Sunday, December 12, 2010

खैरख्वाहों के दो रंग-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (khairkhavahon ke do rang-hindi vyangya kavitaen)

कुछ खबरची
सत्ता की दलाली करते
पाये गये,
सफाई में
उन्होंने खबर लाने के लिये
अपनी जुगाड़ का बहाना बनाया।
सच है
आजकल सारे काम
नकाब ओढ़कर ही किये जाते हैं,
भलाई के काम भी
दलाली की रकम जोड़कर किये जाते हैं,
ज़माने के दोगले चरित्र की बात सुनते थे
अब खैरख्वाहों ने भी
दो चेहरों में अपना रंग जमाया।
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किसने कहा कलमकार
कभी दलाल नहीं होते,
सारे दलाल कलम से लिखी
अपनी बही साथ रखकर ही सोते।
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Sunday, December 05, 2010

ख्वाबी पुलाव और सपनों का गोश्त-हिन्दी कविता (khvab ke purlav aur sapanon ka goshta-hindi kavita)

व्यंग्य लिखने का
अब मन नहीं करता है,
क्योंकि आज का सच ही
अट्टाहास करने लगता है।
कमबख्त
बेईमानी और भ्रष्टाचार पर
अब क्या अफसाना लिखें,
सामने खड़े हैं
तलवार लेकर कातिल
उनको कैसे ताना कसते दिखें,
जिम्मा है जिन पर शहर का,
ठेका है उनके पास बहपाना कहर का,
क्या ख्वाबी पुलाव पकायें,
जब अपने सपनों का गोश्त
सरेआम बाज़ार में बिकता है।
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Tuesday, November 23, 2010

इंसानी मुखौटे-हिन्द व्यंग्य कविता (insani mukhaute-hindi shayari)

मुखौटे कभी शब्द बोलते नहीं है
शब्दों को तोलते नहीं नहीं है,
कातिल का राज खोलते नहीं हैं।
दौलत मंद और शोहरत वाले
अपने चेहरे पर दाग लगाना
पसंद नहीं करते,
ज़माने पर काबू करने का
दंभ भी भरते
इसलिये सिंहासन में बिठा देते हैं
इंसानी मुखौटे
चढ़ा देते हैं शिखर पर उन इंसानों को
जो उनके इशारों के बिना
डोलते नहीं हैं।
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Thursday, November 18, 2010

नीयत और भरोसा-हिन्दी शायरी (neeyat aur bharosa-hindi shari)

सफेद कपड़े पर भी
कभी न कभी दाग लग जाते हैं,
मगर फिर भी काली नीयत
ओढ़ते हैं
छिप जाता है उनका बदन
मगर उनके कारनामों का
अक्स चेहरे पर दिखाई देता है,
अपनी जुबां से भले ही झुठ बोले जाते हैं।
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अपनो से वादे कर
वह बन गये सिरमोर बन गये,
मगर बेचा भरोसा परायों को
और अपनों में दौलतमंद की तरह तन गये।
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Thursday, November 04, 2010

दीपावली पर्व का अध्यात्मिक महत्व-हिन्दी लेख (deepawali parava par ka vishesh lekh)

दीपावाली, दिवाली, दीवाली   दीपोत्सव और प्रकाश पर्व के नाम से यह त्यौहार परंपरा हमारे भारत में हर वर्ष सदियों से मनाई जाती रही है। मज़े की बात यह है कि श्रीराम, सीता और लक्ष्मण के वनवास समाप्ति के अवसर पर अयोध्या में आगमन पर उल्लास के रूप में मनाये जाने वाले इस पर्व पर लक्ष्मी की पूजा सर्वाधिक की जाती है और राम चरित्र की चर्चा बहुत कम ही होती है। इसके साथ इस तरह की अन्य मिथक कथायें भी हैं पर मूल रूप से यह श्रीराम के राज्याभिषेक के रूप में माना जाता है। दिपावली, दिवाली दीपोत्सव या प्रकाश पर्व के नाम से मनाऐ जाने वाले इस पर्व की सबसे बड़ी खूबी यह है कि सारे देश में एक ही दिन इसको मनाया जाता है। होली या अन्य पर्वों को पूरे भारत में एक तरह से न मनाकर अलग अलग ढंग से मनाया जाता है। देश ही नहीं वरन् विदेश में भी भगवान श्रीराम और सीता को याद कर लोग आनंदित होते हैं। वैसे देखा जाये तो भगवान श्रीराम के साथ भगवान श्रीकृष्ण भी लोगों के मन के नायक हैं पर उनको भारतीय सीमाओं के बाहर इस तरह याद नहीं किया जाता है। इसलिये ही जब भगवान श्रीराम की बात आती है तो कहा जाता है क वह तो सभी के हृदय के नायक हैं जबकि विश्व को तत्वज्ञान से अवगत कराने वाली श्रीमद्भागवत गीता को प्रकाशित करने वाले भगवान श्रीकृष्ण को इस रूप में स्मरण नहीं किया जाता है। भगवान श्रीराम के बारे में श्रीमद्भागवत गीता में एक जगह श्रीकृष्ण कहते भी हैं कि ‘धनुर्धरों में मैं राम हूं।’
धनुर्धर यानि पराक्रमी। पराक्रम की छबि में सक्रियता है-दूसरी तरह से कहें कि उसमें एक्शन है। एक्शन या सक्रियता को पसंद करने के कारण ही जनमानस में भगवान श्रीराम की छबि अत्यंत व्यापक हैं-हर वर्ग और आयु का मनुष्य उनको अपना आराध्य सहजता से स्वीकार करता है। भारतीय अध्यात्म और दर्शन में भगवान श्रीराम के हाथ से संपन्न अनेक महान कार्यों से तत्कालीन समाज में व्याप्त अन्याय और आतंक के विरुद्ध युद्ध में विजय को इस अवसर पर याद किया जाता है जिसमें अहिल्या उद्धार तथा रावण पर विजय अत्यंत प्रसिद्ध हैं। अधिकतर लोग राम को एक पराक्रमी योद्धा और मर्यादा पुरुषोत्तम होने की वजह से सदियां बीत जाने पर भी याद करते हैं तो जबकि बहुत कम लोग इस बात को जानते हैं कि उन्होंनें राजकाज चलाने के लिये भी बहुत प्रकार के आदर्श स्थापित किये थे। बनवास प्रवास के दौरान जब उनके भ्राता श्री भरत परिवार समेत मिलने आये थे तब भगवान श्री राम ने उनसे अनेक प्रश्न किये जिनमें राज्य चलाने की विधि शामिल थी। देखा जाये तो वह सभी प्रश्न राजकाज और परिवार चलाने के संदेश के रूप में भारत को ज्ञान देने के लिये किये गये थे। आज जब लोग राम राज्य की बात करते हैं तो उनको उस प्रसंग का अध्ययन अवश्य करना चाहिए। भगवान श्रीराम जब 14 वर्ष बनवास काटकर अपने गृह राज्य अयोध्या लोटे तो सभी आमजन प्रसन्न हुए थे। यह उनकी लोकप्रियता का प्रमाण था जिसे बिना सार्वजनिक उपकार की राजनीति किये बिना प्राप्त करना संभव नहीं है। साथ ही यह भी लोग उनके सम्मान के लिये स्वप्रेरित थे न कि प्रायोजित, जैसे कि आजकल के राजाओं के लिये एकत्रित होने लगे हैं।
आज आधुनिक लोकतंत्र में सभी देशों मंें अनेक ऐसे राजनेता काम कर रहे हैं जो राजनीति का कखग भी नहीं जानते बल्कि उनको अपराधियों, पूंजीपतियों तथा बाहुबलियों का मुखौटा ही माना जाना चाहिए। पश्चिमी देशों में कई ऐसे अपराधी गिरोह है जो वहां के राजनेताओं पर गज़ब की पकड़ रखते हैं। उनके पीछे ऐसे शक्तिसमूह हैं जिनके प्रमुख स्वयं अपने को राजकाज में शामिल नहीं कर सकते क्योंकि उनको अपने ही क्षेत्र में वर्चस्व बनाये रखने के लिये सक्रिय रहना पड़ता है। इसलिये वह राजनीति में अपने मुखौटे लाकर सामाजिक प्रभाव बनाये रखते हैं। सच कहें तो आधुनिक लोकतंत्र के नाम पर आर्थिक, धार्मिक, कला, साहित्य तथा समाज के शिखर पुरुष अपराधियों के साथ गठजोड़ कर राज्य को अपने नियंत्रण में कर चुके हैं। राजाओं, सामंतों और जागीरदारों के अत्याचारों की कथायें सुनी हैं पर आज जब पूरे विश्व में राज्य प्रमुखों, राजकीय कर्मियों तथा अपराधियों के वर्चस्व को देखते हैं तो उनकी क्रूरता भी कम नज़र आती है। पुराने समय के राजा लोग सामंतों, जमीदारों, साहुकारों तथा व्यापारियों से कर वसूल करते थे। इतना ही नहीं किसानों से भी लगान वसूल करते थे मगर वह किसी के सामने अपने राज्य या राजकीय व्यवस्था के अपनी आत्मक सहित गिरवी नहीं रखते थे। प्रजाहित में पुराने राजाओं के कामों को आज भी याद किया जाता है। मगर आज पूरे विश्व में हालत है कि चंदा लेकर आधुनिक राजा अपना राज्य, अपनी आत्मा तथा राज्य का हित दांव पर लगा देते हैं। ऐसे में बरबस ही राजा राम की याद आती है।
प्रसंगवश अयोध्या के राम मंदिर की याद आती है। राम के इस देश में अनेक मंदिर हैं। उससे अधिक तो उनका निवास अपने भक्तों के हृदय में है। कहने वाले तो कहते हैं कि न यह वह अयोध्या है न वही जन्म स्थान है जहां राम प्रकट हुए थे। यह गलत भी हो सकता है सही भी, पर सच यह है कि भगवान श्रीराम तो घट घट वासी हैं। उनके भक्त इतने अनन्य हैं कि उनके कल्पित होने की बात कभी स्वीकारी नहीं जा सकती। यही कारण है कि उनका चरित्र अब देश की सीमाओं के बाहर भी चर्चा का विषय बनता जा रहा है।
इस दीपावली के अवसर पर अपने सभी ब्लाग लेखक मित्रों तथा पाठकों को हार्दिक बधाई। यह दिपावली सभी के लिये अत्यंत प्रसन्नता लाये यह शुभकामनायें। आध्यात्मिक लोगों के लिये हर पर्व चिंतन और मनन के लिये प्रेरणा देता है। ऐसे में सामान्य लोगों से अधिक प्रसन्नता भी उनको होती है। जहां आमजन अपनी खुशी में खुश होता है तो आध्यात्मिक लोग दूसरों को खुश देकर अधिक खुश होते हैं। यही भाव सभी लोगों को रखना चाहिये जो कि आज के समय की मांग है और जिसके प्रेरक भगवान श्रीराम हैं।
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Friday, October 29, 2010

कविता दिखायें कि सुनायें-हिन्दी व्यंग्य कविता (kavita dikhayen ki sunayen-hindi satire poem)

कदम कदम पर धोखे की खबर,
घोटाले बढ़ रहे जैसे हो कि कोई रबड़,
किसको याद रखें किसे भूल जायें,
शोर के आदी हो गये लोग,
सुनने की कोशिश करते
जबकि घेर चुका है बहरेपन का रोग,
ऐसे में सोचते हैं कि अपनी
अभिव्यक्ति की कौनसी चुने अदायें,
कविता दिखायें कि सुनायें।
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गूंगे कविता कहेंगे,
बहरे ताली बजायेंगे जब सुनेंगे,
घोटाले ऐसे ही तो बुनेंगे।
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Friday, October 15, 2010

आम और खास वर्ग की हिन्दी अलग अलग दिखती है-हिन्दी लेख (aam aur khas varg ki hindi-hindi lekh)

