समाजसेवा सौदे की दुकान खोले हैं, चंदे के धंधे में सभी के परिवार डोले हैं।
‘दीपकबापू’ कानों ने पाई लंगड़ी कुर्सी, अंधों में बैठ सोने का सिंहासन बोले हैं।।
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इष्ट का नाम लेकर ढोंगी भक्त करें घमंड, पूजा के लिये मांग रहे घूमकर फंड।
‘दीपकबापू’ सच्च भक्त बैठे एकांत में जाकर, नकली पकड़े हाथ में झूमते दंड।।
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सड़क का दर्द बंद कमरे में पढ़ते, विकास के पन्ने पर विनाश के शब्द चढ़ते।
‘दीपकबापू’ रोज सजे हमदर्दी की महफिल, सोच की राह नकली जज़्बात बढ़ते।।
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वाहन हाथ में पर चलाने की तमीज नहीं, दौड़ते जैसे सड़क पर दूसरी चीज नहीं।
‘दीपकबापू’ पैसे का जेब से ज्यादा सिर पर लादे, सोचें क्या अक्ल के बीज नहीं।।
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आंख ज़माने का द्वंद्व देखने में ही लगी हैं, नज़र अब पर्दा देखने के लिये जगी है।
‘दीपकबापू’ नहीं रखते वफा बेवफा का हिसाब, अपनी बही भी मतलब की सगी है।।
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सांसों से सुबह की ताजा हवा न लेना जाने, दोपहर की तेज धूप का दर्द न पहचाने।
‘दीपकबापू’ हकीम से दवाखाने तक करें सफर रोज, तंदुरस्ती के कायदे कभी न माने।।
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पाखंड से अपनी छवि हमेशा ताजा करते, जेब में चालाकी से सोने के सिक्के भरते।
‘दीपकबापू’ ईमानदारी के भेष में बेईमान, पहरे में खड़े लुटेरों दोस्ती का दंभ भरते।।
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हल्के शब्द बोलें दावा यह ख्याल गहरे हैं, त्यागी भेष दौलत के महल में ठहरे हैं।
महफिलों में ज़माने की भलाई के गीत गाते, ‘दीपकबापू’ अच्छे श्रोता वह जो बहरे हैं।।
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