है क़यामत का कहर
पर इंसान जिए जा रहे हैं अक्ल के परदे बंद कर
भीड़ दिखती हैं चारों तरफ पर
शहर फिर भी लगते हैं वीरानों से

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Wednesday, October 29, 2008

शब्द भी नकाब बन जाते हैं-हिन्दी शायरी

अपने चरित्र पर लगे काले दागों से
जो लोग घबडाते हैं
वही अपना सच छुपाने के लिए
शब्दों का नकाब लगाते हैं
यूं तो शब्द सौन्दर्य की रचना
उनके लिए खेल होता है
पर उनके अर्थों में ढूंढो तो
खोखले भाव सहजता से
सामने आते हैं
शब्दों के नकाब में उनके सच को
पकड़ने के लिए दिल की नहीं
होती है दिमाग की जरूरत
क्योंकि उनके शब्द भावना से नहीं
निज स्वार्थ के लिए रचे जाते हैं
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Sunday, October 26, 2008

नीयत में हो तो जिन्दगी में भी खिलेगा चमन-हिन्दी शायरी

नाम है हीरो
बहादुरी में जीरो
पर्दे पर बडों-बडों की करते छुट्टी
लोगों को पिलाते बहादुरी की घुट्टी
पर पर्दे के पीछे छोटे विलेन भी
अपने मुताबिक उनको नचवाते
चाहे जहाँ चाहे जैसा
नृत्य और गीत गंवाते
उनके इशारे ऐसे होते की
साइड रोल में आ जाता हीरो
जो पूछो कोई सवाल तो
परदे पर मजबूरों और गरीबों के
लिए जोर से गरजने वाला
मजबूरी जताता है हीरो
देखने वाले रहें भ्रम में
पर पढ़ने वाले जानते हैं
कौन है पर्दे का कौन है और
कौन है पर्दे के पीछे का हीरो
---------------------------------
छोटे पर्दे पर भी
नजर आते है तमाम विरोधाभासी दृश्य
देखकर हैरान होता है मन
कोई हीरो कहता है 'संतुष्ट नहीं हो जाओ'
कोई संत कहैं'संतोष है सबसे बड़ा धन'
बच्चे ने पूछा अपने दादा से
'आप ही करो हमारी शंका का निवारण
राम को माने या देखें रावण
जंग में कूदें या ढूंढें अमन'
दादा ने कहा
'हीरो तो पैसा लेकर बोलता है
संत सच्चा है तो ग्रंथों से
रहस्य खोलता है
झूठा है तो बस ज्ञान को भी
दान की तराजू में तौलता है
इस रंग बदलती दुनिया में
सब रंग देखो दृष्टा बनकर
तो दिल और दिमाग में रहेगा अमन
नीयत में हो तो जिन्दगी में खिलेगा
सच का चमन

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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

Saturday, October 18, 2008

आख़िर कब तक रहेगा यह मंदी का दौर-आलेख

कहने को किसी भी देश के शेयर बाजारों के सूचकांक को उसकी आर्थिक ताकत का परिचायक माना जाता है पर कई लोग इसका समर्थन नहीं करते क्योंकि आम आदमी के जीवन यापन के लिये जो वस्तुऐं कृषि के माध्यम से प्राप्त होती हैं उसका इससे अधिक संबंध नहीं होता।
अन्य देशों की बात छोड़ कर अगर भारत की बात की जाये तो आज भी भारतीय अर्थव्यवस्था को कृषि उन्मुख माना जाता है। भले ही प्रचार माध्यम शेयर बाजारों के उतरा चढ़ाव पर लंबी चौड़ी बहसें कर रहे हों पर यह सच सभी जानते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था का इससे अधिक लेना देना नहीं हैं। उद्योग और सूचना प्रौद्योगिकी से से कई लोगों को रोजगार मिला है पर फिर भी देश में भारी बेरोजगारी है और उसके बावजूद यह देश अपनी कृषि के सहारे चल रहा है।
भारत के शेयर बाज़ार में मंदी या कई लोगों के चैन को छीन लिया है और जिन छोटे लोगों ने अपनी बड़ी बचतों (यह अलग बात है कि बड़े लोगों के हिसाब से वह भी छोटी होती है) को इनमें अधिक लाभ से लगा दिया था वह भी अब त्रस्त हैं। हालत यही है कि कई ऐसे लोग भी अपने व्यथा कथा कह रहे हैं जिन्होंने अपना विनिवेश चुपचाप कर उसके कागज़ एक तरफ रख दिए थे क्योंकि यह उनके लिए एक तरफ रखे गए पैसे की तरह था जिसका उपयोग कम से कम तात्कालिक रूप से करने वाले नहीं थे।

कई व्यवसायी पुरुषों तथा कामकाजी महिलाओं ने अपने परिवार को जानकारी देने की आवश्यकता अनुभव किये बिना इन म्यूचल फंडों में विनिवेश किया था। पिछले कुछ समय से लोगों का रुझान म्यूचल फंडों में अपनी बचत लगाने की तरफ बढ़ रहा था। कारण था इसमें कुछ कपनियों के भुगतान के तत्काल बाद ही लाभांश के रूप में एक निश्चित रकम की प्राप्ति। म्यूचल फंडों के बेचने वाले एजेंट पुराने साल के लाभांश को नए आवेदनों पर दिलवाने के नाम पर लोगों को इस तरफ खींचते रहे। सच तो यह है कि विनिवेशकों को १५ से २५ प्रतिशत तक की राशि लगाने के तत्काल बाद प्राप्त भी हुई।

इन म्यूचल फंडों में उन लोगों ने भी पैसा लगाया जो शेयर बाजार पर भरोसा नहीं करते थे। फिर इसमें कुछ सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के म्यूचल फंडों की उपस्थिति ने भी अन्य कंपनियों के म्यूचल फंडों के प्रति लोगों में विशवास कायम किया। कुल मिलाकर म्यूचल फंडों को इतना आकर्षक बनाया गया जिससे इसके साथ नए विनिवेशक भी जुड़े जो पहला शेयर बाजार से दूर थे। वैसे तो इन म्यूचल फंडों में पैसा उन्ही लोगों ने ही लगाया है जिनके पास बचत की राशि अतिरिक्त रूप में थी और अब बाजार के गिरने से उनको कोई अधिक फर्क नहीं पडा क्योंकि उनकी अपनी नियमित आय यथावत है पर वह अपने म्यूचल फंडों से वह जिस प्रकार के अतिरिक्त लाभ की आशा कर रहे थे वह प्राप्त नहीं हुआ। ऐसे विनिवेशक अधिकतर नौकरी पेशा हैं और अतिरिक्त लाभ की आशा पूर्ण न होने से निराश जरूर हैं पर मानसिक रूप से हताश बिलकुल नहीं हैं क्योंकि उनके नियमित खर्चों के भुगतान में उनको कोई परेशानी नहीं है। हाँ जिन लोगों ने इस चक्कर में अपनी नौकरी छोडी या सेवानिवृत्ति के बाद वहां से पैसा धन इन म्यूचल फंडों में लगाया उनके लिए हालत बहुत दु:खदायी हैं।