भारत की खिल्ली उड़ाने वाले विदेशी लोग इसे ‘‘साधुओं और सपेरों का देश कहा करते थे। भारत के बाहर प्रचार माध्यम इसी पहचान को बहुत समय आगे बढ़ाते रहे पर जिन विदेशियों ने उस समय भी भारत देखा तो पाया कि यह केवल एक दुष्प्रचार मात्र था। हालांकि अब ऐसा नहीं है पर अतीत की छबि अभी कई जगह वर्तमान स्वरूप में विद्यमान दिखाई देती है। इससे एक बात तो मानी जा सकती कि आधुनिक प्रचार माध्यमों के -टीवी, समाचार पत्र पत्रिकाऐं- अधिकतर कार्यकर्ता जनमानस में अपनी बात स्थापित करने में बहुत सक्षम है। इसी क्षमता का लाभ उठाकर वह अनेक तरह के भ्रम मी सत्य के रूप में स्थापित कर सकते हैं और अनेक लोग तो करते ही हैं। इस साधु और सपेरों की छबि से देश मुक्त हुआ कि पता नहीं पर वर्तमान में भी भारत की छबि को लेकर अनेक प्रकार के अन्य भ्रम यही प्रचार माध्यम फैलाते हैं और जिनका प्रतिकार करना आवश्यक है।
अगर हम इस पर बहस करेंगे तो पता नहीं कितना लंबा लिखना पड़ेगा फिर यह भी तय नहीं है कि बहस खत्म होगी कि नहीं। दूसरा प्रश्न यह भी है कि यह प्रचार माध्यम कार्यकर्ता कहीं स्वयं ही तो मुगालतों में नहीं रहते। पता नहीं बड़े शहरों में सक्रिय यह प्रचार माध्यम कर्मी इस देश की छबि अपने मन की आंखों से कैसी देखते हैं? मगर इतना तय है कि यह सब अंग्रेजी शिक्षा पद्धति से संपन्न है और यहां की अध्यात्मिक ताकत को नहीं जानते इसलिये अध्यात्म की सबसे मज़बूत भाषा हिन्दी का एक तरह से मज़ाक बना रहे हैं और यह मानकर चल रहे हैं कि उनके पाठक, दर्शक तथा श्रोता केवल कान्वेंट पढ़े बच्चे ही हैं या फिर केवल वही उनके अभिव्यक्त साधनों के प्रयोक्ता हैं। मज़दूर गरीब, और ग्रामीण परिवेश के साथ ही शहर में हिन्दी में शिक्षित लोगों को तो केवल एक निर्जीव प्रयोक्ता मानकर उस पर अंग्रेजी शब्दों का बोझ लादा जा रहा है।
अनेक समाचार पत्र पत्रिकाऐं अंग्रेजी भाषा के शब्द देवनागरी लिपि के शब्द धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहे हैं-कहीं तो कहीं तो शीर्षक के रूप में पूरा वाक्य ही लिख दिया जाता है। यह सब किसी योजना के तहत हो रहा है इसमें संशय नहीं है और यह भी इस तरह की योजना संभवत तीन साल पहले ही तैयार की गयी लगती है जिसे अब कार्यरूप में परिवर्तित होते देखा जा रहा है।
अंतर्जाल पर करीब तीन साल पहले एक लेख पढ़ने में आया था। जिसमें किसी संस्था द्वारा रोमन लिपि में हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को लिखने के लिये प्रोत्साहन देने की बात कही गयी थी। उसका अनेक ब्लाग लेखकों ने विरोध किया था। उसके बाद हिन्दी भाषा में विदेशी शब्द जोड़ने की बात कही गयी थी तो कुछ ने समर्थन तो कुछ ने विरोध किया था। उस समय यह नहीं लगा था कि ऐसी योजनायें बनाने वाली संस्थायें हिन्दी में इतनी ताकत रखती हैं कि एक न एक दिन उनकी योजना ज़मीन पर रैंगती नज़र आती हैं। अब यह बात तो साफ नज़र आ रही है कि इन संस्थाओं में व्यवसायिक लोग रहते हैं जो कहीं न कहीं से आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक शक्ति प्राप्त कर ही आगे बढ़ते हैं। प्रत्यक्षः वह बनते तो हिन्दी के भाग्य विधाता हैं पर वह उनका इससे केवल इतना ही संबंध रहता है कि वह अपने प्रयोजको को सबसे अधिक कमा कर देने वाली इस भाषा में निरंतर सक्रिय बनाये रखें। यह उन लोगों के भगवान पिता या गॉड फादर बन जाते हैं जो हिन्दी से कमाने आते हैं। यह उनको सिफारिशें कर अपने प्रायोजकों के साथ जोड़ते हैं-आशय यह है कि टीवी, समाचार पत्र पत्रिकाओं तथा रेडियो में काम दिलाते होंगे। हिन्दी भाषा से उनका कोई लेना देना नहीं है अलबत्ता कान्वेंट मे शिक्षित  लोगों को वह हिन्दी में रोजगार तो दिला ही देते होंगे ऐसा लगता है। यही कारण है कि इतने विरोध के बावजूद देश के पूरे प्रचार माध्यम धड़ल्ले से इस कदर अंग्रेजी के शब्द जोड़ रहे हैं कि भाषा का कबाड़ा हुए जा रहा है। अब हिन्दी दो भागों में बंटती नज़र आ रही है एक आम आदमी की दूसरी खास लोगों की भाषा।
हिन्दी के अखबार पढ़ते हुए तो अपने ही भाषा ज्ञान पर रोना आता है। ऐसा लगता है कि हिन्दी भाषी होने का अपमान झेल रहे हैं। इससे भी ज्यादा इस बात की हैरानी कि आम आदमी के प्रति ऐसी उपेक्षा का भाव यह व्यवसायिक संस्थान कैसे रख रहे हैं। सीधी बात कहें तो देश का खास वर्ग और उसके वेतनभोगी लोग समाज से बहुत दूर हो गये हैं। यह तो उनका मुगालता ही है कि वह समाज या हिन्दी को अपने अनुरूप बना लेंगें क्योंकि इस देश का आधार अब भी गरीब, मज़दूर और आम व्यवसायी है जिसके सहारे हिन्दी भाषा जीवीत है। जिस विकास की बात कर रहे हैं वह विश्व को दिखाने तक ही ठीक हैं। उस विकास को लेकर देश के प्रचार माध्यम झूम रहे हैं उसकी अनुभूति इस देश का आम आदमी कितनी करता है यह देखने की कोशिश नहंी करते। उनसे यह अपेक्षा करना भी बेकार है क्योंकि उनकीभाषा आम आदमी के भाव से मेल नहीं खाती। वह साधु सपेरों वाले देश को दृष्टि तथा वाणी से हीन बनाना चाहते हैं। अपनी भाषा के विलुप्तीकरण में अपना हित तलाश रहे लोगों से अपेक्षा करना ही बेकार है कि वह हिन्दी भाषा के सभ्य रूप को बने रहने देंगे।
हिन्दी के कथित विकास के लिये बनी संस्थाओं में सक्रिय बुद्धिजीवी भाषा की दृष्टि से कितने ज्ञाता हैं यह कहना कठिन है अलबत्ता कहीं न कहीं अंग्रेजी के समकक्ष लाने के दावे वह जरूर करते हैं। दरअसल ऐसे बुद्धिजीवी कई जगह सक्रिय हैं और हिन्दी भाषा के लिये गुरु की पदवी भी धारण कर लेते हैं। उनकी कीर्ति या संपन्नता से हमें कोई शिकायत नहीं है पर इतना तय है कि व्यवसायिक संस्थानों के प्रबंधक उनकी मौजूदगी इसलिये बनाये रखना चाहते हैं कि उनको अपने लिये हिन्दी कार्यकर्ता मिलते रहें। मतलब हिन्दी के भाग्य विधाता हिन्दी के व्यववायिक जगत और आम प्रयोक्ता के बीच मध्यस्थ का कार्य करते हैं। इससे अधिक उनकी भूमिका नहीं है। ऐसे में नवीन हिन्दी कार्यकर्ता रोजगार की अपेक्षा में उनको अपना गुरु बना लेते हैं।
ऐसे प्रयासों से हिन्दी का रूप बिगड़ेगा पर उसका शुद्ध रूप भी बना रहेगा क्योंकि साधु और सपेरे तो वही हिन्दी बोलेंगे और लिखेंगे जो आम आदमी जानता हो। हिन्दी आध्यात्म या अध्यात्म की भाषा है। अनेक साधु और संत अपनी पत्रिकायें निकालते हैं। उनके आलेख पढ़कर मन प्रसन्न हो जाता है क्योंकि उसमें हिन्दी का साफ सुथरा रूप दिखाई देता है। अब तो ऐसा लगने लगा है हिन्द समाचार पत्र पत्रिकाऐं पढ़ने से तो अच्छा है कि अध्यात्म पत्रिकायें पढ़कर ही अपने हिन्दी भाषी होने का गर्व महसूस किया जाये। अखबार में भी वही खबरें पढ़ने लायक दिखती हैं जो भाषा और वार्ता जैसी समाचार एजेंसियों से लेकर प्रस्तुत की जाती है। स्थानीय समाचारों के लिये क्योंकि स्थानीय पत्रकार होते हैं इसलिये उनकी हिन्दी भी ठीक रहती है मगर आलेख तथा अन्य प्रस्तुतियां जो कि साहित्य का स्त्रोत होती हैं अब अंग्रेजीगामी हो रही हैं और ऐसे पृष्ठ देखने का भी अब मन नहीं करता। एक बात तो पता लग गयी है कि हिन्दी भाषा के लिये सक्रिय एक समूह ऐसा भी है जो दावा तो हिन्दी के हितैषी होने का है पर वह मन ही मन झल्लाता भी है कि अंग्रेजी में छपकर भी वह आम आदमी से दूर है इसलिये वह हिन्दी भाषा प्रचार माध्यमों में छद्म रूप लेकर घुस आया है। अंग्रेजी की तरह हिन्दी को वैश्विक भाषा बनाने का उसका इरादा केवल तात्कालिक आर्थिक हित प्राप्त करना ही है। वह हिन्दी का महत्व नहींजानता क्योकि आध्यात्मिक ज्ञान से परे हैं। हिन्दी वैश्विक स्तर पर अपने अध्यात्मिक ज्ञान शक्ति के कारण ही बढ़ेगी न कि सतही साहित्य के सहारे। ऐसे में हिन्दी की चिंदी करने वालों को केवल इंटरनेट के लेखक ही चुनौती दे सकते हैं पर मुश्किल यह है कि उनके पास आम पाठक का समर्थन नहीं है। 
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Friday, October 01, 2010

दर्द को नकदी में भुना रहे हैं-हिन्दी कविता (dard ko nakdi mein bhuna rahe hain-hindi poem

इंसानी बुत भी अब
प्रायोजित तोते की तरह बोलने लगे हैं,
जज़्बातों को सिक्कों में तोलने लगे हैं।
जुबां उनकी चलती है
पर लफ्ज़ों की फसल कहीं
दूसरे के दिल में पलती है,
यकीनों को बचाने के लिये
ऐसे ही किराये के अक्लमंद
नफरत का ज़हर घोलने लगे हैं।
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कभी दिल को जाना नहीं
उसके टूटने का ग़म
ज़माने को सुना रहे हैं,
दर्द को वह इस तरह
नकदी में भुना रहे हैं।
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Sunday, September 26, 2010

ज़हर और अमृत-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (zahar aur amrit-hindi vangya kavitaen)

सुनते हैं हर शहर में
दूध, दही और सब्जी के साथ
ज़हर बिक रहा है,
फिर भी मरने वालों से अधिक
जिंदा लोग घूमते दिखाई दे रहे हैं,
सच कहते हैं कि
पैसे में बहुत ताकत है
इसलिये नोटों से भरा है दिल जिनका
बिगड़ा नहीं उनका तिनका
बेशर्म पेट में जहर भी अमृत की तरह टिक रहा है।
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हलवाई कभी अपनी मिठाई नहीं खाते
फिर भी तरोताजा नज़र आते हैं।
बेच रहे हैं जो सामान शहर में
उनकी दवा और सब्जी शामिल हैं जहर में
कहीं न उनके मुंह में भी जाता है
मग़र गज़ब है उनका हाज़मा
ज़हर को अमृत की तरह पचा जाते हैं।
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Sunday, September 19, 2010

जांच और बहस-हिन्दी कविता (janch aur bahas-hindi kavita)

बेरहम कातिलों ने कर दिया
आम इंसान का सरेराह कत्ल
उसकी जांच जारी है,
पहरेदार ढूंढ रहे चेहरे
मगर अक्लमंदों की बहस बंद है,
वह खड़े इंतजार में जानने के लिये
कातिलों के नकाब का क्या रंग है
जब चल जायेगा तब ही तय होगा कि
चिल्लाने की अब किसकी बारी है।
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Sunday, September 12, 2010

पैसा जैसा नचायेगा-हिन्दी व्यंग्य कविता (paisa jaisa nachayega-hindi vyangya kavita)

लोगों को जो धर्म के नाम पर बहलाये
वह धर्म गुरु बन जायेगा,
अपनी कमर को चाहे जैसे लचकाये
वह अभिनेता बन जायेगा,
मुखौटा लगाये बुत की तरह कुर्सी पर सज जाये
वह शासक बन जायेगा,
बशर्ते किसी दौलतमंद को यह बताये
कि उसका बंदर बन जायेगा,
वैसे नाचेगा, उसका पैसा जैसा नचायेगा।
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Sunday, August 29, 2010

कोई ताज़ा खबर नहीं लगती-हिन्दी व्यंग्य कविता (akhbar aur taza-hindi vyangya kavita)

अखबार आज का ही है
खबरें ऐसा लगता है पहले भी पढ़ी हैं
आज भी पढ़ रहे हैं
इसलिये कोई ताज़ा खबर नहीं लगती।

ट्रेक्टर की ट्रक से
या स्कूटर की बस से भिड़ंत
कुछ जिंदगियों का हुआ अंत
यह कल भी पढ़ा था
आज भी पढ़ रहे हैं
इसलिये कोई ताज़ा खबर नहीं लगती।

भाई ने भाई ने
पुत्र ने पिता को
जीजा ने साले को
कहीं मार दिया
ऐसी खबरें भी पिछले दिनों पढ़ चुके
आज भी पढ़ रहे हैं
इसलिये कोई ताज़ा खबर नहीं लगती।

कहीं सोना तो
कहीं रुपया
कहीं वाहन लुटा
लगता है पहले भी कहीं पढ़ा है
आज भी पढ़ रहे हैं
इसलिये कोई ताज़ा खबर नहीं लगती।

रंगे हाथ भ्रष्टाचार करते पकड़े गये
कुछ बाइज्जत बरी हो गये
कुछ की जांच जारी है
पहले भी ऐसी खबरें पढ़ी
आज भी पढ़ रहे हैं
इसलिये कोई ताज़ा खबर नहीं लगती।

अखबार रोज आता है
तारीख बदली है
पर तय खबरें रोज दिखती हैं
ऐसा लगता है पहले भी भी पढ़ी हैं
इसलिये कोई ताज़ा खबर नहीं लगती।
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Wednesday, August 18, 2010

असुंदर सर्वशक्तिमान-हिन्दी लेख (asunder sarvashaktiman-hindi article)

