Wednesday, April 28, 2010

कसूर की सजा मिलती है-हिन्दी शायरी (kasoor ki sajaa-hindi shayari)

अपराध की कामयाबी से
तभी आदमी तक डोलता है
जब तक वह सिर चढ़कर नहीं बोलता है।
यह कहना ठीक लगता है कि
जमाना खराब है,
चमक रहा है वही इंसान
जिसके पास शराब और शबाव है,
मगर यह सच भी है कि
सभी लोग नहीं डूबे पाप के समंदर में,
शैतान नहीं है सभी दिलों में अंदर में,
भले इंसान के दिमाग में भी
ख्याल आता है उसूल तोड़ने का
पर कसूर की सजा कभी न कभी मिलती है जरूर
भला इंसान इस सच से अपनी जिंदगी तोलता है।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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Sunday, April 25, 2010

गरीब देश की पहचान मिटाने का विकल्प-हिन्दी व्यंग्य कविताऐं (gareeb desh ki pahachan mitane ka sankalp-hindi vyangya kavitaen)

देश की गरीबी ऐसी पहेली है
जिसे वह बूझ रहे हैं।
इसलिये वह बना रहे हैं नये राजा महाराजा,
बजायेंगे शराब पीकर और जुआ खेलकर
जो दुनियां के सामने तरक्की का बाजा,
उनके रहने के वास्ते
मशहूर जगहों पर
महल बनाने की तैयारी में
गरीबों को अपनी झौंपड़ियों समेत
दूरदराज इलाके में
खदेड़ने के लिये जूझ रहे हैं।
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देश की गरीबी मिटाने के लिये
उन्होंने लिया है संकल्प,
इसलिये चुना है गरीब को उजाड़कर
अमीर को चौराहे पर बसाने का विकल्प।
गरीब जनसंख्या में ज्यादा है, कहां तक उनको बचायेंगे,
फिर अहसान मानने के अलावा
वह भला किस काम आयेंगे,
जिनके महल बनने से शहर चमके
रहेगी देश की पहचान अमीर बनके,
जो चढ़ावें हर सौदे पर चढ़ावा,
मुफ्त में काम करने का न होने देते पछतावा,
सभी समाजसेवकों की है
ऐसे अमीरों के साथ की चाहत
जो संख्या में हों भले ही होते अल्प।
क्योंकि वही हैं गरीब देश की
पहचान मिटाने का विकल्प।
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Thursday, April 22, 2010

तरक्की के नाम पर-हिन्दी शायरी (tarakki ke nam par-hindi shayari)

अपने घर में जगह नहीं बची
अब परदेस में अपनी दौलत भरने लगे हैं,
कहने को तो अपने ही सगे हैं।
कमाने के नाम पर लूटा,
सारी तिजोरियां भर गयी
फिर अपनों से उनका विश्वास भी रूठा,
कभी कभी अपने होने का
दिखावा वह कर लेते हैं,
दान की दलाली के धंधे  में
समाज सेवा करते हुए
कमीशन से अपनी जेब भर लेते हैं,
उनकी अमीरी की चमक के सामने
आसपास की गरीबी दबी है विकास दर के नीचे
मजदूरी में मारे हिस्से से सजे हैं उनके घर के गलीचे
हार गयी है ईमानदारी
तरक्की के नाम पर बेईमानों के भाग्य सजे हैं।
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Thursday, April 15, 2010

बेबस इंसान सभी जगह रोता-हिन्दी शायरी (bebas insan sabhi jagah rota-hindi shayri)