इसके अलावा जिन लोगों ने अपने छोटे व्यवसाय बंद कर नियमित रूप से इसमें अधिक धन पाने की आशा लगाई उनके लिए यह समय संकट का है। जिन लोगों ने रातों रात अमीर होने की आशा में अपना सब कुछ दाव पर लगा दिया उनके लिए तो हालत बदतर हैं-क्योंकि न तो अब कहीं से कोई उनको लाभांश प्राप्त हो रहा है और न उनके म्यूचल फंडों की पूँजी उतनी है जितनी उन्होंने लगाई थी। जो लाभांश उनको पहले प्राप्त हुआ था उन्होंने अपने रहन सहन का स्तर बढाने में उसे लगा दिया।
अब इस मंदी के बारे में विचार करें तो यह एक कृत्रिम मंदी लगती है क्योंकि आखिर इस देश को औद्योगिक सम्राज्य चंद लोगों के हाथ में ही है और वह सभी मिलकर किसी खास रणनीति के तहत बाजार को अपने हिसाब से चलाने का मादा रखते हैं। जिन लोगों ने अपना अतिरिक्त धन म्यूचल फंडों में लगाया है वह चिंतित अवश्य हैं पर इसके बावजूद वह उनको औने पौने दाम पर बेचने के लिये तैयार नहीं। वह जानते हैं कि आगे पीछे फिर इनके दाम बढ़ने हैं। अगर उनकी पूरी रकम डूब जाती है तो वह इसके लिये तैयार दिखते हैं पर ऐसा नहीं होगा क्योंकि उसके बाद देश के उद्योगपति छोटे निवेशकों का विश्वास हमेशा के लिये खो बैठेंगे और जिनकी इस बाजार में दिलचस्पी हो उन्हें यह समझना चाहिये कि भारत की बैंकों का मुख्य आधार उसके छोटे बचत कर्ता ही रहे हैं-भले ही देश के अर्थशास्त्री उसकी परवाह करते हुए नहीं दिखते।

यह छोटे निवेशक आज के औद्योगिक स्वरूप का आधार हैं। वह अगर लाभांश लेते हैं तो फिर उससे इन्हीं कंपनियों का सामान भी खरीदते हैं। अगर देश के उद्योगपति इस तरह के खेल में अगर उनकी रकम डुबा बैठे तो भविष्य में संकट उनके लिये ही गहराने वाला है-शारीरिक और बौद्धिक श्रम कर कमाने वाला निवेशक तो फिर भी दोबारा कमा लेगा।
अमेरिका की मंदी का भारत में प्रभाव सच कम अफसाना अधिक लगता है। आखिर भारत की कृषि और उद्योग का अपना एक आधार है। उसके निवेशकों पर यहां के जो उद्योग निर्भर हैं उनका तो उबरना कठिन हो सकता है पर जिनके आधार भारत के छोटे निवेशकों पर टिका है वह फिर उबर आयेंगे।

अभी अनेक कंपनियों ने अपने लाभांश की घोषणा नहीं की है। उनके अगर आगे निवेश चाहिये तो लाभांश घोषित तो कभी न कभी करना ही होगा और तब बाजार उठेगा। इतिहास में एक बार बाजार जबरदस्त ऊपर उठा था तब किसी के समझ में नहीं आया था पर पोल बाद में खुली थी। उस समय भी कई निवेशक दिवालिया हो गये थे। आज की मंदी भी कम रहस्यमय नहीं है। भारतीय बाजारों मे सामान की खरीद फरोख्त निरंतर हो रही है। किसी कंपनी ने अपने उत्पाद या सेवा का मूल्य कम नहीं किया तब आखिर यह किस तरह मंदी को एक सच्चाई स्वीकारकिया जाये। बाजार में आम उपभोग की वस्तुओं का मूल्य सूचकांक निंरतर बढ़ रहा है तब शेयक बाजार के सूचकांक का गिरना किसी को भी रहस्यमय लग सकता है। इसमें वह बड़े निवेशक अपना फायदा ले सकते हैं जो बेचने के लिये मजबूर निवेशक से उसका निवेश खरीद लेंगे।
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Monday, October 13, 2008

मोबाइल और प्यार-हास्य व्यंग्य

मोबाइल की बेटरी में खराबी की
खबर ने उसे हिला दिया
क्योंकि उसने अपनी गर्ल फ़्रेंड को दिये थे
उसी कंपनी की मोबाइल प्रेजेंट जिनकी बेट्री
के फ़ट्ने की खबर ने देश में भूचाल ला दिया
मिलता था वह जिन गर्लफ्रैंडस से
अलग दिन और अलग जगह पर
बेटरी फटने के भय ने
सबको एक ही दिन और ऐक ही समय
उसकी होस्टल के कमरे की छत के नीचे
आपस में मिलवा दिया

उसने सबको एक ही कंपनी के
मोबाइल तोहफ़े में दिये थे
जिनकी बेटरी फटने के चर्चे
टीवी चैनलों ने किये थे
भय से काँपती सब उसके रूम में पहुँची
अपने मोबाइल की बेटरी
बदलवाने का आग्रह लेकर
पर जो देखा वहां का मंजर
वह गुस्से में सब भूल गयीं और मिलकर
उसे छठी का दूध याद दिला दिया
जिसे जो मिला उसके सिर पर मार दिया


वह पिटा-कूटा अपने कमरे में पडा था
ऐक दोस्त ने आकर उसे उठाया
वजह पूछी पर वह कुछ नहीं बता रहा था
बस ऐक ही बात रोते हुए दोहरा रहा था
‘मोबाइल वालों तुमने यह क्या किया
बेटरी फट जाने देते
पहले ही प्रचार क्यों किया
जिस कंपनी के मोबाइल खरीद्कर लव में
हो गया था हिट उसने ही आज पिटवा दिया


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Sunday, October 12, 2008

सर्वशक्तिमान के दरबार में क्लर्क और हीरो-हास्य व्यंग्य कविता

हीरो और क्लर्क ऐक ही दिन
और ऐक ही समय पर
मंदिर में करने दर्शन करने पहुँचे
क्लर्क तो रोज वहाँ जाकर
अपना शीष नवाता था
नहीं करता कोई मिन्नत
न थे उसके सपने भी ऊँचे
उस दिन वहाँ सुरक्षाकर्मियों और
हीरो के प्रशंसकों की भीड़ थी
क्लर्क की समस्या यह थी कि
अपने इष्ट तक कैसे पहुँचे
उसने मुख्य चरण सेवक को पुकारा
यह सोचते हुए की वह तो जानते हैं
पूरी करेंगे मेरी आस
इससे पहले उसने नहीं डाली थी
कभी भी उनको घास
रोज आता और दर्शन कर चला जाता
कभी नहीं गया उनके पास
उनसे अब की उसने याचना और कहा
'हम तो यहाँ रोज आते हैं
आज दरवाजे बंद हैं
अपने को मुश्किल में पाते हैं
आप ही थोड़ी मदद कर दें तो
अपने इष्ट के दर्शन करने पहुँचे'