कोई व्यक्ति कद काठी में ऊंचा हो, अपनी मांसपेशियों से शक्तिशाली दिखता हो, उसने सुंदर वस्त्र पहन रखे हों पर अगर उसके चेहरे पर काले धब्बे हैं आंखों में हमेशा ही निराशा झलकती है और बातचीत में निर्बुद्धि हो तो लोग उसके सामने आलोचनात्म्क बात न कहें पर पीठ पीछे उसके दुर्गुणों की व्याख्या करते है। तय बात है कि उसके शक्तिशाली होने के बावजूद लोग उसे पंसद नहंी करते। यही स्थिति समाजों, समूहों और राष्ट्रों की होती है।
न्यूज वीक पत्रिका के अनुसार दुनियां का सर्वशक्तिमान अमेरिका अब सर्वश्रेष्ठता में 11 वें स्थान पर खिसक गया है। भारत इस मामले में 78 वें नंबर पर है इसलिये उस पर हम हंस नहीं सकते पर जिन लोगों के लिये अमेरिका सपनों की दुनियां की बस्ती है उनके लिये यह खबर निराशाजनक हो सकती है। इस तरह की गणना शिक्षा, स्वास्थ्य, आर्थिक स्थिति, जीवन स्तर तथा राजनीतिक वातावरण के आधार पर की गयी है। यकीनन यह सभी क्षेत्र किसी भी देश के विकास का प्रतिबिम्ब होते हैं। हम जब अपने देश की स्थिति पर नज़र डालते हैं तो उसमें प्रशंसा जैसा कुछ नज़र नहीं आता। घोषित और अघोषित रूप से करोड़पति बढ़े हैं पर समाज के स्वरूप में कोई अधिक बदलाव नहीं दिखता।
सड़क पर कारें देखकर जब हम विकास होने का दावा करते हैं तो उबड़ खाबड़ गड्ढों में नाचती हुईं उनकी मुद्रा उसकी पोल खोल देती है। स्वास्थ्य का हाल देखें, अस्पताल बहुत खुल गये हैं पर आम इंसान के लिये वह कितने उपयोगी हैं उसे देखकर निराशा हाथ लगती है। आम इंसान को बीमार होने या घायल होने से इतना डर नहीं लगता जितना कि ऐसी स्थिति में चिकित्सा सहायता न मिल पाने की चिंता उसमें रहती है।
कहने का अभिप्राय यह है कि विकास का स्वरूप हथियारों के जखीरे या आधुनिक सुविधा के सामानों की बढ़ोतरी से नहीं है। दुनियां का शक्तिशाली देश होने का दावा करने वाला अमेरिका दिन ब दिन आर्थिक रूप से संकटों की तरफ बढ़ता दिखाई देता है मगर शायद उसके भारतीय समर्थक उसे समझ नहीं पा रहे। दूसरी बात हम यह भी देखें कि अधिकतर भारतीयों ने अपनी वहां बसाहट ऐसी जगहों पर की है जहां उनके लिये व्यापार या नौकरी के अवसरों की बहुतायत है। यह स्थान ऐसे क्षेत्रों में हैं जहां अर्थव्यवस्था और शिक्षा के आधुनिक केंद्र है। अमेरिका भारत से क्षेत्रफल में बढ़ा है इसलिये अगर कोई भारतीय यह दावा करता है कि वह पूरे अमेरिका के बारे जानता है तो धोखा दे रहा है और खा भी रहा है, क्योंकि यह लोग यहां रहते हुए भी पूरे भारत को ही लोग नहीं जान पाते और ऐसे ही दूरस्थ स्थानों के बारे में टिप्पणियां करते हैं तब अमेरिका के बारे में उनका ज्ञान कैसे प्रमाणिक माना जा सकता है।
इसके बावजूद कुछ भारतीय हैं जिनका दूरस्थ स्थानों मे जाना होता है और वह अपनी बातों के इस बात का उल्लेख करते हैं कि अमेरिका में कई ऐसे स्थान हैं जहां भारत जैसी गरीबी और पिछड़ेपन के दर्शन होते हैं। फिर एक बात दूसरी भी है कि जब हमारे देश में किसी अमेरिकन की चर्चा होती है तो वह शिक्षा, चिकित्सा, राजनीति, व्यापार या खेल क्षेत्र में शीर्ष स्तर पर होता है। वहां के आम आदमी की स्थिति का उल्लेख भारतीय बुद्धिजीवी कभी नहीं करते। जबकि सत्य यह है अपने यहां आकर संपन्न हुए विदेशियों से अमेरिकी नागरिक बहुत चिढ़ते हैं और उन पर हमले भी होते हैं इसके समाचार कभी कभार ही मिलते हैं।
इसका सीधा मतलब यह है कि भारतीय बुद्धिजीवी अमेरिका को स्वर्ग वैसे ही दिखाया जाता रहा है जैसे कि धार्मिक लोग अपने अपने समूहों को दिखाते हैं।
अमेरिका के साथ कनाडा का भी बहुत आकर्षण भारत में दिखाया जाता है जबकि यह दोनों इतने विशाल देश है कि इनके कुछ ही इलाकों में भारतीय अधिक तादाद में हैं और जहां उनकी बसाहट है उसके बारे में ही आकर्षण जानकारी मिल पाती है। जहां गरीबी, भ्रष्टाचार, अशिक्षा, स्वास्थ्य चिकित्साओं का अभाव तथा बेरोजगारी है उनकी चर्चा बहुत कम होती है।
इस विषय पर एक जोरदार चर्चा देखने को मिली।
अमेरिका से लौटे एक आदमी ने अपने मित्र को बताया कि ‘मैं अपने अमेरिका के एक गांव में गया था और वहां भारत की याद आ रही थी। वहां भी बच्चे ऐसे ही घूम रहे थे जैसे यहां घूमते हैं। वह भी शिक्षा का अभाव नज़र आ रहा था।’
मित्र ने पूछा-‘पर वह लोग तो अंग्रेजी में बोलते होंगे।’
मित्र ने कहा-‘हां, उनकी तो मातृभाषा ही अंग्रेजी है।’
तब वह आदमी बोला-‘अरे, यार जब उनको अंग्रेजी आती है तो अशिक्षित कैसे कहे जा सकते हैं।’
दूर के ढोल सुहावने होते हैं और मनुष्य की संकीर्णता और अज्ञान ही इसका कारण होता है। अमेरिका हो या भारत मुख्य समस्या प्रचार माध्यमों के रवैये से है जो आम आदमी को परिदृश्य से बाहर रखकर चर्चा करना पसंद करते हैं। अनेक लोग अमेरिकी व्यवस्था पर ही भारत को चलाना चाहते हैं और चल भी रहा है, ऐसे में जिन बुराईयों को अपने यहां देख रहे हैं वह वहां न हो यह संभव नहीं है। कुछ सामाजिक विशेषज्ञ तो सीधे तौर पर भौतिक विकास को अपराध की बढ़ती संख्या से जोड़ते हैं। हम भारत में जब विकास की बात करते हैं तो यह विषय भी देखा जाना चाहिये।
आखिरी बात यह कि दुनियां का सर्वशक्तिमान कहलाने वाला अमेरिका जब सामाजिक विकास के स्तंभ कहलाने वाले क्षेत्रों में पिछड़ गया है तो हम भारत को जब अगला सर्वशक्तिमान बनाने की तरफ बढ़ रहे हैं तो यकीनन इस 78 वें स्थान से भी गिरने के लिये तैयार होना चाहिए।
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Thursday, August 12, 2010

ईमानदारी का धब्बा-व्यंग्य कवितायें (imandari ka dhabba-satire poems in hindi)

अज़गर करे ना चाकरी
पंछी करे न काम
सबके दाता जो ठहरे राम,
असली खिलाड़ी कभी न खेले खेल,
निकाल लेते कमीशन में ही तेल
प्रतियोगिता के ठेके में कमाकर ही करते नाम।
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अपने ज़मीर में कभी
ईमान को नहीं पालना,
वरना उसे बेच नहीं पाओगे,
धोखे में बेच देना उसका नाम लेकर,
बेईमान कहलाने से बच जाओगे।
सच तो यह है कि
तरक्की की राह बहुत कठिन है,
न रहती रात याद, न रहता दिन है,
फिर बिना दौलत के कौन देता इज्जत,
अपने ईमान पर यकीन हो तो
अपने अंदर मूर्तिमान बनाकर रख लेना,
अपनी जरूरतों को भी कम कर देना,
तब बाज़ार में नहीं बिकेगा ज़मीर
मगर दुनियां और खुद को धोखा देने से बच जाओगे,
यह अलग बात है कि
ज़माने की नज़र में
ईमानदारी का धब्बा अपने नाम के आगे लगा पाओगे।
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Sunday, August 08, 2010

ताकत लगाते तारे जमीन पर लाने में-हिन्दी व्यंग्य कविता (taqat lagate tare zamin par lane men)

पेड़ की छाया भी सुख न दे सके, लोग लगे ऐसे तनाव लाने में।
घास भी पांव में छाले कर दे, ऐसे मैदान में लगे पांव बढ़ाने में।।
बुलंदियों को छूना चाहते सभी, ऊंचाई का पता नहीं किसी को,
बिना पंख आकाश में उड़ते, जिंदगी दांव पर होती भाग्य अजमाने में।।
कलम की कद्र नहीं करते, तलवार उठाते अपने हाथ में,
अपनी गर्दन कटवाते या काटते, नाक की झूठी इज्जत बचाने में।।
बहुत सी चीजों की तरह, हर आदमी भी उगा इस धरती पर
ढेर सारे तोहफे यहां, मगर ताकत लगाते तारे जमीन पर लाने में।
कुदरत ने अक्ल दी, इंसान के ढेर सारी बिना मोल के,
कहें दीपक बापू लोग उसे अमन की बजाय लगाते लड़ाने में।
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Wednesday, July 28, 2010

बंधी तलवार शैतान की कमर में-व्यंग्य कवितायें (badhi talwar shaitan ki kamar men)

मिटा रहे हैं निशान कमजोरों का
छिपा रहे है हर सबूत चोरों का।
क्या मिटायेंगे गरीबों की भूख,
ब्याज से घर सजा रहे सूदखोरों का।
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अमन का पैगाम दे रहे ज़माने भर में,
कातिलों की तस्वीर सजाई अपने धर में।
कसूर की सजाये केवलं कागज पर लिख ली,
मगर जिंदा हैं वही पहरेदार जी रहे जो डर में।
चौराहों पर होती है चर्चा हादसों पर जमकर,
खौफ जिंदा है, बंधी तलवार शैतान की कमर में।
सच से छिप रहे हैं, ज़माने को हिम्मत दिलाने वाले,
उनकी नाव हो जाती पार, कभी नहीं फंसी भंवर में।
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Thursday, July 22, 2010

खिताब, किताब और हिसाब-हिन्दी व्यंग्य कविताऐं (khitab,kitab aur hisab-hindi satire poem)

ज़माने में हर कोई एक दूसरे पर
बेवफाई का लगाता है इल्जाम,
सच यह है कि वफ़ा को
कोई नहीं पहचानता
भले ही रट रखा है उसका नाम।
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शोहदों को दे दिया
ज़माने ने बहादुर का खिताब,
लिखी जा रही है बेईमानों को
मशहूर करने के लिये उनके करतब पर किताब।
अदाकारों और शायरों पर
क्या इल्ज़ाम लगायें
सच यह है कि
र्इ्रमान की बात हर इंसान करता है
मगर खुद की जिंदगी में
अपनी मक्कारी करने और धोखा देने के
किस्सों का कोई नहीं रखता हिसाब।
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Sunday, July 18, 2010

झगड़ा जैसे रबड़-हिन्दी हास्य कविताएँ (hasya kavitaen in hindi)

दुनियां के लोग जिस तरह
र्दौलत और शौहरत के दीवाने हैं
उसे देखकर नहीं लगता कि
जाति, धर्म और भाषा के लिये होने वाले
झगड़े सच में हो पाते हैं,
कई चेहरे नकाब पहनकर
इधर भी लड़ते हैं तो उधर भी,
अमन के लिये जंग लड़ते हैं सभी
आम आदमी पहले उनमें मिक्स हो जाते हैं,
पर फिर उसी झगड़े को फिक्स पाते हैं।
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खबरची ने ऊंची आवाज में कहा
‘‘कल रात बहुत झगड़ा हुआ
कई लोग पिटे,
कई शीशे के सामान गिरकर मिटे,
पत्थर चले जमकर,
गालियां दी गयी तनकर,
आओ सुनो, मेरे पास पूरी खबर है।’’
आम आदमी ने कहा
‘‘पहले यह बताओ
इस झगड़े को किसने किया था प्रायोजित,
फिर बताना कहां और कब हुआ आयोजित,
आजकल के लोगों के इतनी दम कहां है कि
बिना पैसे खींच पायें झगड़ा जैसे रबड़।’’
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Tuesday, July 13, 2010

बाजा़र का नया महानायक ऑक्टोपस-हास्य व्यंग्य (bazar ka naya mahanayak octopas baba-hasya vyangya)