वह इसलिये भोले नज़र आते हैं
क्योंकि उनकी चालाकियां कोई पकड़ नहीं पाया।
उनके घर के बाहर नाम पट्टिका पर
साहूकार लिखा है
क्योंकि उनकी चोरी कोई पकड़ नहीं पाया।
कौन उठायेगा उंगली उनके काम पर
पहरेदार को ही अपने घर लगाया।
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कितने भलमानस इस धरती पर
विचर रहे हैं
सभी अगर वादे के अनुसार काम करते तो
धरती पर स्वर्ग होता।
मगर गरीब, बेबस, और मजदूर के भले के नाम
कर रहा है कोई कत्ल तो कोई दलाली
उजाड़ रहे बाग़ बनकर माली
शैतानों ने फरिश्ते का मुखौटा ओढ़ा
बेबस इंसान तो सभी जगह रोता।
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Saturday, April 10, 2010

गरीबी, भुखमरी, शोषण तथा महंगाई समस्यायें नहीं बल्कि परिणाम हैं-हिन्दी लेख (economics thought for india-hindi article

अगर देश में व्याप्त भुखमरी, बेरोजगारी, बेबसी तथा भ्रष्टाचार से त्रस्तता को देखकर किसी भी क्षेत्र में हिंसा का समर्थन किया जायेगा तो यह समझ लीजिये मुद्दों से भटकाव की तरफ हम जा रहे हैं। मुश्किल यह है कि भुखमरी, बेरोजगारी तथा महंगाई समस्यायें नहीं बल्कि समस्याओं का दुष्परिणाम है। हमें भुखमरी, बेरोजगारी तथा महंगाई से सीधे नहीं लड़ना बल्कि जो कारण है उनकी तरफ देखकर जूझना है। कभी कभी तो लगता है कि संगठित प्रचार माध्यम--टीवी चैनल, रेडियो तथ समाचार पत्र पत्रिकायें-केवल प्रसिद्धि के आधार पर बुद्धिजीवियों के नामों का पैनल बनाकर चर्चा करते है यह जाने बिना कि उनकी शिक्षा का आधार क्या है? वह पत्र पत्रिकाओं के संपादकों, स्तंभकारों तथा समाज सेवकों की उनकी मूल शिक्षा के ज्ञान के बारे में जाने बिना ही उनके बयान छापते हैं। यही कारण है कि विज्ञान तथा कला स्नातक भी देश की आर्थिक समस्याओं पर बोलने लगते हैं।
हम बात कर रहे हैं नक्सलवाद की। कुछ मित्र ब्लाग लेखकों ने भी संगठित प्रचार माध्यमों के बुद्धिजीवियों जैसा ही लगभग रवैया अपना लिया है। वह नक्सलप्रभावित क्षेत्रों में फैली गरीब, भुखमरी और बेरोजगारी की स्थिति को हिंसक वारदातों से जाने अनजाने जोड़ने लगे हैं। इस लेख का मतलब उनपर आक्षेप करना नहीं बल्कि उनके सामने अपनी बात यह कहते हुए रखना है कि इन हिंसक वारदातों को करने वाले भले ही गरीब, भूखे और बेरोजगार के मसीहा बनने का प्रयास करते दिखते हों पर वास्तव में उनसे उसका कोई लेनादेना नहीं है। समाचारों का विश्लेक्षण करें तो शक होने लगता है कि जिन पूँजीवादी तत्वों द्वारा आदिवासी क्षेत्रों के दोहन के कारण अन्याय की बात करते हैं दरअसल उनसे चंदा लेकर उनका वर्चस्व बनाये रहते हैं।
एक ब्लाग पर पढ़ने को मिला कि अनेक शहरों में बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी तथा शोषण के शिकार लोगों के साथ नक्सली बैठकें कर रहे हैं। सवाल यह है कि इन बैठकों का क्या मकसद है? हथियार उठाकर शोषकों से निपटना।
यह एक धोखा है। अगर कथित मसीहा इतने ही ईमानदार हैं तो महंगी बंदूकें हाथ में देने की बजाय उनके हाथ में रोटी क्यों नहीं देते? वह अपने उगाहे चंदे से लघु उद्योग क्यों नहीं चलाते। पशुपालन में लिये लोगों को जानवर क्यों नहीं देते? सबसे बड़ी बात है कि पेयजल समस्या के हल के लिये हैंडपंप क्यों नहीं खुदवाते? कथित नक्सली संगठनों के आय के स्त्रोत किसी राज्य के मुकाबले कम नहीं लगते-यह बात अखबारों में छपी खबरों के आधार पर की जा रही है।