वह बोले
'मालूम है कि तुम रोज आते हो
और कभी हमें प्रणाम भी नहीं कर जाते हो
अपना अहसान क्यों जताते हो
हो तो ऐक मामूली क्लर्क
हीरो से पहले ही दर्शन करने की
इच्छा मन में पालते हो
कभी सोचा है
वह तो हर माह बहुत बडी रकम
चढ़ावे में भेजता है
तुम बताओ आज कितना
दान-पेटी में डाल जाते हो
फिर तुम्हारे पास है क्या
उसके पास सब है
बंगला,गाड़ी और दौलत के अंबार
उसके परिवार के सदस्यों का
देश-दुनिया में नाम है
ऊपर वाले की उस पर कृपा अपार है
तुम बाद में आना
समझ लो नीली छतरी वाले की मर्जी
हम तो चले, देखो वह आ पहुँचे'


क्लर्क मुस्कराया और फिर
अपने इष्ट को बाहर से किया नमन
फिर आने का विचार कर
निकल गया किये सिर ऊँचे

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Thursday, October 09, 2008

इतिहास तो कूड़ेदान की तरह है-व्यंग्य आलेख

लोग कहते हैं कि इतिहास से सीखना चाहिये। किसी को कोई नया काम सीखना होता है तो उससे कहा जाता है पीछे देख आगे बढ़। यह शायद अंग्रेजों द्वारा बताया गया कोई तर्क होगा वरना समझदार आदमी तो आज वर्तमान को देखकर न केवल भूतकाल का बल्कि भविष्य का भी अनुमान कर लेता है और जो पीछे देख आगे बढ़ के नियम पर चलते हैं वह जीवन में कोई नया काम नहीं कर सकता।

इतिहास किसी न किसी के द्वारा लिखा जाता और लिखने वाला निश्चित रूप से अपने पूर्वाग्रहों के साथ लिखता है। इसलिये जो इतिहास हमें पढ़ाया जाता है वह एक तरह का कूड़ेदान होता है। उससे सीखने का मतलब है कि अपनी बौद्धिक क्षमता से दुश्मनी करना। जिनकी चिंतन, मनन और अध्ययन की क्षमता कमजोर होती है पर वही इतिहास पढ़कर अपना विचार व्यक्त करते हैं। तय बात है जिसने अपनी शिक्षा के दौरान ही अपनी चिंतन,मनन और अध्ययन की जड़ें मजबूत कर ली तो फिर उसे इतिहास की आवश्यकता ही नहीं हैं। न ही उसे किसी दूसरे के लिखे पर आगे बढ़ने की जरूरत है।

आये दिन अनेक लेखक और विद्वान इतिहास की बातें उठाकर अपनी बातें लिखते हैंं। ऐसा हुआ था और वैसा हुआ था। एतिहासिक व्यक्तियों के चरित्र की मीमांसा ऐसा करेंगेे जैसे कि वह भोजन नहीं करते थे या और कपड़े कोई सामान्य नहीं बल्कि दैवीय प्रकार के पहनते थे। उनमें कोई दोष नहीं था या वह सर्वगुण संपन्न थे। कभी कभी लोग कहते हैं कि साहब पहले का जमाना सही था और हमारे शीर्षस्थ लोग बहुत सज्जन थे। अब तो सब स्वार्थी हो गये हैं। कुछ अनुमान और तो कुछ दूसरे को लिखे के आधार पर इतिहास की व्याख्या करने वाले लोग केवल कूड़ेदान से उठायी गयी चीजों को इस तरह प्रस्तुत करते हैं जैसे वह अब भी नयी हों।

बात जमाने की करें। कबीर और रहीम को पढ़ने के बाद कौन कह सकता है कि पहले समाज ऐसा नहीं था। जब समाज ऐसा था तो तय है कि उसके नियंत्रणकर्ता भी ऐसे ही होंगे। फिर देश में विदेशी आक्रमणकारियों की होती है। कहा जाता है कि वह यहंा लूटने आये। सही बात है पर वह यहां सफल कैसे हुए? तत्कालीन शासकों, सामंतों और साहूकारों की कमियां गिनाने की बजाय विभक्त समाज और राष्ट्र की बात की जाती है। इस सवाल का जवाब कोई नहीं देता कि आखिर विदेशी शासकों ने इतने वर्ष तक राज्य कैसे किया? यहां के आमजन क्यों उनके खिलाफ होकर लड़ने को तैयार नहीं हुए।

इतिहास से कोई बात उठायी जाये तो इस पर फिर अपनी राय भी रखी जाये। हम यहां उठाते हैं महात्मा गांधी द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध प्रारंभ किये आंदोलन की घटना। दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेजों को जमीन दिखाने के बाद जब वह भारत लौटे तो उनसे यहां स्वाधीनता आंदोलन का नेतृत्व प्रारंभ करने का आग्रह किया गया। उन्होंने इस आंदोलन से पहले अपने देश को समझने की लिये दो वर्ष का समय मांगा और फिर शुरु की अपनी यात्रा। उसके बाद उन्होंने आंदोलन प्रारंभ किया। दरअसल वह जानते थे कि आम आदमी के समर्थन के बिना यह आंदोलन सफल नहीं होगा। अंग्रेजों की छत्रछाया में पल रही राजशाही और अफसरशाही का मुकाबला बिना आम आदमी के संभव नहीं था। आज भी भारत में गांधीजी को याद इसलिये किया जाता है कि उन्होंने आम आदमी की चिंता की। यह पता नहीं कि उन्होंने इतिहास पढ़ा था या नहीं पर यह तय है कि उन्होंनें इसकी परवाह नहीं की और इतिहास पुरुष बन गये। यह पूरा देश उनके पीछे खड़ा हुआ।

गांधीजी का नाम जपने वाले बहुत हैं और उनके चरित्र की चर्चा गाहे बगाहे उनके साथी करते हैं पर आम आदमी को संगठित करने के उनके तरीके के बारे में शायद ही कोई सोच पाता है। अपने अभियानों और आंदोलनों को जो सफल करना चाहते हैं उनको गांधीजी द्वारा कथनी और करनी के भेद को मिटा देने की रणनीति पर अमल करना चाहिये। हो रहा है इसका उल्टा।
गांधीजी के नारे सभी ने ले लिये पर कार्यशैली तो अंग्रेजों वाली ही रखी। इसलिये हालत यह है कि आम आदमी किसी अभियान या आंदोलन से नहीं जुड़ता।

बड़े बड़े सूरमाओें से इतिहास भरा पड़ा है पर वह हारे क्यों? सीधा जवाब है कि आम आदमी की परवाह नहीं की इसलिये युद्ध हारे। आखिर विदेशी आक्रमणकारी सफल कैसे हुए? क्या जरूरत है इसे पढ़ने की? आजकल के आम आदमी में व्याप्त निराशा और हताशा को देखकर ही समझा जा सकता है। पद, पैसे और प्रतिष्ठा मंें मदांध हो रहे समाज के शीर्षस्थ लोगों को भले ही कथित रूप से सम्मान अवश्य मिल रहा है पर समाज में उनके प्रति जो आक्रोश है उसको वह समझ नहीं पा रहे। महंगी गाड़ी को शराब पीकर चलाते हुए सड़क पर आदमी को रौंदने की घटना का कानून से प्रतिकार तो होता है पर इससे समाज में जो संदेश जाता है उसे पढ़ने का प्रयास कौन करता है। बड़े लोगों की यह मदांधता उन्हें समाज से मिलने वाली सहानुभूति खत्म किये दे रही है। देश की बड़ी अदालत ने शराब पीकर इस तरह गाड़ी चलाने वाले की तुलना आत्मघाती आतंकी से की तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिये। यह माननीय अदालतें इसी समाज का हिस्सा है और उनके संदेशों को व्यापक रूप में लेना चाहिये।