ऑक्टोपस बाबा की जय! संभव है कि उसकी लोकप्रियता का नाम भुनाने के लिये भारत में कोई बाबा अपना नाम यही रख ले और उसके चले चपाटे उसके लिये गाते रहें कि ऑक्टोपस बाबा की जय।
अब तो ऑक्टोपास के नाम पर अनेक प्रकार दुकानें खूब चल निकलेंगी क्योंकि 2010 का विष्व कप फुटबाल अपने मैचों की वजह से कम उसकी भविष्यवाणियों की वजह से अधिक लोकप्रिय हुआ। अब होना यह है कि कुछ समय बाद बाज़ार में ऑक्टोपस के नाम लिखे पेन, जूते, जींस, शर्ट तथा घड़ियों समेत तमाम चीजें बिकने लगेंगी। संभव है कि आने वाले समय में होटल ऑक्टोपस, ऑक्टोपस ऑटोमोबाइल, ऑक्टोपस फर्नीचर, ऑक्टोपस टेलर्स, ऑक्टोपस किराना मर्चेंट तथा ऑक्टोपस अस्पताल जेसे नाम सड़कों के किनारे दुकानों पर दिखने लगें। इस नाम के उपयोग का कोई पेंटेट भी नहीं है। फिर अपने देश भारत में विदेशी अंग्रेजी नामों का मोह वैसे भी बहुत है और अगर वह लोकप्रिय हों तो कहना भी क्या? कोई रायल्टी नहीं मांग सकता क्योंकि यह नाम एक समुद्री जीव का है जो बोल नहीं सकता, समझ नहीं सकता और सबसे बड़ी बात कि उस फुटबाल का फ तक नहीं जानता जिसके मैचों की सही भविष्यवाणी करने के लिये प्रसिद्ध हो गया है।
इसके भविष्यवाणी करने का तरीका भी विचित्र था। उसे एक कांच में रखा गया जहां उन देशों के झंडे के साथ खाने का डिब्बा रखा जाता था जिनके भविष्यवाणी के दिन मैच होते थे। जिसके साथ वाला वह डिब्बा खाता था मान लिया जाता था कि वह टीम जीतेगी। दावा किया जाता है कि ऐसा आठ बार हुआ और सात बार वही टीमें जीती जिसके साथ वाले झंडे का डिब्बा उसने खोलकर खाया। हालांकि इसमें तमाम तरह के पैंच भी हैं जिनकी चर्चा लोग करते हैं। एक तो यह कि विश्व कप फुटबाल में प्रत्येक दिन दो मैच होते थे पर ऑक्टोपस बाबा-इसे पॉल बाबा की कहा जाता है- भविष्यवाणी एक की ही करता था। दूसरा यह कि एक वक्त में दो झंडे ही लगाये जाते थे। इससे भविष्यवाणी के सच होने की संभावना पचास फीसदी होती थी-यह सट्टबाजी को बढ़ाने वाली बात लगती है। अगर चार झंडे लगाये जायें तो यह संभावना कम होती जाती। दूसरा इस विश्व कप फुटबाल कप प्रतियोगिता शुरू होने से पहले इसमें शामिल सभी देशो के झंटे लगाकर कोई एक डिब्बा क्यों नहीं खुलवाया गया ताकि उस समय विश्व कप विजेता का पता चल जाता।
बहरहाल अब यह मुद्दा महत्वपूर्ण नहीं रहा कि ऑक्टोपस की भविष्यवाणी सही निकली या उनमें कोई तयशुदा गड़बड़ी रही होगी। इधर तमाम तरह के आरोप भी लगते हैें कि मैचों में फिक्सिंग वगैरह भी होती है। कहीं ऑक्टोपस नाम को लोकप्रियता स्थापित कर बाज़ार तथा प्रचार माध्यम-तमाम तरह की उत्पादन तथा व्यवसायिक कंपनियां तथा टीवी चैनल और फिल्म उद्योग-अपने लिये कोई नया माडल तो नहीं बना रहे थे। क्योंकि इधर खेल, फिल्म, तथा टीवी में सक्रिय अभिनेताओं, अभिनेत्रियों तथा खिलाड़ियों के चेहरे लोगों के लिये बोरियत का कारण हो गये हैं इसलिये एक समुद्री जीव को प्रस्तुत किया जा रहा है ताकि बााज़ार पतियों के उत्पादन तथा सेवाओं के लिये विज्ञापन करने वाला नया चेहरा मिल जाये।
बहुत पहले एक अमेरिकी उपग्रह स्काइलैब जमीन पर गिरने वाला था। गिरने से तीन चार माह पहले तक उसका खूब प्रचार हुआ। उस समय टीवी की भूमिका अधिक नहीं थी पर रेडियो और अखबार उसके गिरने का खूब प्रचार कर रहे थे। यह प्रचार इस ढंग से हो रहा था कि जैसे उससे पूरी दुनियां नष्ट हो जायेगी। जगह जगह लोग उसकी चर्चा करते रहे। जिस दिन वह गिरा तो समुद्र ने उसे आगोश में ले लिया और किसी का बाल भी बांका नहंी हुआ। तब लोगों को अफसोस हुआ और सभी सोच रहे थे कि ‘मरे ने एक भी आदमी नहीं मारा।’
ऐसा लगता है कि उस समय बाज़ार और प्रचार प्रबंधकों ने बहुत कुछ सीखा जो बाद में अन्य प्रचार अभियानों में काम आया। वह स्काईलैब इतना खतरनाक प्रचारित किया गया कि जैसे परमाणु बम गिरने वाला है मगर उसके बाद क्या हुआ। जूते, साड़ियां, खिलौने, तथा अन्य अनेक बस्तुऐं उसके नाम से बाज़ार में बिकीं।
ऑक्टोपस महाराज का नाम भी कुछ इस तरह से बाज़ार में आयेगा। संभव है कि अमेरिकी फिल्म निर्माता इस विषय पर कोई अच्छी कहानी गढ़कर फिलम बनायें और उसकी नकल हिन्दी में आ जाये। अलबत्ता इनमें अंतर इतना हो सकता है कि हिन्दी फिल्मों में ऐसे ऑक्टोपस को अभिनय-यकीनन वह लकड़ी , प्लसिटक, रबड़ या लोहे से आधुनिक की सहायता से बनेगा-करने वाले पुतले को गाता हुआ दिखाना पड़ सकता है क्योंकि इसके बिना हिन्दी फिल्में चलती नहीं हैं। चूंकि वह जीव मनुष्य रूप में नहीं हो्रगा तो संभव है कि उसके अभिनय के समय पार्श्व में गीत संगीत का जोड़कर उसे प्रस्तुत किया जाये।
पूर्वकाल में बाजा़र के क्रय विक्रय के दायरे अत्यंत सीमित थे इसलिये वस्तुओं के प्रचार की वैसी आवश्यकता नहीं होती थी। दूसरी बात यह थी आदमी केवल जीवन यापन के लिये अधिक वस्तुऐं खरीदता भी नहीं था। इसलिये जहां जरूरत की चीजें मिलती ग्राहक स्वयं चलकर वहां जाता था मगर आज समय बदल गया है। सीधी बात कहें तो अनावश्यक चीजों के उपयोग की पृवुति ने मनुष्य को विलासी बना दिया है। उसकी जरूरतों में कई चीजें ऐसी हैं जो उसे न भी मिलें तो कुछ नहीं बिगड़ेगा पर बाज़ार ने प्रचारतंत्र को इस तरह अपनी पकड़ में कर रखा है कि वह विलासिता की चीजों को भी मूलभूत आवश्यकता बताता है। ऐसे में ऑक्टोपस महाराज उसके लिये एक महानायक बन सकता है जो हर जगह नयी नयी चीजें-अजी, नयी क्या एक तरह से कहें कि रूप बदलकर नये ढंग से प्रस्तुत की जायेंगी-बेचने आ सकता है।
आधुनिक व्यापार आजकल कल्पित महानायकों के सहारे हैं। उसके द्वारा पाले गये प्रचार तंत्र ने क्रिकेट, फिल्म ओर टीवी के धारावाहिकों में सक्रिय पात्रों को महानायक बना रखा है जो विज्ञापनों में अभिनय कर आम आदमी के अंदर के विवेक को पूरी तरह से हर लेते हैं। आम आदमी स्वयं महानायक बनना चाहता है पर नहीं बन पाता पर इन महानायकों की बतायी चीजों का उपयोग कर वह अपवे को महानायक होने का कुछ देर सुखद अहसास दिलाकर तसल्ली पा लेता है। सो अब इस नये महानायक ऑक्टोपस महाराज की जय।
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Friday, July 09, 2010

मखमली विकास तथा अभावों का पैबंद-हास्य कविताएँ (vikas aur abhav-hasya kavitaen)

मखमली विकास तक ही
उनकी नज़र जाती है,
जहां पैबंद लगे हैं अभावों के
वहां पर आंखें बंद हो जाती हैं।
देसी गुलामों का नजरिया
विदेशी शहंशाहों को यहां गिरवी हैं,
जहां दलाली मिलती है
वहां जुबान दहाड़ती है
नहीं तो तालू से चिपक जाती है।
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हिन्दी में सनसनी खेज खबर भी
अंग्रेजी अखबार से ही क्यों आती है,
जो हिन्दी में हो
वह सनसनी क्यों नहीं बन पाती है।
शायद डरे हुए हैं बंधुआ कलम मजदूर
उनकी कमजोरी शायरी
परायी भाषा में छिप जाती है।
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Saturday, July 03, 2010

कलंक-हास्य कविता

समाज सेवक ने अपने पुराने चमचे को बुलाया
और कहा
‘क्या बात है
इतने दिनों से लापता हो
कभी अपना चेहरा नहीं दिखाया,
भूल गये वह समय जो हमने
तुम्हारे साथ बिताया,
अरे, कुछ इज्जत करो हमारी
तो बन जायेगी जिंदगी तुम्हारी
वरना जिंदगी में कुछ हाथ नहीं आयेगा।’
चमचे ने कहा
‘हुजूर छोटे के अगाड़ी
बड़े के पिछाड़ी नहीं चलना चाहिये
आपकी संगत में यही बात समझ में आयी
जब तक नहीं जमी थी
आपकी समाज सेवा की दुकान
तब तक ही पाते रहे सम्मान
जब मिलने लगा आपको ढेर सारा चंदा,
हमें भूल कर याद रहा बस आपको धंधा,
घर से बाहर निकले कार में,
अपने कुनबे को ही लगा लिया
ज़़माने की भलाई के व्यापार में,
सुना है किसी प्रकरण में
आपकी चर्चा भी अखबार में आई,
सिमट सकती है आपकी दुकान
शायद इसलिये आपको मेरी याद आई,
मगर हमें माफ करियेगा
अब नहीं निभेगी आपके साथ
हमने पाया आपकी संगत से बुरा अहसास,
नहीं करना चाहिए बड़े इंसानों से कोई आस,
सारे दाग मिट जायेंगे किसी भी साबुन से
पर किसी के चमचे बने तो
ऐसा कलंक कभी नहीं मिट पायेगा।’
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Saturday, June 05, 2010

श्वान पर गोली-हिन्दी हास्य व्यंग्य (bullet on dog-hindi hasya vyanga)

उस बालक ने श्वान पर ही प्रस्तर प्रहार किया था। जब बालक श्वान पर प्रहार करने वाला था तो उसने देख लिया और भाग गया। बालक का निशाना भी कोई अचूक नहीं था और वह हमारे साइकिल के बीचों बीच निकल कर पास से निकल रहे एक स्कूटर को जा लगा।
स्कूटर चालक के साथ एक महिला भी थी जो संभवत उसकी पत्नी रही होगी। स्कूटर वाला आगे जाकर रुका और चिल्लाया-‘ऐ किसने फैंका यह पत्थर?’
पांच से सात वर्ष का वह बालक सहमा हुआ उसे देख रहा था। स्कूटर चालक उतर कर उसके पास आया और बालक को संबोधित कर बोला-‘दूं एक थप्पड़! क्यों मारा पत्थर?’
बालक सहमते हुए अब भी उसे निहार रहा था। इतने में पास ही से ईंटों की कच्ची झौंपड़ी से उस बालक की मज़दूर मां निकल कर आयी और बोली-‘बाबूजी, यह पत्थर यह अक्सर उस कुत्ते को मारता है जो एक बार इसके पीछे दौड़कर काटने की कोशिश कर चुका है। यह गोली खरीदने जा रहा था तो वह यहीं सोया हुआ था, इसलिये उसे भगाने के लिये यह पत्थर मारा था। अब वह कुत्ता तो भाग गया।’
स्कूटर चालक ने कहा-‘आइंदा ध्यान रखा करो। किसी को लग जाये तो, या फिर उसकी वजह से किसी की गाड़ी का संतुलन बिगड़ा तो कितनी परेशानी होगी।’
बीच में हमने भी बोला दिया कि ‘हां, इसने उस कुत्ते पर ही पत्थर फैंका था!
इस कहानी में ऐसा कुछ नहीं है कि लिखा जाये मगर जब किसी संत के आश्रम के पास गोली चलकर उसके आश्रम पहुंची हो और भक्त अपने गुरु पर चलाई बता रहें तो यह कहानी याद आनी ही थी।
जीवन की कला सिखाने वाले संत! सारी दुनियां को जीवन शांति से बिताना सिखाने वाले संत अपने पड़ौसियों को नहीं सिखा पाते कि पशुओं को भी शांति से जीने का हक है। इसे कहते है कि घर का ज्ञानी बैल बराबर!
कहां संत कहां श्वान! भक्तों को गुस्सा आ सकता है। जिस समय उपरोक्त कहानी की पात्र महिला मज़दूर मां ने अपनी स्कूटर चालक से कहा कि ‘इस बच्चे ने तो कुत्ते को पत्थर मारा था’ तब वह दूर स्कूटर के पास खड़ी अपनी पत्नी की तरफ निहारा था कि कहीं वह सुन तो नहंी रही। एक पत्थर जो कुत्ते की तरफ उछाला जाये और आदमी को लगे तब घायल होने पर भी शायद उसे इतना बुरा न लगे पर उससे बड़ा घाव तो उसके दिल पर इस बात से होगा कि वह कुत्ते के लिये उछाला गया था। जब स्कूटर चालक चला गया तो हमने उसकी सहनशीलता की मन ही मन तारीफ की। साथ में उस मज़दूर महिला के सच बोलने पर भी गुस्सा आ रहा था। वहां एक गाय, बकरी, मुर्गी और भैस के अलावा एक बैल भी था। वह कह सकती थी कि ‘गाय को मारा है।’ इस नाम में पवित्रता है और कोई बुरा नहीं मानता। कुत्ता शब्द पर वह स्कूटर चालक गुस्से में लड़को एक दो हाथ भी जड़ सकता था। उसने ऐसा नहीं किया यह उसकी महानता थी।
जीवन की कला सिखाने वाले संत के आश्रम के पीछे ही उसके पड़ौसी के भेड़ पालने का आश्रम है-अब हिन्दी में फार्म हाउस का अनुवाद पता नहीं है सो यही ठीक लगता है-जहां श्वान उसके पालतुओं पर आक्रमण करते रहते हैं जिनको भगाने के लिये उसने पिस्तौल से एक नहीं दो गोलियां चलाईं।
जांच अधिकारी उसकी बात से संतुष्ट नज़र आ रहे हैं। इधर संत श्री की बात भी सच नज़र आ रही है कि उन्होंने गोली की आवाज़ सुनी थी। उन्होंने शायद पहली गोली की आवाज सुनी थी पर जो उनके भक्त के पास गयी वह शायद दूसरी गोली थी जो कुछ अंतराल के बाद चली होगी। लोगों ने पहले इस बात पर संदेह जाहिर किया था कि संत के मंच पर रहते हुए गोली हो। मंच पर जब वह थे तब पहली गोली होगी पर उनके भक्त के पास पहुंची दूसरी गोली ने ही सबसे अधिक बवाल मचाया।
इस गोली पर जितनी बहस हुई अब उस पर हंसना ही चाहिए। धर्म, जाति, भाषा, तथा वर्ग के आधार पर अनेक प्रकार के आतंकवाद पर बहस हो गयी। अब तो संत भी सुरक्षित नहीं है जैसी बात कही गयी। अब तो ऐसा लगता है कि आज़ादी के बाद जितनी भी बहसें होती रही हैं सब बेकार हैं। कभी कभी तो लगता है कि एशियाई देशों में बढ़ती जनसंख्या को संभालना कठिन है इसलिये यहां के देशों के आर्थिक, सामाजिक तथा धार्मिक शिखर पुरुष बेकार की बहसों के लिये अपने अनुयायी नियुक्त करते हैं जिनको बुद्धिजीवी भी कहा जाता है। इतना ही नहीं इनके लिये बहस के नाटक वास्ते वह मुद्दे लाने के लिये कहीं खेल तो कहीं हादसे भी कराते हैं ताकि लोग भ्रामक मुद्दों में उलझे रहें। अभी पश्चिम से पुरस्कार प्राप्त एक लेखिका नक्सलवादियों का खुलेआम समर्थन कर रही है। सवाल यह है कि संगठित प्रचार माध्यम उसे छाप क्यों रहे हैं? तय बात है कि संगठित प्रचार माध्यम भी कहीं न कहीं शिखर पुरुषों पर आश्रित हैं और उनको पता है कि ऐसे पुरस्कार विजेता उनके लिये बहस का सामान प्रयोजित करने वाले कारिंदे हैं अतः आगे उनके विरोधियों से लिखवाने के लिये ऐसे मूर्खतापूर्ण बयान छापना जरूरी है।
बात उससे भी आगे हैं! वह विदेश से मान्यता प्राप्त है तो उसका दूर दिया गया बयान छाप देते हैं और हमारे तीन तीन आध्यात्मिक लेख एक अखबार बिना नाम के छाप देता है क्योंकि कहीं से प्रायोजित नहीं है। एक स्तंभकार ने तो हद ही गांधीजी, ओबामा तथा नोबल पुरस्कार पर लिखे गये तीन लेखों के सभी पैरे उड़ाकर अपना लेख लिख लिया। इधर यह अखबार कहते हैं कि इंटरनेट पर अच्छा नहीं लिखा जा रहा उधर बिना नाम के हमारे ही नहीं दूसरों के भी लेख छाप रहे हैं। स्वतंत्र बुद्धिजीवी, विचारक और चिंतक को उबरने नहीं देंगे, गैर प्रायोजित रहने वाले संत को मानेंगे नहीं, जो समाज या पूंजीपतियों से सम्मानित नहीं है तो उस समाज सेवक को फोकटिया मानेंगे और चाहे जिसने श्री मद् भागवत् गीता, संत कबीर, गुरुग्रंथ साहिब तथा रामायाण का जितना भी अध्ययन किया हो पर उसे तब तक ज्ञानी नहीं मानेंगे जब तक वह साधु दिखने के लिये सफेद या गेरुए वस्त्र नहीं धारण करेगा। अध्यात्मिक ज्ञान करते करते जब तक मनोरंजन बात न करे तब किसी को संत नहीं मानेंगे-यह प्रवृत्ति पूरे समाज की हो गयी है इसलिये उसके सामने दूर के ढोल सुहावने रखने के लिये ऐसे ही मुद्दे रखे जाते हैं जिससे उसका संबेध नहीं है।
बहरहाल जिस आदमी ने श्वान को गोली मारी उसके लिये अब पशु प्रेमी संकट खड़ा कर सकते हैं। वैसे श्वान को गोली मारने के लिये चलाना अजीब लगता है पर शायद वह उनके भेड़ों पर श्वानों के झुंड से हमले का खतरा रहा होगा। वरना श्वान तो पानी से भी भागता है। उस दिन हमने घर के बाहर अपने कीचड़ में सने जूते धोने के लिये जैसे डिब्बे से पानी डाला, बाहर थोड़ी दूर सो रहा श्वान भाग खड़ा हुआ इस आशंका से आदमी का क्या भरोसा कि कब दिमाग फिर जाये और पानी मेरी तरफ उछाल दे। यह लिखने की बात नहीं है पर इतनी बहस में इतने सारे शब्द खर्च हो गये तो थोड़ा और ही सही। बस अंतर इतना है कि बाकी बहसें प्रयोजित हैं सो भाग लेने वालों को कुछ न कुछ मिलता है हम तो ठहरे फोकटिया पर क्या करें, लिखने के लिये कोई जगह तो चाहिए न!
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Sunday, May 30, 2010