वह क्या चाहते हैं सरकार में आम जनता की भागीदारी। दुनियां का यह सबसे खूबसूरत धोखा है और इसके लिये चीन और रूसी बुद्धिजीवियों को इस देश में चर्चा के लिये आमंत्रित करना चाहिए।  तब यह पता लग जाएगा कि यह कभी पूरा न होने वाला सपना है। सच तो यह है कि अगर आप यह मानते हैं कि सारा विश्व पूंजीवाद का शिकार हो चुका है तो यकीन करिये इन नक्सली संगठनों को उससे बचा हुआ मानना अपने आपको धोखा देना है। अभी तक यह कोई नहीं बता सका कि इन नक्सली संगठनों के पास महंगे हथियार  , महंगी गाड़ियां तथा अवसर आने पर विदेश भाग जाने की सुविधा जुटाने के लिये पैसा कहां से आता है?
इसके अलावा एक बात दूसरी भी है कि नक्सलवाद कोई आज की समस्या नहीं है बल्कि बरसों से है। तब यह भी पूछा जाना चाहिये कि जहां यह नक्सलवाद है वहां की जनता क्या खुश है? यकीनन नहीं! यह नक्सलवादी किसी को रोटी या रोजगार तो दे नहीं सकते! अलबत्ता भय कायम कर दूसरे की आवाज दबा सकते हैं। इनके इलाकों में भूख, बेरोजगारी तथा बेबस लोगों की कमी नहीं है पर उनकी अभिव्यक्ति को बाहर लाने वाला कौन है? नक्सली लायेंगे  नहीं और निष्पक्ष प्रेषकों को वह अंदर आने नहीं देंगे। ऐसे में कथित रूप से कुछ प्रसिद्ध समाज सेवक वहां जाते हैं और वहां का दर्द आकर सुनाते हुए बताते हैं कि ‘भुखमरी, बेरोजगारी तथा शोषण के कारण वहां नक्सली अपना काम रहे हैं।’
तब सवाल यह है कि वहां नक्सलियों की उपस्थिति का औचित्य क्या है जब समस्यायें यथावत हैं। सीधा आशय यह है कि आप चाहे लाख सिर पटक लें कम से कम ज्ञान की चरम सीमा के निकट पहुंचे व्यक्ति को यह नहीं समझा सकते कि भूख, बेरोजगारी तथा शोषण की दवा गोली है और उसके चलाने वाले कोई प्रमाणिक चिकित्सक।
यह तो थी नक्सली हिंसा का सिद्धांत खारिज करने वाली बात। अब हम देश की हालतों पर चर्चा करें जिसका नक्सलवाद से कोई संबंध नहीं है। जिन्होंने अर्थशास्त्र पढ़ा है वह जानते हैं कि भारत की आर्थिक समस्यायें क्या हैं-बढ़ती जनसंख्या, अकुशल प्रबंध, रूढ़िवादिता तथा धन का असमान वितरण। इसका आशय यह है कि हमें अगर गरीबी, बेरोजगारी, शोषण तथा दमन जैसी बीमारियां भगानी हैं तो उनको पैदा करने वाली समस्याओं को दूर करना होगा। बढ़ती जनसंख्या का जिम्मा जनता का है। देश में अब भी आबादी का बढ़ना थम नहीं  रहा इसका मतलब यह है कि कम से कम इस विषय में  आम लोग ही इसके लिये जिम्मेदार हैं।
दूसरे नंबर पर आने वाली समस्या ‘अकुशल प्रबंध’ शायद पहली समस्या की भी जनक है। हम जिस भ्रष्टाचार की बात करते हैं वह इसी समस्या की देन है। मुश्किल यह है कि इस पर कोई ध्यान नहीं देता। अभी पिछले दिनों एक समाचार टीवी चैनलों पर दिखने के साथ अखबारों में भी छपा था कि 85 लाख टन गेंहूं एक गोदाम में सड़ रहा है। ऐसी एक नहंी अनेक घटनायें सामने आती हैं जिसमें यह बताया जाता है कि गोदामों में रखा गया अनाज सड़ गया। जब इनकी मात्रा की गणना करते हैं तब लगता है कि इस देश में अभी भी खाने वाले कम है। सड़ने से पूर्व ही यह अनाज गरीब और भूखों तक पहुंच जाये तो उनकी चालीस करोड़ की संख्या भी कम लगेगी। होना तो यह चाहिये कि इन जिन लोगों के पास इस अनाज को वितरण करने का निर्णय करने का अधिकार है वह ऐसी खबरों से उत्तेजित होकर निकल पड़ें और गोदामों से सामान निकालकर समस्याग्र्रस्त क्षेत्रों तक पहुंचायें। निजी क्षेत्र में अमीरों की संख्या कम नहीं है पर मुख्य मुद्दा यह है कि उनके मन में समाज का भला करने की चाहत नहीं है। हमारा अध्यात्मिक दर्शन दान की महिमा स्वर्ग दिलाने के लिये नहीं बल्कि सामाजिक समरसता स्थापित करने के लिये गाता है।