आखिर धन और वैभव से संपन्न लोग उसका प्रदर्शन कर साबित क्या करना चाहते हैं। शादी और विवाहों के अवसर पर बड़े आदमी और छोटे आदमी का यह भेद सरेआम दिखाई देता है। आजकल तो प्रचार माध्यम सशक्त हैं और जितना वह इन बड़े लोगों को प्रसन्न करने के लिये प्रचार करते हैं आम आदमी के मन में उनके प्रति उतना ही वैमनस्य बढ़ता हैं।

इतिहास में दर्ज अनेक घटनाओं के विश्लेषण की अब कोई आवश्यकता नहीं है। कई ऐसी घटनायें हो रही हैं जो इतिहास की पुनरावृति हैंं। एक मजे की बात है कि विदेशियों के विचारों की प्रशंसा करने वाले कहते हैं कि इस देश के लोग रूढि़वादी, अंधविश्वासी और अज्ञानी थे पर देखा जाये तो भले ही ऐसे लोगों ने विदेशी ज्ञान की किताबें पढ़ ली हों पर वह भी कोई उपयोगी नहीं रहा। कोई कार्ल माक्र्स की बात करता है तो कोई स्टालिन की बात करता और कोई माओ की बात करता जबकि उनके विचारों को उनके देश ही छोड़ चुके हैं। ऐसे विदेशी लोगों के संदेश यहां केवल आम आदमी को भरमाने के लिये लाये गये पर चला कोई नहीं। यही कारण है कि आम आदमी की आज किसी से सहानुभूति नहीं है। लोग नारे लगा रहे हैं पर सुनता कौन है? हर आदमी अपनी हालतों से जूझता हुआ जी रहा है पर किसी से आसरा नहीं करता। यह निराशा का चरम बिंदू देखना कोई नहीं चाहता और जो देखेगा वह कहेगा कि इतिहास तो कूड़ेदान की तरह है। टूटे बिखरे समाज की कहानी बताने की आवश्यकता क्या है? वहा तो सामने ही दिख रहा है।
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Sunday, October 05, 2008

जब मन की हलचल बेजार कर देती है-हिन्दी शायरी

दिल के अन्दर चलती हुई हलचल
जब बेजार कर देती है
तब कुछ शब्द लिखने को
हो जाता हूँ बेताब
यही एक रास्ता लगता है बचने के वास्ते
अपने अन्दर मच रहे कुहराम से
डर लगता है मुसीबत की नाम से
अगर अपनी सोच को
बाहर जाने का रास्ता नहीं दिखाता
तो बन जाता है जला देने वाला तेजाब

अपनी कविता लिखकर उबर आता हूँ
शब्दों को फूलों की तरह सहलाता हूँ
उनसे ज़माना उबर आयेगा
यह कभी ख्याल नही आता
कोई देगा शाबाशी
यह ख्याल भी नहीं भाता
अपनी बैचेनी से निकलना
भला किसी क्रांति से कम है
लोगों की क्या सोचें
उनको भ्रान्ति के ढेर सारे गम हैं
ख्वाहिशों की अंधे कुँए में
डूबते हुए लोग और
उसमें धँसने को तैयार हैं
आना कोई बाहर नहीं चाहता
दिखते जरूर हैं आज़ादी पाने को बेताब

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Tuesday, September 30, 2008

ऐसी बहस कोई अच्छा संदेश नहीं देती-आलेख

देश में आतंक के नाम पर निरंतर हिंसक वारदातें हो रहीं है पर आश्चर्य की बात यह है कि इसे धर्म,जाति,भाषा और क्षेत्रों से ना जोड़ने का आग्रह करने वाले ही इसे जोड़ते भी दिख रहे हैं. यह कैसे संभव है कि आप एक तरफ यह कहें के आतंकियों का कोई धर्म, भाषा और जाति नहीं है दूसरी तरफ उसी उनके समूहों की तरफ से सफाई भी देते फिरें. आश्चर्य की बात है कि अनेक बुद्धजीवी तो भ्रमित हैं. उनके भ्रम का निवारण करना तो बहुत कठिन है.

वैसे तो किसी भी प्रकार कि हिंसा को किसी धर्म,भाषा या जाति से जोड़ना ठीक नहीं पर कुछ लोग ऐसा कहते हुए बड़ी चालाकी से इनका आधार पर बने समूहों का वह प्रशस्ति गान करते हैं. तब फिर एक आम आदमी को यह कैसे समझाया जा सकता है कि इन अपराधिक घटनाओं को सहजता से ले. हालत तो और अधिक खराब होते जा रहे हैं पर कुछ बुद्धिजीवी अपनी बौद्धिक खुराक के लिए सतही विचारों को जिस तरह व्यक्त कर रहे हैं वह चिंताजनक है. उनके विचारों का उन लोगों पर और भे अधिक बुरा प्रभाव पडेगा जो पहले से ही भ्रमित है.

कुछ बुद्धिजीवी तो हद से आगे बाद रहे हैं. वह कथित रूप से सम्राज्यवाद के मुकाबले के लिए एस समुदाय विशेष को अधिक सक्षम मानते हैं. अपने आप में इतना हायास्पद तर्क है जिसका कोई जवाब नहीं है. वैसे तो हम देख रहे है कि देश में बुद्धिजीवि वर्ग विचारधाराओं में बँटा हुआ है और उनकी सोच सीमित दायरों में ही है. इधर अंतरजाल पर कुछ ऐसे लोग आ गए हैं जो स्वयं अपना मौलिक तो लिखते नहीं पर पुराने बुद्धिजीवियों के ऐसे विचार यहाँ लिख रहे हैं जिनका कोई आधार नहीं है. वैसे देखा जाए तो पहले प्रचार माध्यम इतने सशक्त नहीं थे तब कहीं भाषण सुनकर या किताब पढ़कर लोग अपनी राय कायम थे. अनेक लोग तब यही समझते थे कि अगर किसी विद्वान ने कहा है तो ठीक ही कहा होगा. अब समय बदल गया है. प्रचार माध्यम की ताकत ने कई ऐसे रहस्यों से परदा उठा दिया है जिनकी जानकारी पहले नहीं होती थी. अब लोग सब कुछ सामने देखकर अपनी राय कायम करते हैं। ऐसे में पुरानी विचारधाराओं के आधार पर उनको प्रभावित नहीं करती।

अमरीकी सम्राज्यवाद भी अपने आप में एक बहुत बड़ा भ्रम है और अब इस देश के लोग तो वैसे ही ऐसी बातों में नहीं आते। अमेरिका कोई एक व्यक्ति, परिवार या समूह का शासन नहीं है। वहां भी गरीबी और बेरोजगारी है-यह बात यहां का आदमी जानता है। अमेरिका अगर आज जिन पर हमला कर रहा है तो वही देश या लोग हैं जो कभी उसके चरणों में समर्पित थे। अमेरिका के रणनीतिकारों ने पता नहीं जानबूझकर अपने दुश्मन बनाये हैं जो उनकी गलतियों से बने हैं यह अलग रूप से विचारा का विषय है पर उसके जिस सम्राज्य का जिक्र लोग यहां कर रहे हैं उन्हें यह बात समझना चाहिये कि वह हमारे देश पर नियंत्रण न कर सका है न करने की ताकत है। अभी तक उसने उन्हीं देशों पर हमले किये हैं जो परमाणु बम से संपन्न नहीं है। उससे भारत की सीधी कोई दुश्मनी नहीं है। वह आज जिन लोगों के खिलाफ जंग लड़ रहा है पहले ही उसके साथ रहकर मलाई बटोर रहे थे। अब अगर वह उनके खिलाफ आक्रामक हुआ है तो उसमें हम लोगों का क्या सरोकार है?