अमन और तरक्की गेंहूं की तरह पिसते हैं-हिन्दी शायरी (aman aur tarakki piste hain-hindi shayari)

खिली हुई हैं उनकी बाछें,
बिछ गयी हैं फिर जमीन पर आज कुछ लाशें,
क्योंकि कातिलों से उनके जज़्बातों के रिश्ते हैं।
अपने ख्यालों का ओर छोर पता नहीं,
हमख्याल जहां देखते, कोरस गाने लगते हैं वहीं,
अपनी अक्ल किराये पर चलाते हैं,
पर आजाद खुद को बताते हैं,
खूनखराबे और शोरशराबे के चलते चक्रों में
देख रहे ज़माने का भला
जिनमें अमन और तरक्की गेंहूं की तरह पिसते हैं।
जिस पर रोटी पकाने के लिये वह लिखते हैं।
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हिन्दी शायरी,समाज,मनोरंजन,मस्ती,व्यंग्य कविता,संदेश,hindi satire poem,vyangya kavita,society
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Wednesday, May 26, 2010

आधुनिक युग का मूलमंत्र-हिन्दी शायरी (adhunik yug ka mulmantra-hindi shayari)

गरीबी हटाओ,
धर्म बचाओ
और चेतना लाओ
जैसे नारों से गुंजायमान है
पूरा का पूरा प्रचार तंत्र।
चिंतन से परे,
सुनहरी शब्दों से नारे भरे,
और वातानुकूलित कक्ष में
वक्ता कर रहे बहस नोट लेकर हरे,
खाली चर्चा,
निष्कर्ष के नाम पर काले शब्दों से सजा पर्चा,
प्रचार के लिये बजट ठिकाने के लिये
करना जरूरी है खर्चा,
भले ही आम आदमी हाथ मलता रहे,
मगर बाज़ार का काम चलता रहे,
सौदागर का खाता फलता रहे,
नयी सभ्यता का यही है अर्थतंत्र।
पैसे के लिये जीना,
पैसे लेकर पीना,
पैसा चाहिए बिना बहाऐ पसीना,
आधुनिक युग का यही है मूलमंत्र।
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Thursday, May 20, 2010

चूहे का वेश छोड़ना होगा-हिन्दी शायरी (choohe ka vesh-hindi shayri)

हाथ जलने के डर से
दियासलाई नहीं जलायेंगे
तो फिर रौशनी भी नहीं पायेंगे।
चूहों की तरह अंधेरे में छिपने की
आदत हो गयी तो
हर जगह बिल्लियों के आंतक तले
अपना जीवन बितायेंगे।
कभी न कभी तो लड़ना होगा,
चूहे का वेश छोड़ इंसान बनना होगा
आग जलने दो अनाचार के खिलाफ
वह ताकतवार होंगे तो हम मर जायेंगे,
अगर कमजोर हुए तो छोड़ देंगे सांस
फैसला होना चाहिये
जीते तो अमर हो जायेंगे।

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Thursday, May 13, 2010

तलवार और शब्द-हिन्दी शायरी (talwar aur shabad-hindi shayari)

बुद्धिमान लोग
पहले से ही तयशुदा जंग लड़ते हैं,
एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिये
कहीं तलवार हवा में हिलाते
कहीं कागज पर शब्द भरते हैं।
सच में जो उतरते मैदान में
उनको अब कोई नहीं पूछता,
क्योंकि अब पर्दे के आसपास ही
सिमट गयी हैं लोगों की आंखें
जिनके दृश्य केवल पैसे
नकली नायकों और खलनायकों के
द्वंद्व से ही सजते है
---------
शांत पड़ी महफिल में
भूचाल आ गया,
‘सबसे अच्छा कौन’ का प्रश्न जब किसी ने पूछा
तो मृत्यु जैसा मौन छा गया।
फिर शुरु हुआ उत्तर देने का दौर
हर कोई अपनी छाती ठोक कर
अपने कारनामें बयान कर रहा था
आखिरी तक कोई जवाब नहीं मिला
नापसंद कर रहे थे सभी एक दूसरे को
स्वयं को हर कोई भा गया।

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Monday, May 10, 2010

अच्छी थी अपनी तन्हाई-हिन्दी शायरी (apni tanhaii-hindi shayari)

ख्याल आया इंसानों से जुड़ने का,
अकेलेपन से भीड़ के रास्ते मुड़ने का
मगर बहुत जल्दी आ गयी
सामने जिन्दगी की सच्चाई।
मुफ्त में प्यार नहीं मिलता,
धोखे के बिना व्यापार नहीं हिलता,
चीख रहे हैं लोग
अपनी बेहाली छिपाने के लिये,
मुस्कराहट ला रहे चेहरे पर जबरन
दिल का खालीपन मिटाने के लिये,
किसी ने कहा अपना दर्द,
कोई रहा रिश्तों के लिये बेदर्द,
जब परिचित होकर भी बने रहे सभी अजनबी
तक लगा कि भीड़ से अच्छी थी
हमारी अपनी तन्हाई।
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Wednesday, May 05, 2010

प्रेम जीवन और गृहस्थ जीवन में अंतर होता है-हिन्दी आलेख (love life and home life-hindi editorial)

वह लड़की एक पत्रकार थी और अपने परिवार से दूर रहती थी। उसने अपनी जाति से इतर एक युवक से प्रेम किया किया था। वह प्रेम विवाह करने की इच्छुक थी पर उसके परिवार के लोग इसके लिये तैयार नहीं थे। अंततः वह लड़की अपने प्रेमी को छोड़कर अपने घर आयी और वहां उसकी संदिग्ध हालतों में मौत हो गयी-अभी यह तय होना बाकी है कि आत्महत्या थी कि हत्या। यहंा प्रेम भी है और समाज की रीतियां भी और साथ में मौत का विषय तो बहस तो होनी ही थी। फिर अब तो आधुनिक प्रचार माध्यमों में हर छोटे विषय को बड़ा बनाकर बहस चलती है ताकि व्यवसायिक संगठित प्रचार माध्यमों का समय पास हो सके-यानि विज्ञापनों से कमाई हो सके-तब तो इस विषय पर लंबे समय तक विचार चलना ही है।
समाज पर ताना कसते लोग! स्त्री की विवशता पर शिकायतें दर्ज करते विद्वान! नारीवादी और इश्कवादी बुद्धिजीवियों को लिये यह बेहतर अवसर है अपनी बात कहने के लिये। वह लड़की गर्भवती थी और इसे अनदेखा कर औरत की आजादी और विवशता पर परंपरागत ढंग से टिप्पणियां हो रही है।
पता नहीं भारत के विद्वानों का विदेशी अनुभव कैसा है पर हमने संगठित प्रचार माध्यमों-टीवी, चैनल, रेडियो तथा समाचार पत्र पत्रिकाऐं-में समाचार और विचारों का अध्ययन किया है और जहां तक हमारी जानकारी है पश्चिम में भी बिन ब्याही मां बनना कोई अच्छी बात नहीं समझी जाती। यह सही है कि पश्चिम में बिना विवाह साथ रहने की परंपरा भी जोर पकड़ी रही है पर अगर पिता जिम्मेदारी लायक न हो तो मां बच्चे को जन्म देने को तैयार नहीं होती। ऐसे समाचार भी आते रहे है कि अमेरिका और ब्रिटेन के सामाजिक विशेषज्ञ बिना मां बनने की घटनाओं से चिंतित हैं जबकि यह देश तो आधुनिक सभ्यता के देवता माने जाते हैं।
दरअसल ऐसी घटनायें नयी नहीं है पर जिस तरह इन घटनाओं को लेकर पूरे समाज की सोच पर सवाल किये जाते हैं पर कभी कभी हास्यप्रद लगता है। असफल प्रेम या सफल जीवन दांपत्य एकदम नितांत निजी विषय है और इससे कोई सामाजिक अर्थ नहीं निकलते। इतना बड़ा देश है पर कितनी लड़कियां बिना मां बनने के लिये तैयार होती हैं? यकीनन लड़कियों को एकदम बददिमाग मानना अपने मूर्खता का प्रमाण देना है क्योंकि इतनी समझ सभी में है कि शादी करना और गृहस्थी अच्छी तरह चलाने में अंतर है। बच्चे का जन्म होने पर उसके लालन पालन की समस्या रहती है और इसके लिये जिम्मेदार मां के साथ पिता का होना भी जरूरी है।
वह लड़की अब इस संसार में नहीं है। एक खूबसूरत प्रतिभाशाली लड़की का इस तरह जीवन त्यागना दुःख का विषय है पर यह इतने बड़े समाज में यह एक घटना है। अब आरोप उसके माता पिता तथा भाई पर लग रहे हैं।
अपने से दूर रहने वाली अपनी पुत्री को अंतर्जातीय विवाह से रोकने के लिये पिता ने एक पत्र लिखा था। अब पत्र की भाषा को एक धमकी माना जा रहा है। अफसोस होता है यह सब देखकर! संभव है कि माता पिता तथा भाई ने मारा हो पर वह यह पत्र इस बात की गवाही नहीं देता। पिता ने जो लिखा था वह कोई ज्ञानी ही लिख सकता है। आखिर उस पिता ने अपनी बाईस वर्षीय पुत्री को लिखा क्या था!
बेटी अभी तुमने पाठयक्रमों की किताबें पढ़ी हैं, जीवन का अनुभव तुम्हें नहीं है।
यह फिल्मों में होता है पर जीवन अलग तरह का है।
जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है।
उच्च जातीय युवती को निम्न जातीय युवक से शादी करना अनिष्टकारी होता है।
तुम्हारे ग्रहों में राहु की दशा खराब चल रही है जो तुम्हारा विवेक नष्ट कर रहा है जिससे तुम्हारा अनिष्ट होगा-इससे पता लगता है कि उन्होंने ज्योतिष का ज्ञान होगा या फिर किसी ज्योतिषी से पूछा होगा।
बहुत बहसें सुनी पर उस लड़की के गर्भवती होने का प्रसंग बहुत अधिक महत्वपूर्ण है जिसे शायद अनदेखा किया जा रहा है। कह रहे हैं कि लड़की ने विद्रोह किया था इसलिये उसे जान देनी पड़ी, मगर यह तो अर्द्धविद्रोह था। एक पांव इधर एक उधर। पूर्ण विद्रोह और पलायन के बीच की स्थिति होने के कारण इसे अर्द्धविद्रोह कहना ही ठीक है।
नारीवादी और इश्कवादी बुद्धिजीवी आज तक यह नहीं समझा पाये कि अगर किसी जोड़े को परिवार और समाज से विद्रोह करना ही है तो वह फिर शादी जैसी पंरपरा की तरफ जाता ही क्यों है? आखिर यह समाज की ही तो प्रवृत्ति है। फिर अपने देश में बिना विवाह साथ रहने और बच्चे पैदा करने की छूट मिल गयी है। इधर गर्भनिरोध के हजारों प्रकार के उपाय मौजूद हैं तब उस विद्रोही लड़की ने उसे क्यों नहीं अपना सकती?
वह प्रेमी के मना करने के बावजूद अपने माता पिता से मिलने क्यों गयी? माता पिता समाज का ही हिस्सा हैं और उन्होंने अपने घर से बाहर निकलकर उसको पकड़ा नहीं  था। वह आखिर उनकी परवाह क्यों कर रही थी! वह क्यों इजाजत चाहती थी अपने परिवार वालों से! स्वयं को अच्छी बेटी साबित करने के लिये न! समाज को दोष देने वाले बतायें कि ऐसे कमजोर विद्रोही किस काम से जो आगे निकलकर फिर पीछे मुड़कर देखते हैं। विवाह की तिथि तय की गयी पर किया नहीं गया। विद्रोह से पीछे हटा कौन! कौन रोक रहा था? फिर समाज को चुनौती देने का यह प्रयास किस लिये!
कहना कठिन है कि सच क्या है, उस लड़की और उसके प्रेमियों के अपने अन्य युवक युवतियों के मित्रों के साथ फोटो देखने से पता लगता है कि महानगर के स्वच्छंद जीवन ने उसे अपने परिवार और समाज की शक्ति को भूलने को विवश कर दिया था। बस मस्ती करो जैसे फिल्मों में देखते हैं। ढाबों पर जाकर खाना खाओ और ठंडा पीयो और उन लम्हों को कैमरे में कैद करो।
मगर इन अवसर पर पर खर्च किये जाने वाले हजार या दो हजार रुपयों से इतने बृहद जीवन के कुछ पल ही खरीदे जा सकते हैं। जब पेट में भ्रुण हो तो औरत की मनस्थिति बदल जाती है। एक सामान्य औरत और गर्भवती स्त्री की मनस्थिति पर अधिक लिखने या बताने की जरूरत नहीं है। एक तरफ उसके सामने अपने गर्भ में पल रहे बच्चे के लिये रोमांच होता है तो दूसरी तरफ उसके पैदा होने तथा उसके बाद उसके पालन होने की चिंता भी होती है और यकीनन वह इसे अपने पति, पिता तथा प्रेमी तक पर भी जाहिर नहीं  करती।
यही भ्रुण उसकी चिंता का विषय रहा होगा। अगर वह जीवित होती तो महानगर में दिन ब दिन ऐसी समस्याओं का सामना करना होता जो प्रेम जीवन से एकदम अलग होती हैं। जैसे जैसे गर्भ दृढ़ होता है औरत चाहती है कि कोई अपना रक्त संबंधी उसके पास रहे और उस समय मां उसका सबसे बड़ा आसरा होती है। दूसरी बात ऐसी औरत की दिनचर्या बदल जाती है। ऐसे में नियमित काम करने में भी परेशानी होती है। सबसे बड़ी बात यह है कि उस समय धन का होना जरूरी लगता है। अब सवाल यह है कि क्या उसके प्रेमी की यह हैसियत थी कि वह प्रेम जीवन को गृहस्थ जीवन में बदलने के लिये व्यय कर सकता था। क्या वह वैसी सुविधाऐं उसे दिला सकता था जैसी उसके माता पिता देते थे। दूसरी बात यह कि क्या कमतर सुविधाओं में वह लड़की रहने की क्षमता रखती थी।
उसे प्रेमी की आर्थिक स्थिति पर शायद संदेह हो! इसलिये वह अपने माता पिता और भाई का समर्थन चाहती हो। तय तारीख पर विवाह न होना फिर उसका वहां माता पिता को मनाने जाना इस बात का संकेत देता है कि कहीं न कहीं वह उनसे भौतिक सहयोग की अपेक्षा कर रही होगी। उसका प्रेमी भले ही दावा करता है वह उसे बहुत अच्छी तरह जानता था पर वह प्रेम रस में डूबी एक सुंदर अविवाहित युवती से परिचित था न कि एक गर्भवती युवती की मनस्थिति जो अपने भ्रुण के साथ ही अनेक बातें भी पेट में रखती है-यह बात बुजुर्ग महिलाओं की चर्चा के आधार पर लिखी जा रही है।
जब धन संबंधी बात चली है तो अब पिता की बातें करें। हम यहां जाति की बात न भी करें तो कम से कम एक बात मान लेना चाहिये कि अमीर परिवार की लड़की गरीब परिवार में ब्याह नहीं करे तो ही ठीक है। अगर करे तो अपनी सुविधा और सुख मोह त्याग करने के लिये उसे तैयार होना चाहिए। बुजुर्ग कहते हैं कि लड़की हमेशा बड़े घर में देना चाहिये और बहुत हमेशा छोटे घर से लाना चाहिये। किसलिये! शादी कोई सन्यास के लिये नहीं की जाती है बल्कि इस भौतिक जीवन को संबल देने के लिये की जाती है जिसमें अर्थ की महत्ता को नकारना कठिन है। प्रेम जीवन कोमलता और गृहस्थ जीवन की कठोरता को सभी जानते हैं, यह अलग बात है कि कहंी अपने विचार व्यक्त करना हो तो उसे भुलाना ठीक लगता है। बहरहाल पिता अगर कोई समझाइश दे रहा था तो वह जीवन के अनुभव के आधार पर दे रहा था।
उस प्रतिभाशाली लड़की की मौत एक ऐसा हादसा है जिस पर दावे के साथ कुछ लिखना कठिन है। इसका कोई सामाजिक सरोकार भी नहीं दिखता। यह एक नितांत एकांकी घटना है। देश भर की लड़कियों की फिक्र करते हुए लोग केवल दिखावा कर रहे हैं। वह एक लड़की दुर्भाग्य का शिकार बनी पर इस समय करोड़ो लड़कियां हैं जो जिंदा है और सामान्य सामाजिक जीवन व्यतीत कर रही हैं। हो सकता है आगे भी ऐसी अनेक धटनायें हों पर तब भी यह देखना होगा कि कितनी उनमें शामिल नहीं है। बहरहाल यह शादी और प्रेम तो ऐसी घटनायें हैं जो सभी के जीवन में आती हैं पर सभी की स्थितियां अलग होती हैं। अलबत्ता भावावेश में इस तरह की घटना में युवा मौत से दिल दुःखता तो है। भगवान उस युवती की आत्मा को शांति प्रदान करे-यही कामना हम भी करते हैं। बाकी ऐसे मसले तो चलते रही रहेंगे। इतना जरूर है कि ऐसे हादसे उन लोगों को डरा देते हैं जिनके घर में अविवाहित पुत्रियाँ हैं।
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Wednesday, April 28, 2010