रूढ़िवादिता भी कम समस्या नहीं है। अनेक जगह लोगों ने अपने व्यवसायों के काम करने के तौर तरीकों में बदलाव नहीं किया। जमीन पर उनकी निर्भरता अधिक होने के कारण यह संभव नहीं है कि सभी को रोजगार दिया जा सके। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में पूंजीपतियों का प्रवेश रोकने से वहां का औद्योगिक विकास अवरूद्ध होता है। भले ही स्थानीय लोग जमीन न देना चाहें पर सच तो यह है कि वह उनके समूचे परिवार का पेट नहीं पाल सकती क्योंकि उनके काम करने का तरीका पुराना है। वैसे एक बात दूसरी भी है कि पश्चिम बंगाल में ऐसी घटनायें भी सामने आयीं जिसमें किसानों ने अपनी जमीन स्वेच्छा से बेची पर बाद में वह कम कीमत या शोषण का आरोप लगाकर मुकर गये क्योंकि उनको कथित समाजसेवकों ने अपने की कीमत अधिक लगाने को कहा। पश्चिम बंगाल से टाटा की नैनो कार उत्पादन करने की परियोजना हटने से वहां की जो साख गिरी वह कोई कम नहीं है। वैसे टाटा घराने के बारे में कहा जाता है कि वह शोषण नहीं करता और उनके वहां से पलायन के बाद ऐसा कोई प्रमाण भी वह समाजसेवक नहीं ला सके कि उन्होंने जमीन लेने के मामले में किसी को दबाया, धमकाया या कम कीमत दी। उस समय कथित समाजसेवक वहां गये पर जब टाटा ने वहां से परियोजना हटाई तो फिर उन्होंने अपने आंदोलन का औचित्य सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण पेश नहीं किया। इस तरह अनेक कथित मसीहा किसानों, गरीबों, मजदूरों और भूखों का हितैषी होने का दावा करते हैं पर कोई प्रमाण नहीं देते। हमारे कहने का आशय यह नहीं है कि पूंजीपति शोषण या धोखा नहीं देते पर सवाल यह है कि जो उनसे लड़ने का दावा करते हैं वह उसको उजागर करने में नाकाम क्यों रहते हैं?
इसमें दो राय नहीं है कि देश में गरीबी, महंगाई, भ्रष्टाचार, भुखमरी पर अंकुश करना जरूरी है वरना अपने आपको एकजुट रखना कठिन हो जायेगा। राजा या राज्य तभी तक अस्तित्व में रहते हैं जब तक जनता का विश्वास है। जब हम दावा करते हैं कि हम एक राष्ट्र हैं तो हमें यह सिद्ध करना होगा कि हम सभी एक दूसरे की फिक्र करते हैं। आजादी के साठ वर्ष बाद भी अगर हमारे अपने देश में इतने बड़े पैमाने पर बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, महंगाई, गरीबी, शोषण, दमन, बेरोजगारी तथा अशिक्षा का वर्चस्व है तो वह हमारे एक राष्ट्र होने पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। इसलिये इनको पैदा करने वाली समस्याओं-बढ़ती जनसंख्या, अकुशल प्रबंध, धन के असमान वितरण तथा रूढ़िवादिता-से निपटना है। नक्सलवाद और उनके समर्थक लाख दावा कर लें कि वह गोली से निपटेंगे पर सच यह है कि यह कम बुद्धिमानी से योजना बनाकर ही किया जा सकता है। अगर हम ऐसा नहीं करते तो देश के मजदूरों, गरीबों, शोषितों, दलितों तथा लाचार लोगों को बरगला कर हमारे देशी तथा विदेशी दुश्मन उनको हमारे सामने खड़ा करते रहेंगे। उनको मजबूर करेंगे कि वह उनके हथियार खरीद कर क्रांति लायें। इस तरह वह देश को संकट में डालकर बंधक बनाये रखेंगे। याद रखिये मुगल और अंग्रेजी इस देश में व्याप्त वैमनस्य का लाभ उठाकर ही यहां शासन करते रहे। कमजोर वर्ग उनका हथियार बना यह अलग बात है कि उनके हाथ कुछ आया नहीं और वह अपनी समस्याओं को ढोता हुआ आगे चलता रहा क्योंकि उसके दर्द का निवारण करना दुश्मनों की नीयत नहीं थी भले ही कारण वही बतलाया जाता रहा हो। लगभग यही स्थिति यहां अब भी दिखती है।
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Sunday, April 04, 2010