अमेरिकी सम्राज्य का भ्रम कई वर्षों तक इस देश में चला। अब अमेरिका ऐसे झंझटों में फंसा है जिससे वर्षों तक छुटकारा नहीं मिलने वाला। इराक और अफगानिस्तान से वह निकल नहीं पाया और ईरान में भी फंसने जा रहा है, मगर इससे इसे देश के लोगों का कोई सरोकार नहींं है। ऐसे में उससे लड़ रहे लोगों के समूहों का नाम लेकर व्यर्थ ही यह प्रयास करना है कि वह अमेरिकी सम्राज्यवाद के खिलाफ सक्षम हैं। देश में विस्फोट हों और उससे अपराध से अलग केवल आतंक से अलग विषय में देखना भी एक विचार का विषय है पर उनकी आड़ में ऐसी बहसे तो निरर्थक ही लगती हैं। इन पंक्तियों का लेखक पहले भी अपने ब्लागों परी लिख चुका है कि इन घटनाओं पर अपराध शास्त्र के अनुसार इस विषय पर भी विचार करना चाहिये कि इनसे लाभ किनको हो रहा है। लोग जबरदस्ती धर्म,जातियों और भाषाओं के समूहों का नाम लेकर इस अपराध को जो विशिष्ट स्वरूप दे रहा है उससे पैदा हुआ आकर्षण अन्य लोगों को भी ऐसा ही करने लिये प्रेरित कर सकता है। दरअसल कभी कभी तो ऐसा लगता है कि आतंक के नाम फैलायी जा रही हिंसा कहीं व्यवसायिक रूप तो नहीं ले चुकी है। यह खौफ का व्यापार किनके लिये फायदेमंद है इसकी जांच होना भी जरूरी है पर इसकी आड़ में धर्म,भाषा और जातियों को लेकर बहस आम आदमी के लिये कोई अच्छा संदेश नहीं देती।
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Saturday, September 27, 2008

आश्वासन और सिंहासन का खेल-व्यंग्य आलेख

देश के बुद्धिजीवियों के लिये इस समय कुछ न कुछ लिखने के लिये ऐसा आ ही जाता है जिसमें उनको संकुचित ज्ञान को व्यापक रूप से प्रस्तुत करने का अवसर मिल जाता है। देश में निरंतर हो रही आतंकी घटनाओं ने विचाराधारा पर अनेक भागों में बंटे बुद्धिजीवियों को अपने दृष्टिकोण से हर हादसे पर विचार व्यक्त करने का अवसर दिया है। घटना से पीडि़त लोगो के परिवारों के हाल पर कोई नहीं लिख रहा पर हादसों के आधार पर बहसों के दौर शुरू हो गये हैं।

पिछले कई दिनों से लग रहा था कि विचाराधारा के आधार पर लिखने पढ़ने वालों के दिल लद गये और अब कुछ नवीनतम और सत्य लिखकर नाम कमाया जा सकता है पर हमारे जैसे लोगों के दिन न पहले आये और न आयेंगे। हम तो सामाजिक और वैचारिक धरातल पर जो समाज में कहानियां या विषय वास्तव में रहते हैं उस पर लिखने के आदी हैं। विचाराधारा के लोग न केवल पूर्वाग्रह से सोचते हैं बल्कि किसी भी घटना पर संबंधित पक्ष की मानसिकता की बजाय अपने अंदर पहले से ही तय छबि के आधार पर आंकलन कर अपना निष्कर्ष प्रस्तुत कर देते हैं। चूंकि समाज पर बड़े लोगों का प्रभाव है इसलिये उनके पास अपनी विचारधारा के आधार पर इन बुद्धिजीवियों का समूह भी रहता है। इन्हीं बड़े लोगों का सभी जगह नियंत्रण है और अखबार और टीवी चैनल पर उनके समर्थक बुद्धिजीवियेां को ही प्रचार मिलता है। ऐसे मेें शुद्ध सामाजिक एवं वैचारिक आधार वाले समदर्शी भाव वाले लेखक के लिये कहीं अपनी बात कहने का मंच ही नहीं मिल पाता।

इधर अंतर्जाल पर लिखना शुरू किया तो पहले तो अच्छी सफलता मिली पर अब तो जैसे विचारधारा पर आधारित सक्रिय बुद्धिजीवियों को देश मेंं हो रहे हादसों ने फिर अपनी जमीन बनाने का अवसर दे दिया। अब हम लिखें तो लोग कहते हैं कि तुम उस ज्वलंत विषय पर क्यों नहीं लिखते! हमने गंभीर चिंतन,आलेख और कविताओं को लिखा। मगर फिर भी फ्लाप! क्योंकि हम किसी का नाम लेकर उसे मुफ्त में प्रचार नहीं दे सकते। वैसे तो समाज को बांटने के प्रयासों के प्रतिकूल जब हमने पहले लिखा तो खूब सराहना हुई। वाह क्या बात लिखी! अब लगता है कि हमारे दिल लद रहे हैंं।
तब ऐसा लग रहा था कि समाज अब भ्रम से निकलकर सच की तरफ बढ़ रहा है पर हादसों ने फिर वैचारिक आधार पर बंटे बुद्धिजीवियों को अपनी बात कहने का अवसर दे दिया। यह बुद्धिजीवी बात तो एकता की करते हैं मगर उससे पहले समाज को बांट कर दिखाना उनकी बाध्यता है। उनके तयशुदा पैमाने हैं कि अगर दो धर्म, जातियों या भाषाओं के बीच विवाद हो तो एक को सांत्वना दो दूसरे को फटकारो। ऐसा करते हुए यह जरूर देखते हैं कि उनके आका किसको सांत्वना देने से और किसको फटकारने से खुश होंगे।

एकता, शांति और प्रेम का संदेश देते समय छोड़ मचायेंगे। इतिहास की हिंसा को आज के संदर्भ में प्रस्तुत कर अहिंसा की बात करेंगे।