कसूर की सजा मिलती है-हिन्दी शायरी (kasoor ki sajaa-hindi shayari)

अपराध की कामयाबी से
तभी आदमी तक डोलता है
जब तक वह सिर चढ़कर नहीं बोलता है।
यह कहना ठीक लगता है कि
जमाना खराब है,
चमक रहा है वही इंसान
जिसके पास शराब और शबाव है,
मगर यह सच भी है कि
सभी लोग नहीं डूबे पाप के समंदर में,
शैतान नहीं है सभी दिलों में अंदर में,
भले इंसान के दिमाग में भी
ख्याल आता है उसूल तोड़ने का
पर कसूर की सजा कभी न कभी मिलती है जरूर
भला इंसान इस सच से अपनी जिंदगी तोलता है।
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Sunday, April 25, 2010

गरीब देश की पहचान मिटाने का विकल्प-हिन्दी व्यंग्य कविताऐं (gareeb desh ki pahachan mitane ka sankalp-hindi vyangya kavitaen)

देश की गरीबी ऐसी पहेली है
जिसे वह बूझ रहे हैं।
इसलिये वह बना रहे हैं नये राजा महाराजा,
बजायेंगे शराब पीकर और जुआ खेलकर
जो दुनियां के सामने तरक्की का बाजा,
उनके रहने के वास्ते
मशहूर जगहों पर
महल बनाने की तैयारी में
गरीबों को अपनी झौंपड़ियों समेत
दूरदराज इलाके में
खदेड़ने के लिये जूझ रहे हैं।
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देश की गरीबी मिटाने के लिये
उन्होंने लिया है संकल्प,
इसलिये चुना है गरीब को उजाड़कर
अमीर को चौराहे पर बसाने का विकल्प।
गरीब जनसंख्या में ज्यादा है, कहां तक उनको बचायेंगे,
फिर अहसान मानने के अलावा
वह भला किस काम आयेंगे,
जिनके महल बनने से शहर चमके
रहेगी देश की पहचान अमीर बनके,
जो चढ़ावें हर सौदे पर चढ़ावा,
मुफ्त में काम करने का न होने देते पछतावा,
सभी समाजसेवकों की है
ऐसे अमीरों के साथ की चाहत
जो संख्या में हों भले ही होते अल्प।
क्योंकि वही हैं गरीब देश की
पहचान मिटाने का विकल्प।
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Thursday, April 22, 2010

तरक्की के नाम पर-हिन्दी शायरी (tarakki ke nam par-hindi shayari)

अपने घर में जगह नहीं बची
अब परदेस में अपनी दौलत भरने लगे हैं,
कहने को तो अपने ही सगे हैं।
कमाने के नाम पर लूटा,
सारी तिजोरियां भर गयी
फिर अपनों से उनका विश्वास भी रूठा,
कभी कभी अपने होने का
दिखावा वह कर लेते हैं,
दान की दलाली के धंधे  में
समाज सेवा करते हुए
कमीशन से अपनी जेब भर लेते हैं,
उनकी अमीरी की चमक के सामने
आसपास की गरीबी दबी है विकास दर के नीचे
मजदूरी में मारे हिस्से से सजे हैं उनके घर के गलीचे
हार गयी है ईमानदारी
तरक्की के नाम पर बेईमानों के भाग्य सजे हैं।
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Thursday, April 15, 2010

बेबस इंसान सभी जगह रोता-हिन्दी शायरी (bebas insan sabhi jagah rota-hindi shayri)

वह इसलिये भोले नज़र आते हैं
क्योंकि उनकी चालाकियां कोई पकड़ नहीं पाया।
उनके घर के बाहर नाम पट्टिका पर
साहूकार लिखा है
क्योंकि उनकी चोरी कोई पकड़ नहीं पाया।
कौन उठायेगा उंगली उनके काम पर
पहरेदार को ही अपने घर लगाया।
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कितने भलमानस इस धरती पर
विचर रहे हैं
सभी अगर वादे के अनुसार काम करते तो
धरती पर स्वर्ग होता।
मगर गरीब, बेबस, और मजदूर के भले के नाम
कर रहा है कोई कत्ल तो कोई दलाली
उजाड़ रहे बाग़ बनकर माली
शैतानों ने फरिश्ते का मुखौटा ओढ़ा
बेबस इंसान तो सभी जगह रोता।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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Saturday, April 10, 2010

गरीबी, भुखमरी, शोषण तथा महंगाई समस्यायें नहीं बल्कि परिणाम हैं-हिन्दी लेख (economics thought for india-hindi article