अनमोल तोहफ़ा-हिन्दी शायरी (anmol tohfa-hindi shayri)

तूफान जैसा क्यों
भागना चाहते हो,
हवा की तरह बहने में भी मजा आता है।
उम्र कम है तेजी से दोड़ने वालों की
बढ़ती गति के साथ
डोर टूट जाती है ख्यालों की
आसमान छूने की चाहत बुरी नहीं है
पर तारे हाथ आयें या चंद्रमा
पत्थर के टुुकड़ों या मिट्टी के
ढेर के अलावा हाथ क्या आता है।
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चमकता पत्थर हो या हीरा
देखने में एक जैसा नज़र आता है।
चमकती चीजों का वजूद
वैसे भी आंखों से आगे कहां जाता है।
पेट की भूख बुझाता अन्न,
गले की प्यास को हराता जल,
सर्वशक्तिमान का तोहफा है
मिलता है आसानी से इंसान को
शायद इसलिये अनमोल नहीं कहलाता है।
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Thursday, April 01, 2010

दौलत के खिलाड़ी-हिन्दी शायरी (daulat ke khiladi-hindi shayri)

दौलत के खिलाड़ी, दूसरों के जज़्बातों समझते नहीं,
जहां मौका मिलता है, गेंद समझकर खेलते हैं वहीं।
उनके मोहब्बत का पैगाम, होते हैं हमेशा एक धोखा,
फायदे के लिये नफरत उगलते उनको देर लगती नहीं।
कुछ पेट कम भर लेना, चीथड़े भी ओढ़ना अच्छा है,
अपने जज़्बातों का जनाज़ा निकलने कभी देना नहीं।।
थोड़ी हंसी की खातिर, जिदंगी का रोना भी मिलता है
दौलत के खिलाड़ी, दिल की दलाली भी करते हैं कहीं।
उनको अपने आसमानों का बोझ उठाये रहने दो
तुम्हारी हमदर्दी को भी, मजाक न समझ बैठें कहीं।

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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