जिस धर्म के समर्थक होंगे उसे मासूम और जिसके विरोधी होंगे उसके दोष गिनायेंगे। मजाल है कि अपने समर्थक धर्म के विरुद्ध एक भी शब्द लिख जायें। जिस जाति के समर्थक होंगे उसे पीडि़त और जिसके विरोधी हों उसे शोषक बना देंगे। यही हाल भाषा का है। जिसके समर्थक होंगे उसको संपूर्ण वैज्ञानिक, भावपूर्ण और सहज बतायेंगे और जिसके विरोधी हों तो उसकी तो वह हालत करेंगे जो वह पहचानी नहीं जाये।
मतलब उनका केंद्र बिंदु समर्थन और विरोध है और इसलिये उनके लेखक में आक्रामकता आ जाती है। ऐसे में समदर्शिता का भाव रखने वाले मेरे जैसे लोग सहज और सरल भाषा में लिखकर अधिक देरी तक सफल नहीं रह सकते। इनकी आक्रामकता का यह हाल है कि यह किसी को राष्ट्रतोड़क तो किसी को जोड़क तक का प्रमाणपत्र देते हैं। बाप रे! हमारी तो इतनी ताकत नहीं है कि हम किसी के लिये ऐसा लिख सकें।

इन बुद्धिजीवियों ने ऐसे इतिहास संजोकर रखा है जिस पर यकीन करना ही मूर्खता है क्योंकि इनके बौद्धिक पूर्वजों ने अपना नाम इतिहास में दर्ज कराने के लिये ऐसी किताबें लिख गये जिसको पढ़कर लोग उनकी भ्रामक विचाराधारा पर उनका नाम रटते हुए आगे बढ़ते जायेंं। ऐसा तो है नहीं कि सौ पचास वर्ष पूर्व हुए बुद्धिजीवी कोई भ्रमित नहीं रहे होंगे बल्कि हमारी तो राय है कि उस समय ऐसे साधन तो थे नहीं इसलिये अधिक भ्रमित रहे होंगे। फिर वह कोई देवता तो थे नहीं कि हर बात सच मान जी जाये पर उनके समर्थक इतने यहां है कि उनसे विरोधी बुद्धिजीवी वर्ग के ही लोग लड़ सकते हैं। समदर्शी भाव वाले विद्वान के लिये तो उनसे दो हाथ दूर रहना ही बेहतर है। अगर नाम कमाने के चक्कर में हाथ पांव मारे तो पता पड़ा कि सभी विचारधारा के बुद्धिजीवी कलम लट्ठ की तरह लेकर पीछे पड़ गये।
इतिहास के अनाचार, व्याभिचार और अशिष्टाचार की गाथायें सुनाकर यह बुद्धिजीवी समाज में समरसता का भाव लाना चाहते हैं। ऐसे में अगर किसी प्राचीन महान संत या ऋषि का नाम उनके सामने लो तो चिल्ला पड़ते हैं-अरे, तुझे तो पुराने विषय ही सूझते हैं।‘

अब यह बुद्धिजीवी क्या करते हैं उसे भी समझ लें
किसी जाति का नाम लेंगे और उसको शोषित बताकर दूसरी जाति को कोसेंगे। मतलब शोषक और और शोषित जाति का वर्ग बनायेंगे। फिर जायेंगे शोषित जाति वाले के पास‘उठ तू। हम तेरा उद्धार करेंगे। चल संघर्ष कर।’

फिर शोषक जाति वाले के पास जायेंगे और कहेंगे-‘हम बुद्धिजीवी हैं हमारा अस्तित्व स्वीकारा करो। हमसे बातचीत करो।’

तय बात है। फिर चंदे और शराब पार्टी के दौर चलते हैं। इधर आश्वासन देंगे और उधर सिंहासन लेंगे। अब अगर यह समाज को बांट कर समाज को नहीं चलायेंगे तो फिर इनका काम कैसे चलेगा।

ऐसे ही धर्म के लिये भी करेंगे। एक धर्म को शोषक बताकर उसे मानने वाले से कहेंगे-‘उठ तो अकेला नहीं है हम तेरे साथ हैं। उठ अपने धर्म के सम्मान के लिये लड़। तू चाहे जो गलती कर हम तुझे और तेरे धर्म को भले होने का प्रमाणपत्र देंगे।’

दूसरे धर्म वाले के पास तो वह जाते ही नहीं क्योंकि उसके लिये प्रतिकूल प्रमाणपत्र तो वह पहले ही तैयार कर चुके होते हैं। फिर शुरू करेंेगे इधर आश्वासन देने और उधर सिंहासन-यानि सम्मान और को पुरस्कार आदि-लेने का काम।’

मतलब यही है कि अब फिर वह दौर शुरू हो गया है कि हम जैसे समदर्शी भाव के लेखक गुमनामी के अंधेरे में खो जायें, पर यह अंतर्जाल है यहां सब वैसा नहीं है जैसा लोग सोचते हैं। यही वजह है कि लिखे जा रहे हैं। समदर्शिता के भाव में जो आनंद है वह पूर्वाग्रहों में नहीं है-अपने लेखन के अनुभव से यह हमने सीखा है। इसमें इनाम नहीं मिलते पर लोगों की वाह वाह दिल से मिलती है। अगर प्रकाशन जगत ने हमें समर्थन दिया होता तो शायद हम भी कहीं विचाराधाराओं की सेवा करते होते। ऐसी कोशिश यहां भी हो रही है पर यहां हर चीज वैसी नहीं है जैसे लोग सोचते हैं। सो लिखे जा रहे हैं। वैसे इन बुद्धिजीवियों का ज्ञान तो ठीक ठाक है पर अपना चिंतन और मनन करने का सामथर््य उनमें नहीं है। वैसे उनके आका यह पसंद भी नहीं करते कि कोई अपनी सोचे। हां, अब तो अंतर्जाल पर भी चरित्र प्रमाण पत्र बांटने का काम शुरू हो गया है। देखते हैं आगे आगे होता है क्या। यह आश्वासन और सिंहासन का खेल है हालांकि समाज का आदमी इसे देखता है पर उसका निजी जीवन अब इतना कठिन है कि वह इसमें दिलचस्पी नहीं लेता।

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Wednesday, September 24, 2008

इंसान का वहम-हिन्दी शायरी


हर शय की जिन्दगी की

कुछ कुछ न होती है मियाद

उसके बाद रह जाती है

बस जमाने में उसकी याद

फिर भी इंसान हमेशा

अपने बने रहने का रहता हैं गुमान

नहीं उसे अगले पल की सांस का अनुमान

बन जाता हैं अपने खुद ही भगवान

इसी वहम में गुजार देता हैं जिन्दगी कि

नहीं चलेगी यह दुनिया उसके जाने के बाद
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Tuesday, September 23, 2008

जब फिक्र ही कयामत लायी-हिंदी शायरी

पूरी उम्र फिक्र करते रहे
कयामत के खौफ और इंतजार की
पर वह नहीं आयी
आंखें तब खुलीं जब
फिक्र ही कयामत लायी
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उनका ‘बेफिक्र रहो’ कहने से ही