अगर देश में व्याप्त भुखमरी, बेरोजगारी, बेबसी तथा भ्रष्टाचार से त्रस्तता को देखकर किसी भी क्षेत्र में हिंसा का समर्थन किया जायेगा तो यह समझ लीजिये मुद्दों से भटकाव की तरफ हम जा रहे हैं। मुश्किल यह है कि भुखमरी, बेरोजगारी तथा महंगाई समस्यायें नहीं बल्कि समस्याओं का दुष्परिणाम है। हमें भुखमरी, बेरोजगारी तथा महंगाई से सीधे नहीं लड़ना बल्कि जो कारण है उनकी तरफ देखकर जूझना है। कभी कभी तो लगता है कि संगठित प्रचार माध्यम--टीवी चैनल, रेडियो तथ समाचार पत्र पत्रिकायें-केवल प्रसिद्धि के आधार पर बुद्धिजीवियों के नामों का पैनल बनाकर चर्चा करते है यह जाने बिना कि उनकी शिक्षा का आधार क्या है? वह पत्र पत्रिकाओं के संपादकों, स्तंभकारों तथा समाज सेवकों की उनकी मूल शिक्षा के ज्ञान के बारे में जाने बिना ही उनके बयान छापते हैं। यही कारण है कि विज्ञान तथा कला स्नातक भी देश की आर्थिक समस्याओं पर बोलने लगते हैं।
हम बात कर रहे हैं नक्सलवाद की। कुछ मित्र ब्लाग लेखकों ने भी संगठित प्रचार माध्यमों के बुद्धिजीवियों जैसा ही लगभग रवैया अपना लिया है। वह नक्सलप्रभावित क्षेत्रों में फैली गरीब, भुखमरी और बेरोजगारी की स्थिति को हिंसक वारदातों से जाने अनजाने जोड़ने लगे हैं। इस लेख का मतलब उनपर आक्षेप करना नहीं बल्कि उनके सामने अपनी बात यह कहते हुए रखना है कि इन हिंसक वारदातों को करने वाले भले ही गरीब, भूखे और बेरोजगार के मसीहा बनने का प्रयास करते दिखते हों पर वास्तव में उनसे उसका कोई लेनादेना नहीं है। समाचारों का विश्लेक्षण करें तो शक होने लगता है कि जिन पूँजीवादी तत्वों द्वारा आदिवासी क्षेत्रों के दोहन के कारण अन्याय की बात करते हैं दरअसल उनसे चंदा लेकर उनका वर्चस्व बनाये रहते हैं।
एक ब्लाग पर पढ़ने को मिला कि अनेक शहरों में बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी तथा शोषण के शिकार लोगों के साथ नक्सली बैठकें कर रहे हैं। सवाल यह है कि इन बैठकों का क्या मकसद है? हथियार उठाकर शोषकों से निपटना।
यह एक धोखा है। अगर कथित मसीहा इतने ही ईमानदार हैं तो महंगी बंदूकें हाथ में देने की बजाय उनके हाथ में रोटी क्यों नहीं देते? वह अपने उगाहे चंदे से लघु उद्योग क्यों नहीं चलाते। पशुपालन में लिये लोगों को जानवर क्यों नहीं देते? सबसे बड़ी बात है कि पेयजल समस्या के हल के लिये हैंडपंप क्यों नहीं खुदवाते? कथित नक्सली संगठनों के आय के स्त्रोत किसी राज्य के मुकाबले कम नहीं लगते-यह बात अखबारों में छपी खबरों के आधार पर की जा रही है।
वह क्या चाहते हैं सरकार में आम जनता की भागीदारी। दुनियां का यह सबसे खूबसूरत धोखा है और इसके लिये चीन और रूसी बुद्धिजीवियों को इस देश में चर्चा के लिये आमंत्रित करना चाहिए।  तब यह पता लग जाएगा कि यह कभी पूरा न होने वाला सपना है। सच तो यह है कि अगर आप यह मानते हैं कि सारा विश्व पूंजीवाद का शिकार हो चुका है तो यकीन करिये इन नक्सली संगठनों को उससे बचा हुआ मानना अपने आपको धोखा देना है। अभी तक यह कोई नहीं बता सका कि इन नक्सली संगठनों के पास महंगे हथियार  , महंगी गाड़ियां तथा अवसर आने पर विदेश भाग जाने की सुविधा जुटाने के लिये पैसा कहां से आता है?
इसके अलावा एक बात दूसरी भी है कि नक्सलवाद कोई आज की समस्या नहीं है बल्कि बरसों से है। तब यह भी पूछा जाना चाहिये कि जहां यह नक्सलवाद है वहां की जनता क्या खुश है? यकीनन नहीं! यह नक्सलवादी किसी को रोटी या रोजगार तो दे नहीं सकते! अलबत्ता भय कायम कर दूसरे की आवाज दबा सकते हैं। इनके इलाकों में भूख, बेरोजगारी तथा बेबस लोगों की कमी नहीं है पर उनकी अभिव्यक्ति को बाहर लाने वाला कौन है? नक्सली लायेंगे  नहीं और निष्पक्ष प्रेषकों को वह अंदर आने नहीं देंगे। ऐसे में कथित रूप से कुछ प्रसिद्ध समाज सेवक वहां जाते हैं और वहां का दर्द आकर सुनाते हुए बताते हैं कि ‘भुखमरी, बेरोजगारी तथा शोषण के कारण वहां नक्सली अपना काम रहे हैं।’
तब सवाल यह है कि वहां नक्सलियों की उपस्थिति का औचित्य क्या है जब समस्यायें यथावत हैं। सीधा आशय यह है कि आप चाहे लाख सिर पटक लें कम से कम ज्ञान की चरम सीमा के निकट पहुंचे व्यक्ति को यह नहीं समझा सकते कि भूख, बेरोजगारी तथा शोषण की दवा गोली है और उसके चलाने वाले कोई प्रमाणिक चिकित्सक।
यह तो थी नक्सली हिंसा का सिद्धांत खारिज करने वाली बात। अब हम देश की हालतों पर चर्चा करें जिसका नक्सलवाद से कोई संबंध नहीं है। जिन्होंने अर्थशास्त्र पढ़ा है वह जानते हैं कि भारत की आर्थिक समस्यायें क्या हैं-बढ़ती जनसंख्या, अकुशल प्रबंध, रूढ़िवादिता तथा धन का असमान वितरण। इसका आशय यह है कि हमें अगर गरीबी, बेरोजगारी, शोषण तथा दमन जैसी बीमारियां भगानी हैं तो उनको पैदा करने वाली समस्याओं को दूर करना होगा। बढ़ती जनसंख्या का जिम्मा जनता का है। देश में अब भी आबादी का बढ़ना थम नहीं  रहा इसका मतलब यह है कि कम से कम इस विषय में  आम लोग ही इसके लिये जिम्मेदार हैं।
दूसरे नंबर पर आने वाली समस्या ‘अकुशल प्रबंध’ शायद पहली समस्या की भी जनक है। हम जिस भ्रष्टाचार की बात करते हैं वह इसी समस्या की देन है। मुश्किल यह है कि इस पर कोई ध्यान नहीं देता। अभी पिछले दिनों एक समाचार टीवी चैनलों पर दिखने के साथ अखबारों में भी छपा था कि 85 लाख टन गेंहूं एक गोदाम में सड़ रहा है। ऐसी एक नहंी अनेक घटनायें सामने आती हैं जिसमें यह बताया जाता है कि गोदामों में रखा गया अनाज सड़ गया। जब इनकी मात्रा की गणना करते हैं तब लगता है कि इस देश में अभी भी खाने वाले कम है। सड़ने से पूर्व ही यह अनाज गरीब और भूखों तक पहुंच जाये तो उनकी चालीस करोड़ की संख्या भी कम लगेगी। होना तो यह चाहिये कि इन जिन लोगों के पास इस अनाज को वितरण करने का निर्णय करने का अधिकार है वह ऐसी खबरों से उत्तेजित होकर निकल पड़ें और गोदामों से सामान निकालकर समस्याग्र्रस्त क्षेत्रों तक पहुंचायें। निजी क्षेत्र में अमीरों की संख्या कम नहीं है पर मुख्य मुद्दा यह है कि उनके मन में समाज का भला करने की चाहत नहीं है। हमारा अध्यात्मिक दर्शन दान की महिमा स्वर्ग दिलाने के लिये नहीं बल्कि सामाजिक समरसता स्थापित करने के लिये गाता है।
रूढ़िवादिता भी कम समस्या नहीं है। अनेक जगह लोगों ने अपने व्यवसायों के काम करने के तौर तरीकों में बदलाव नहीं किया। जमीन पर उनकी निर्भरता अधिक होने के कारण यह संभव नहीं है कि सभी को रोजगार दिया जा सके। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में पूंजीपतियों का प्रवेश रोकने से वहां का औद्योगिक विकास अवरूद्ध होता है। भले ही स्थानीय लोग जमीन न देना चाहें पर सच तो यह है कि वह उनके समूचे परिवार का पेट नहीं पाल सकती क्योंकि उनके काम करने का तरीका पुराना है। वैसे एक बात दूसरी भी है कि पश्चिम बंगाल में ऐसी घटनायें भी सामने आयीं जिसमें किसानों ने अपनी जमीन स्वेच्छा से बेची पर बाद में वह कम कीमत या शोषण का आरोप लगाकर मुकर गये क्योंकि उनको कथित समाजसेवकों ने अपने की कीमत अधिक लगाने को कहा। पश्चिम बंगाल से टाटा की नैनो कार उत्पादन करने की परियोजना हटने से वहां की जो साख गिरी वह कोई कम नहीं है। वैसे टाटा घराने के बारे में कहा जाता है कि वह शोषण नहीं करता और उनके वहां से पलायन के बाद ऐसा कोई प्रमाण भी वह समाजसेवक नहीं ला सके कि उन्होंने जमीन लेने के मामले में किसी को दबाया, धमकाया या कम कीमत दी। उस समय कथित समाजसेवक वहां गये पर जब टाटा ने वहां से परियोजना हटाई तो फिर उन्होंने अपने आंदोलन का औचित्य सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण पेश नहीं किया। इस तरह अनेक कथित मसीहा किसानों, गरीबों, मजदूरों और भूखों का हितैषी होने का दावा करते हैं पर कोई प्रमाण नहीं देते। हमारे कहने का आशय यह नहीं है कि पूंजीपति शोषण या धोखा नहीं देते पर सवाल यह है कि जो उनसे लड़ने का दावा करते हैं वह उसको उजागर करने में नाकाम क्यों रहते हैं?
इसमें दो राय नहीं है कि देश में गरीबी, महंगाई, भ्रष्टाचार, भुखमरी पर अंकुश करना जरूरी है वरना अपने आपको एकजुट रखना कठिन हो जायेगा। राजा या राज्य तभी तक अस्तित्व में रहते हैं जब तक जनता का विश्वास है। जब हम दावा करते हैं कि हम एक राष्ट्र हैं तो हमें यह सिद्ध करना होगा कि हम सभी एक दूसरे की फिक्र करते हैं। आजादी के साठ वर्ष बाद भी अगर हमारे अपने देश में इतने बड़े पैमाने पर बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, महंगाई, गरीबी, शोषण, दमन, बेरोजगारी तथा अशिक्षा का वर्चस्व है तो वह हमारे एक राष्ट्र होने पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। इसलिये इनको पैदा करने वाली समस्याओं-बढ़ती जनसंख्या, अकुशल प्रबंध, धन के असमान वितरण तथा रूढ़िवादिता-से निपटना है। नक्सलवाद और उनके समर्थक लाख दावा कर लें कि वह गोली से निपटेंगे पर सच यह है कि यह कम बुद्धिमानी से योजना बनाकर ही किया जा सकता है। अगर हम ऐसा नहीं करते तो देश के मजदूरों, गरीबों, शोषितों, दलितों तथा लाचार लोगों को बरगला कर हमारे देशी तथा विदेशी दुश्मन उनको हमारे सामने खड़ा करते रहेंगे। उनको मजबूर करेंगे कि वह उनके हथियार खरीद कर क्रांति लायें। इस तरह वह देश को संकट में डालकर बंधक बनाये रखेंगे। याद रखिये मुगल और अंग्रेजी इस देश में व्याप्त वैमनस्य का लाभ उठाकर ही यहां शासन करते रहे। कमजोर वर्ग उनका हथियार बना यह अलग बात है कि उनके हाथ कुछ आया नहीं और वह अपनी समस्याओं को ढोता हुआ आगे चलता रहा क्योंकि उसके दर्द का निवारण करना दुश्मनों की नीयत नहीं थी भले ही कारण वही बतलाया जाता रहा हो। लगभग यही स्थिति यहां अब भी दिखती है।
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Sunday, April 04, 2010

अनमोल तोहफ़ा-हिन्दी शायरी (anmol tohfa-hindi shayri)

तूफान जैसा क्यों
भागना चाहते हो,
हवा की तरह बहने में भी मजा आता है।
उम्र कम है तेजी से दोड़ने वालों की
बढ़ती गति के साथ
डोर टूट जाती है ख्यालों की
आसमान छूने की चाहत बुरी नहीं है
पर तारे हाथ आयें या चंद्रमा
पत्थर के टुुकड़ों या मिट्टी के
ढेर के अलावा हाथ क्या आता है।
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चमकता पत्थर हो या हीरा
देखने में एक जैसा नज़र आता है।
चमकती चीजों का वजूद
वैसे भी आंखों से आगे कहां जाता है।
पेट की भूख बुझाता अन्न,
गले की प्यास को हराता जल,
सर्वशक्तिमान का तोहफा है
मिलता है आसानी से इंसान को
शायद इसलिये अनमोल नहीं कहलाता है।
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Thursday, April 01, 2010

दौलत के खिलाड़ी-हिन्दी शायरी (daulat ke khiladi-hindi shayri)

दौलत के खिलाड़ी, दूसरों के जज़्बातों समझते नहीं,
जहां मौका मिलता है, गेंद समझकर खेलते हैं वहीं।
उनके मोहब्बत का पैगाम, होते हैं हमेशा एक धोखा,
फायदे के लिये नफरत उगलते उनको देर लगती नहीं।
कुछ पेट कम भर लेना, चीथड़े भी ओढ़ना अच्छा है,
अपने जज़्बातों का जनाज़ा निकलने कभी देना नहीं।।
थोड़ी हंसी की खातिर, जिदंगी का रोना भी मिलता है
दौलत के खिलाड़ी, दिल की दलाली भी करते हैं कहीं।
उनको अपने आसमानों का बोझ उठाये रहने दो
तुम्हारी हमदर्दी को भी, मजाक न समझ बैठें कहीं।

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Monday, March 29, 2010

नायक और खलनायक-व्यंग्य कवितायें (nayak aur khalnayak-hindi vyangya kavitaen)

धोखे, चाल और बेईमानी का
अपने दिमाग में लिये
बढ़ा रहे हैं वह अपना हर कदम,
अपनी जुबान से निकले लफ्ज़ों
और आंखों के इशारो से
जमाने का भला करने का पैदा कर रहे वहम।
भले वह सोचते हों मूर्ख लोगों को
पर हम तोलने में लगे हैं यह कि
कौन होगा उनमें से बुरा कम,
किसे लूटने दें खजाना
कौन पूरा लूटेगा
कौन कुछ छोड़ने के लिये
कम लगायेगा दम।
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अपने को नायक दिखाने के लिये
उन्होंने बहुत सारे जुटा लिये
किराये पर खलनायक,
अपने गीत गंवाने के लिये
खरीद लिये हैं गायक।
यकीन अब उन पर नहीं होता
जो जमाने का खैरख्वाह
होने का दावा करते हैं
अपनी ताकत दिखाने के लिये
बनते हैं मुसीबतों को लाने में वही सहायक।
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Thursday, March 25, 2010

ख्यालों के खेल में-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (khyalon ke khel men-hindi satire poem)

खुद रहे जो जिंदगी में नाकाम
दूसरों को कामयाबी का
पाठ पढ़ा रहे हैं।
सभी को देते सलीके से काम करने की सलाह,
हर कोई कर रहा है वाह वाह,
इसलिये कागज पर दिखता है विकास,
पर अक्ल का हो गया विनाश,
एक दूसरे का मुंह ताक रहे सभी
काम करने के लिये
जो करने निकले कोई
उसकी टांग में टांग अड़ा रहे हैं।
ऐसे कर
वैसे कर
सभी समझा रहे हैं।
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अपने अपने मसलों पर
चर्चा के लिये उन्होंने बैठक बुलाई,
सभी ने अपनी अपनी कथा सुनाई।
निर्णय लेने पर हुआ झगड़ा
पर तब सुलह हो गयी,
जब नाश्ते पर आने के लिये
आयोजक ने अपनी घोषणा सुनाई।
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तंग सोच के लोग
करते हैं नये जमाने की बात,
बाहर बहती हवाओं को
अपने घर के अंदर आने से रोकते,
नये ख्यालों पर बेबात टोकते,
ख्यालों के खेल में
कर रहे केवल एक दूसरे की शह और मात।
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Tuesday, March 16, 2010

मुंह फेर लिया-हिन्दी शायरी

हमने तो उनको मौका दिया
वफा निभाने
अपनी जरूरत बताकर
उन्होंने लाचारी समझकर मुंह फेर लिया।
अपनी ताकत दिखाकर वह खुश होंगे
पर शायद ही सोचा हो कि
उन्होंने अपने विश्वास को खो दिया।
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हाथ उठाकर कुछ नहीं मांगा
पर इशारों में समझाकार
अपना आसरा उन पर टिका दिया।
अपना घर सजाने के लिये
उन्होंने हमारा पूरा पसीना चूसा
पर निभाने की बात आई तो मुंह फेर लिया।

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Friday, March 12, 2010

गरीब के कल्याण का सवाल-व्यंग्य चिंतन (welfare of poor man-hindi satire article)