अपनी फिक्र बढ़ जाती है

क्योंकि फिर उनको हमारी याद नहीं आती

उनकी बेफिक्री बहुत डराती है

उनके लिये यह दो लफ्ज हैं

जिसकी जगह उनके दिल में ही नहीं होती

ऐसे में फिर फिक्र कहां दूर हो पाती है

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Monday, September 22, 2008

चालाकियों से ही राज्य चलता है-हास्य व्यंग्य कविता

शेर से उसके बच्चे ने पूछा
"हम राजा लोग इस जंगल में
चालाक लोमड़ को ही क्यों
मंत्री बनाते
जो सिवाय पेंतरेबाजी के
अलावा कुछ नहीं जानता
हमारे और अपने भले के
अलावा और कोई काम नहीं मानता
बाकी जनता पर तो बस अपनी अकड़ तानता''

शेर ने कहा
''राज्य चालाकियों से चलते हैं
भले से लोग भी कहाँ डरते हैं
जिन्दगी तो चलती है भगवन भरोसे
राजा का तो बस नाम है
मुसीबत में जनता उसे ही कोसे
इसलिए बचाव के लिए अपनी ताकत के अलावा
किसी चालाक का सहारा भी चाहिए
हाथी की अक्ल को कुंद कर उसे बैल बना दे
ऐसा कोई नारा चाहिए
लोमड़ करता है यही
हमारे लिए वही है सही
कमजोर जनता क्या, ताक़तवर होते हुए मैं भी उसे ही मानता
इसलिए उसकी हर बात पर लगा देता हूँ अंगूठा
पीढ़ियों से चला आ रहा है रिवाज़
इससे अधिक तो में भी नहीं जानता

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Sunday, September 21, 2008

आत्ममुग्ध लोगों की कमी नहीं इस जमाने में-व्यंग्य कविता

अपने मूंह से अपनी तारीफ़

लोग कुछ इस तरह किये जाते हैं

जैसे दुनियां में उनके नाम के ही

सभी जगह कसीदे पढे जाते हैं

आत्म मुग्ध लोगों की कमी नहीं

इस जमाने में

तारीफ़ के काबिल लोग

इसलिये किसी के मूंह से

अपने लिये कुछ अच्छे शब्द सुनने को

तरस जाते हैं

शायद इसलिये ही

चमक रहे आकाश में कई नाम

गरीब लोगों की भलाई के सहारे

फ़िर भी गरीबी से सभी हारे

क्योंकि भलाई एक नारा है

जिसके पांव ज़मीं पर नज़र नहीं आते हैं
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उनका दिल समंदर है

इसलिये ही ज़माने भर का माल

उनके घर के अंदर है

ज़माने भर की भलाई का ठेका लेते हैं

सारी मलाई कर देते हैं फ़्रिज़

छांछ पिला देते हैं अपने ही गरीब चाकरों को

जो उनकी नज़र में पालतू बंदर हैं

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Sunday, September 14, 2008

भारतीय भाषा दिवसःएक फ्लाप लेखक का विशेष संपादकीय

लोग आज इसे हिंदी दिवस कह रहे हैं पर एक हिंदी विद्वान का मत है कि इसे भारतीय भाषा दिवस के रूप में मनाना चाहिये क्योंकि हिंदी का अर्थ बहुत व्यापक है। ऐसी कई क्षेत्रीय भाषायें है जिनका लिखा साहित्य हिंदी का ही भाग माना जाता है। यह एक अलग विषय है पर हम यहां हिंदी के अंतर्जाल पर भावी स्वरूप पर विचार करें तो कई ऐसी संभावनायें दिखायीं देंगी जो दिलचस्पी पैदा करती है।

इस समय हिंदी के ब्लाग लेखकों को आम पाठक नहीं मिल रहे हैं पर इस बात की संभावना पूरी है कि जब रुचिकर लेखन होगा तो पाठक यहां आयेंगे और लेखक अपने स्वंतत्र अस्तित्व के साथ उनसे जुड़ेंगे जो अभी तक नहीं हुआ। ब्लाग पर लिखने के लिये थोड़ा हिंदी अंग्रेजी टाइपिंग का ज्ञान होना जरूरी है जो कि अधिकतर लेखकों को है। शेष कोई ऐसी बात नहीं है कि कोई सीख न सके। पाठकों का रुझान देखकर तो लग रहा है कि अपनी भाषा में पढ़नें की उनकी उत्कंठा बढ़ती जा रही है। प्रश्न है कि उनकी रुचियों के अनुरूप लिखा जाना चाहिये और फिर उसकी जानकारी भी वहां तक पहुंचना चाहिये।

वैसे अंतर्जाल पर कई बात पूरी तरह दावे से नहीं कही जा सकती क्योंकि अभी किसी ब्लाग लेखक को किसी के मुकाबले गुणात्मक बढ़त नहीं मिली यानि कोई ऐसा लेखक नहीं दिख रहा जिसने आम पाठक में अपनी पैठ अपने स्वतंत्र और मौलिक लेखन के जरिये बनाई हो। मेरे कुल बीस ब्लाग हैं पर मैं 12 ब्लाग को ही अपना अधिकृत ब्लाग मानता हूं और उन पर पाठकों की आवक सात सौ से आठ सौ के बीच है। हिंदी पत्रिका और ईपत्रिका प्रतिदिन डेढ़ सौ के ऊपर तक पहुंच जाती है। चार ऐसे ब्लाग है जिन पर सौ से अधिक पाठक आते हैं। वर्डप्रेस के ब्लाग तेजी से पाठक जुटाते हैं पर ब्लाग स्पाट के ब्लाग एकदम सुस्त हैं। पता नहीं इसके पीछे क्या वजह है? बहरहाल पाठकों की संख्या जिस तरह बढ़ रही है उससे एक बात तो लगती है कि मेरा अधिक से अधिक आम लोगों तक अपनी बात पहुंचाने का प्रयास आज नहीं तो कल सफल होगा।
एक खास बात जो अब तक के अनुभव लग रही है कि अंतर्जाल पर हिंदी कई रंग बदलती हुई ऊंचाई पर आयेगी। हो सकता है कुछ लोग इस बात से सहमत न हों पर कुछ ऐसा है जिसे अभी तक अनदेखा किया जाता है। सबसे बड़ी बात यह है कि आम लेखक को कहीं किसी प्रकार का समर्थन नहीं मिला पर ब्लाग पर उसे केवल पाठकों का ही समर्थन बहुत ताकत देगा। ब्लाग अपने आप में बहुत बड़ी ताकत रखता है यह बात मैंने तमाम प्रयोगों से जान ली है। अगर कोई ब्लाग लेखक पाठकों की अभिरुचि के अनुसार लिखने में सफल रहा और लोेग उसका आपसी बातचीत के जरिये ही प्रचार करने लगे तो वह किसी का मोहताज नहीं होगाा। यहां अपने प्रसिद्धि के लिये किसी की चिरौरियां करने की आवश्यकता नहीं हैं जैसा कि बाहर करना पड़ती है। यह अलग बात है कि यहां पहले से स्थापित कुछ लोगों का व्यवहार अब प्रकाशकों की तरह हो रहा है पर वह यह भूल रहे हैं कि ब्लाग का एक स्वतंत्र अस्तित्व है। हिंदी के ब्लागों को सर्वाधिक पाठक दिलवाने एक फोरम पर अंपजीकृत होने के बावजूद मेरे कुछ ब्लाग पर्याप्त संख्या में पाठक जुटा रहे हैं जो इस बात का प्रमाण है हिंदी का पाठक अपने लिये यहां कुछ ढूंढ रहा है। अभी महामशीन पर लिखा और अंपंजीकृत ब्लाग पर प्रकाशित एक पाठ अपने लिये एक दिन में पचास पाठक जुटा ले गया। उससे मुझे खुद आश्चर्य हुआ।

अभी अंतर्जाल पर पर सक्रिय लोगों में अधिकतरी केवल फोटो या यौन साहित्य में अधिक दिलचस्पी ले रहे हैं क्योंकि उनको यह पता ही नहीं है कि यहां सत् साहित्य लिखा जा रहा है। दूसरी जो महत्वपूर्ण बात है कि इन दोनों आधारों पर अधिक समय तक अंतर्जाल पर उनकी सक्रियता नहीं रहेगी और हो सकता है कि लोग टीवी और अखबारों की तरह इससे भी विरक्त हो जायें। स्वयं मैं भी कई बार विरक्त होकर इंटरनेट कनेक्शन कटवाने की सोचता हूं क्योंकि मैंने इस उद्देश्य से लिया था वह निकट भविष्य में पूरा होता नहीं दिख रहा। अगर हिंदी के पाठक अधिक होते तो शायद मैं ऐसा विचार नहीं करता। ऐसे में हिंदी में सत् साहित्य लिखते रहने का विचार इसलिये मन मेंे रहता है क्योंकि उसके दम पर ही अंतर्जाल का प्रयोग एक आदत के रूप में लोगों स्थापित किया जा सकता है जो कि दीर्घकालीन अवधि के लिये होगा। इसके लिये सवाल यह है कि लिखेगा कौन और पढ़ेगा कौन? पहले सत् साहित्य लिखा जाये कि पहले पढ़ने वाले जुटाये जायें। ऐसे में एक ही बात सही लगती है कि सत्साहित्य लिखो और फिर शांति से बैठ जाओ।

यहां सत् साहित्य लिखते जायें पर पाठक मिलें नहीं इससे कभी कभी मन ऊबने लगता है। पैसा तो यहां मिलने का प्रश्न ही नहीं है। फिर जो सक्रिय समूह हैं वह केवल आत्मप्रचार तक ही सीमित हैं और ब्लाग लेखकों को वह अपने साथ ऐसे जोड़े हुए हैं जैसे कि वह उनके अंतर्गत काम करने वाले व्यक्ति हों। यह सच है कि यही लोग अभी तक स्वतंत्र मौलिक लेखकों को प्रोत्साहित किये हुए हैं पर पाठकों का समर्थन अधिक न होने से इन पर निर्भर भी रहने से कई बार मानसिक संताप भी होता है। ऐसे में एक ही उपाय है कि अपने ब्लाग पर लिखते जायें और किसी की परवाह न करें। कम से कम टिप्पणियों का मोह छोड़ दें। वैसे मैं तो केवल स्वांत सुखाय ही यहां आया था पर टिप्पणियों के चक्कर में वह सब भूल गया। आज से यही सोचकर लिखना शुरू कर रहा हूं कि मुझे अब अकेले ही अपने रास्ते पर चलना चाहिये। इसलिये एक ब्लाग बना रहा हूं जहां सभी ब्लाग से चुनींदा रचनायें उठाकर वहां प्रकाशित करूंगा। इस ब्लाग को कहीं भी लिंक करने की अनुमति नहीं होगी। जिन लोगों को चुनींदा रचनायें पढ़नी हों वह वहीं आकर पढ़ें। अन्य ब्लाग पर भी नियमित लेखन में अब आम पाठकों के लिये रुचिकर लिखने का प्रयास जारी रहेगा। इस ब्लाग के तीस हजार पाठक पूरा होने पर यह दूसरा संपादकीय इसलिये लिख रहा हूं क्योंकि आज हिंदी दिवस है और मैंने यहां ब्लाग लिखने से पहले एक लेख में पढ़ी यह बात गांठ बांध ली है कि अपने ब्लाग पर कुछ न कुछ लिखते रहो। अभी फ्लाप है तो क्या कभी तो हिट होंगे। इस हिंदी दिवस-जिसे मै भारतीय भाषा दिवस भी कह रहा हूं-पर सभी ब्लाग लेखक मित्रों और पाठकों को बधाई।

Thursday, September 04, 2008

नव संपादकीय

आजकल जब अखबारों के सम्पादकीय पढ़ने को मिलते हैं तो ऐसा लगता है कि वह केवल समाचारों का विस्तार हैं और उनके संपादक के अपने कोई विचार नहीं हैं। कुछ संपादक तो ऐसे लिखते हैं जैसे वह केवल उसी सामग्री पर रोशनी डाल रहे हैं जो समाचारों में रहना शेष रह गयी है। ऐसे में किसी ऐसे संपादक की आवश्यकता अनुभव हो रही है जो अपनी बात को मौलिकता और स्वतंत्रता के साथ कह सके। इसी मद्देनजर यह पत्रिका लिखी जा रही है। चूंकि यह स्वतंत्र और निष्पक्ष विचार सामग्री के साथ ओतप्रोत होगी तो यह बात भी तय है कि इसके संपादक को संरक्षण की आवश्यकता होगी और इसके लिये धन की आवश्यकता होगी।
अभी इस पत्रिका के पाठक नगण्य है पर जब इसमें रुचिकर, निष्पक्ष और प्रभावी संपादकीय लिखी जायेगी तो लोग इसे पढ़ना चाहेंगे पर यह तभी संभव है कि पत्रिका और उसके पास आर्थिक सुरक्षा होगी। अंततः संपादकीय लिखना एक व्यवसायिक कार्य है और इसलिये कोई अगर इसके लिये तैयार हो तो ही यह संभव है कि इस पर लिखा जाये।
इसके दो तरीके हैं जो पाठक इसे पढ़ना चाहते हैं वह इसके लिये भुगतान करने को तैयार हो जायें तो उनके ईमेल पर यह लिखकर ब्लाग भेजा जायेगा या फिर कोई प्रायोजक जो अपना विज्ञापन देकर इसे अनुग्रहीत करना चाहे तो फिर इसे हमेशा खोलकर रखा जायेगा। अगर इसे केवल पाठक पढ़ना चाहते हैं तो उनके लिये कुछ घंटे तक ही खोला जा सकेगा और बाकी तो उनको ईमेल पर ही पढ़ने को मिल जायेगा।

Monday, July 14, 2008

आज से नया ब्लॉग

आज यह ब्लॉग आरंभ कर रहा हूँ

समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढ़ें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका


हिंदी मित्र पत्रिका

यह ब्लाग/पत्रिका हिंदी मित्र पत्रिका अनेक ब्लाग का संकलक/संग्रहक है। जिन पाठकों को एक साथ अनेक विषयों पर पढ़ने की इच्छा है, वह यहां क्लिक करें। इसके अलावा जिन मित्रों को अपने ब्लाग यहां दिखाने हैं वह अपने ब्लाग यहां जोड़ सकते हैं। लेखक संपादक दीपक भारतदीप, ग्वालियर

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