अमेरिका में एक गोरी महिला पर आनलाईन आतंकवादी भर्ती करने का मुकदमा दर्ज हुआ है। बताया गया है कि वह लोगों को मीठी बातों में फंसाकर अपने जाल में फंसाती थी। दुनियां भर के गरीबों का भला करने की बात करती थी! भर्ती करने वालों को धन का प्रलोभन भी देती थी! वगैरह वगैरह! उस अमेरिकन ने अपना अंग्रेजी नाम बदल भी लिया था ताकि वह धर्म के नाम पर गैर अमेरिकन लोगों में अपनी पहचान बना सके।
यह आलेख केवल उस महिला पर ही नहीं है बल्कि उसकी प्रकटतः प्रकृत्तियों पर है जो अनेक जगह अनेक लोगों में देखने को मिलती है। जिसमें सबसे अधिक है गरीबों का भला करने की बात! इसलिये हिंसा कर महामानव के रूप में प्रतिष्ठत होने का एक ख्वाब जो एक हर चालाक बुद्धिमान देखता है।
गरीबों के भले की बात करते देखकर बुद्धिमानों पर कोई हंसता नहीं है क्योंकि लोगों की सोच स्वतंत्र नहीं रही। हम यहां भारत की क्या बात करें अमेरिका और ब्रिटेन में यही हालत हैं-आखिर उनकी शिक्षा पद्धति ही हमारे समाज ने अपनायी है।
गरीब का भला! मेहनतकश के साथ न्याय! दुनियां के उस आखिर आदमी के लिये लड़ने की बात जिसे दो समय की बात क्या एक समय के लिये भी खाना नहीं मिलता। इसके लिये जंग करने वाले बताते हैं कि दुनियां का पूरा पैसा कुछ व्यक्तियों, समाजों या राष्ट्रों के पास जा रहा है जिनको परास्त करना आवश्यक है ताकि दुनियां से गरीबी और भुखमरी मिट सके। इसके लिये वह बंदूकें, गोलियां और बम जुटाते हैं जैसे कि उनसे खाना बना रहे हों।
कुछ ऐसे भी हैं जो यह सब नहीं करते पर पर्दे के पीछे बैठकर फिल्में, टीवी धारावाहिक या रेडियों पर उनकी जंग का प्रचार करते हैं। अखबारों में लेख वगैरह लिखते हैं। दुनियां की पंक्ति में सबसे आखिर में खड़े भूखे, नंगे और बेकार आदमी का भला करने का यह ख्वाब खूब चलता है। कहते हैं कि आदमी अपनी विपरीत स्थितियों में मनोरंजन ढूंढता है। अमेरिका की सभ्यता धनाढ़य, गौरवर्ण तथा आधुनिक शिक्षित वर्ग की भीड़ से सजी है इसलिये उनको गरीब-भूखे-नंगे, निम्न वर्ग तथा अशिक्षित वर्ग के विषयों में मनोरंजन मिलता है जबकि हमारे भारत में सभी गरीब और भूखे नहीं है पर यहां उनके सामने ऐसा दृश्य प्रस्तुत करने वाला वर्ग प्रतिदिन विचरता है इसलिये उनको धनाढ्य तथा गौरवर्ण कथानकों में आनंद मिलता है। हम भारत ही क्या अधिकांश एशियाई देशों में यह दोष या गुण देखते हैं। यही कारण है कि इस इलाके में आतंकवाद जमकर पनपा है। मजे की बात यह है कि पूरे विश्व के लिये अध्यात्मिक ज्ञान का सृजन भी एशियाई देशों के नेता भारत में ही हुआ है। कहते हैं कि गुलाब कांटों में तो कमल कीचड़ में पनपता है। भारत का अध्यात्मिक ज्ञान इतना प्रभावी इसलिये है क्योंकि यहां अज्ञान अधिक फलताफूलता रहा है। गरीब का भला और बेसहारों को सहारा देने के नाम पर एशिया के लोग बहुत जल्दी प्रभावित हो जाते हैं।
अमेरिका की उस महिला ने भी आखिर क्या प्रचार किया होगा? यही कि गरीबों का भला करने के लिये चंद लोगों का मरना जरूरी है या गोली और बम के धमाकों से भूखे के लिये रोटी पकेगी तो गरीब की गरीबी दूर हो जायेगी।
पंच तत्वों से बनी इस देह में जो मन रहता है उसे समझना कठिन है और जो समझ ले वही ज्ञानी है। आम इंसान अपना पूरा जीवन अपने स्वार्थों में लगाता है पर उसका मन कहीं न कहीं परमार्थी की उपाधि पाने के लिये भटकता है। अनेक ऐसे लोग हैं जिन्होंने पूरी जिंदगी में किसी का भला नहीं किया पर ऐसे किस्से सुनाकर अपना दिल बहलाते हैं कि ‘हमने अमुक का भला किया’ या ‘अमुक को बचाया’। उनको गरीबों का भला करना तथा भूखे को रोटी खिलाना एक अच्छी बात लगती है बशर्ते स्वयं यह काम न करना पड़े। ऐसे में अगर कुछ लोग यह काम करते हैं तो वह उनकी प्रशंसा करते हैं पर अगर कोई ऐसा करने का दावा करने लगे तो उसे भी प्रशंसनीय मान लेते हैं। कुछ युवा क्रांतिकारी होने का सपना लेकर गरीबों का भला करने के लिये उपदेशकों की बातों में हिंसा भी करने को तैयार हो जाते हैं बशर्ते कि उनको सारी दुनियावी सुविधायें उपलब्ध करायी जायें और जिनके लिये पैसा खर्च होता है। मूल बात इसी पैसे पर आकर टिकती है जो धनपतियों के पास ही है जिनके विरुद्ध गरीबों के कथित मसीहा बोलते रहते हैं-इनमें बहुत कम ऐसे है जो अपनी जान देने निकलते हैं बल्कि अपनी बातों से दूसरे को अपनी जान देने को तैयार करते हैं-जन्नत में स्थाई सदस्यता दिलाने के वाद के साथ! ऐसे बहुत सारे मसीहा जिंदा हैं पर उनके बहुत सारे शगिर्द काल कलवित हो गये-और इन गुरुओं को इसकी बिल्कुल चिंता नहीं है क्योंकि उनके प्रायोजित विद्यालय निरंतर नये लड़कों का सृजन करते रहते हैं। मूल प्रश्न का उत्तर आज तक किसी ने नहीं दिया कि पैसा कहां से आता है?
कहते हैं कि दुनियां के सारे धर्म गरीबों का भला करना सिखाते हैं। यह एक मजाक के अलावा कुछ नहीं है। सारे धर्म के मतावलंबियों और सर्वशक्तिमान के बीच एक मध्यस्थ होता है जो उसका परिचय अपने समूह के लोगों से कराता है। सभी की भाषायें है और पहचान के लिये वस्त्रों के रंग भी तय हैं-गेरुआ, हरा, सफेल और अन्य रंग। नाम भी अब स्थानीय भाषा के नाम पर नहीं बल्कि धर्म की भाषा के आधार पर रखते जाते हैं। एक आदमी जब धर्म बदलता है तो नाम भी बदल देता है। अनेक लोग पैसा लेकर या भविष्य में विकास का वादा करने पर धर्म बदल देते हैं। यह एक क्रांतिकारी मजाक है जो अक्सर अनेक देशों में दिखाइ्र्र देता है। अभी तक धार्मिक मध्यस्थ केवल सर्वशक्तिमान और इंसान के बची की कड़ी थी पर ऐसा लगता है कि जैसे कि उन्होंने अमीरों और गरीबों के बीच में भी अपना पुल बना लिया है। गरीबों को आतंक फैलाने तो अमीरों को उससे फैलते देखनें के मनोरंजन में व्यस्त रखने के लिये आतंक उनके लिये एक व्यापार हो गया है जिसे वह अपने ढंग से धर्म फैलाने या बचाने का संघर्ष भी कहते हैं कई जगह गरीबों के उद्धार की भी बात की जाती है। यकीनन अमीरों से उनको पैसा मिलता है। यह पैसा अमीर अपने एक नंबर के धंधे को बचाने या दो नंबर के धंधे को चलाने के लिये देते होंगे। दुनियां के सारे भाषाई, जातीय, धार्मिक तथा क्षेत्रीय समूहों पर ऐसी ही अदृश्य ताकतों की पकड़ है जिसमें मौलिक तथा स्वतंत्र सोच रखने वाले पागल या अयथार्थी समझे जाते हैं। इस बात का पूरा इंतजाम है कि हर व्यवस्था में तय प्रारूप में ही बहसें हों, विवाद हों और प्रचार तंत्र उनके इर्दगिर्द ही घूमता रहे। दो विचारों के बीच दुनियां के लोग भटकें-गरीब का भला और विकास-जिसमें अमीरों का वर्चस्व रहता है। इस दुनियां में दो प्रकार के लोग हैं एक तो वह जो गरीबों का भला होते देखना चाहते है-स्वयं कितना करते है यह एक अलग प्रश्न है-दूसरा वह वर्ग है जो विकास चाहता है। बीच बीच में भाषा, धर्म,जाति तथा क्षेत्रीय पहचान को लेकर भी बहसें और विवाद होते हैं पर उनमें भी गरीबों का भला या विकास का मुद्दा कहीं न कहीं होता है भले ही उसका नंबर दूसरा हो।
टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में चलने वाली इन बहसों से अलग होकर जब हम सड़क पर देखते हैं तो सारा दृश्य बदल जाता है। पेट्रोल का धुंआ उगलते विलासिता के प्रतीक वाहनों में सवार अमीर लोग अपनी राह चले जा रहे हैं। गरीब आदमी ठेले पर अपना सामान बेचने जा रहा है। अमीर चीज का भाव पूछता है गरीब बताता है। अमीर भाव कम करने के लिये कहता है। वह करता है कभी नहीं भी करता है। अस्पतालों में गरीब इलाज के लिये ठोकरें खाता नज़र आता है। सबसे बड़ी बात यह कि हम जैसे लेखक जब एक आदमी के रूप में धक्का खाते है तब अपने आप से सवाल पूछते हैं कि आखिर हमारा भला चाहता कौन है?
ऐसे ढेर सारे प्रश्नों से जूझते हुए जब कोई अखबार पढ़ते या टीवी देखते हुए गरीबों के कल्याण और मेहनतकश के न्याय पर बहस देखता और सुनता है तो उसे वह निरर्थक, अयथार्थ तथा काल्पनिक लगती है। शायद ऐसी बहसें बौद्धिक विलासिता का हिस्सा हैं पर इनके आयोजक इसका फोकट में नहीं करते। मुख्य बात यह कि पैसा कहां से आता है! शायद वहीं से आता होगा जहां से गोलियां, बम और बंदूकें खरीदने के लिये दिया जाता है। संभव है यह सब भयानक सामान बनाने वाले दलालों को अपना सामान बिकवाने के लिये पैसे देते हों। पहले आतंकी खरीदेगा तो फिर उससे बचने के लिये पहरेदार भी खरीदेगा। आतंकी एक, दो, तीन या चार होते है पर पहरेदार तो हजारों हैं। पूरी दुनियां में लाखों हैं। सब कुछ सोचते हुए आखिर वहीं खड़े हो जाते हैं और अपने आप से ही कहते हैं कि ‘कहां चक्कर में पड़ गये यार’। कुछ बेकार कवितायें लिखो या कोई चुटकुला लिखो। दिल बहलाने के लिये इससे अच्छा साधन क्या हो सकता है।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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Tuesday, March 09, 2010

संतों का कर्म और आचरण प्रमाणिक होना चाहिये-हिन्दी लेख (sadhu aur santon ka achran-hindi article)

अपने आपको धर्मात्मा कहलाने की चाहत किसे नहीं होती। कई लोग तो ऐसे हैं जो धर्म के नाम पर न तो दान करते हैं न ही भक्ति उनको भाती है पर दूसरों के सामने अपने धर्मात्मा होने का बखान जरूर करते हैं। कुछ तो ऐसे हैं जो सर्वशक्तिमान के दरबार में हाजिरी लगाने ही इसलिये जाते हैं ताकि लोग देखें और उनका भक्त या धर्मात्मा समझें। सीधी बात कहें तो यह सामान्य मनुष्य की कमजोरी है कि वह सदाचारी, संत धर्मात्मा और बुद्धिमान दिखना चाहता है-यह अलग बात है कि अपने कर्म से उसे प्रमाणित करने की बजाय वह उसे अपनी वाणी या अदाओं से ही अपना उद्देश्य हल करना चाहता है। ऐसे में उन लोगों की क्या कहें जिनके पास सदाचारी, संत, धर्मात्मा और बुद्धिमान जैसे ‘विशेष उपाधियां’ एक साथ मौजूद रहती हैं।
इस समय देश के अधिकतर प्रसिद्ध संत व्यवसायिक हैं। उनके प्रवचन कार्यक्रमों में असंख्य श्रद्धालू भक्त आते हैं। इनमें कुछ समय पास करने तो कुछ ज्ञान प्राप्त करने के लिये वहां अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं और जैसा कि पहले ही बताया गया है कि कुछ लोग अपनी छबि निर्माण के लिये भी वहां जाते हैं। अगर ऐसे संत प्रवचन कार्यक्रमों के अलावा कोई दूसरा काम न करें तो भी उनके साधु, संत या धर्मात्मा की उपाधि उनसे कोई छीन नहीं सकता। उनकी छबि यह है कि ज्ञानी भक्त भी उनकी वंदना न करने के बावजूद उनकी समाज को मार्गदर्शन करने के विषय में उनकी भूमिका स्वीकार करते हैं। इसके बावजूद ऐसी महान विभूतियां संतुष्ट नहीं होती। दरअसल उनका असंतोष इस बात को लेकर भड़कता है कि वह पुराने धार्मिक पात्रों की कथाओं का बोझ ढोते हैं पर स्वयं उनकी सर्वशक्तिमान जैसी छबि नहीं बन पाती। वह संत या साधु होने की छबि से ऊपर उठकर ‘सर्वशक्तिमान’ जैसी उपाधि पाना चाहते हैं। उनके अंदर जब यह भावना पनवती है तब शुरु होता है माया का तांडव। तब वह अपनी अर्जित संपत्ति से कथित रूप से दान पुण्य कर दानी की वैसी ही छबि भी पाना चाहते हैं जैसी कि धनपतियों की होती है।

बड़े बड़े ऋषि, महात्मा और संत इस माया की विकरालता की पहचान बता गये हैं। सच तो यह है कि माया संतों की दासी होती है पर शुरुआत में ही। बाद में वह संत ही उसके दास होते हैं। संतों के पास माया आयी तो वह उनकी बुद्धि भी हर लेती है-वैसे अनेक संत और साधु इससे अपने को बचाये रखने का कमाल कर चुके हैं तब भी कथित रूप से उनके अनुयायी होने का दावा करने वाले कुछ साधु और संत उस माया से संसार पर प्रभाव जमाने लगते हैं। तब यह भी पता लगता है कि किताबों से रटा हुआ उनका ज्ञान केवल सुनाने के लिये है। अनेक संत बड़े बड़े आश्रम बनवाने लगते हैं। विद्यालय खोलने लगते हैं। इतना ही नहीं दानवीर और दयालु भाव दिखाते हुए लंगर, दान और उपहार वितरण भी करने लगते हैं जो कि आम धनिक का काम है। संतों का व्यवहार धनपति की तरह हो जाता है। तब यह समझ में नहीं आता कि आखिर यह संत अपने आपको इस सांसरिक झंझट में क्यों फंसा रहे हैं? धनपति मनुष्य को गरीब आदमी पर दया करना चाहिये। इसका आशय यह है कि वह अपने क्षेत्र में आने वाले गरीब लोगों के लिये रोजगार का प्रबंध करे और आवश्यक हो तो उनको दान भी करे। यह संदेश देना ही साधु और संतों का काम है। सदियों से ऐसा चलता आया है। इतना ही नहीं केवल संदेश देने और कथा करने वालों का भी यही समाज पेट पालता रहा है। यही कारण है कि समाज का एक भाग होते हुए भी साधु संत आम आदमी से ऊपर माने जाते हैं। उपदेश देने के अलावा दूसरा का न भी करें तब भी समाज के लोग उनको आदर देते हैं और उनको कभी अकर्मण्य होने का ताना नहीं देते।

मगर माया का अपना खेल है और उसे समझने वाले ज्ञानी ही उसमें नहीं फंसते। फंस जायें तो गेरुए वस्त्र पहनने वाले भी फंस जाये न फंसे तो आम जीवन जीने वाले भी बच जायें। अधिकतर आधुनिक व्यवसायिक संतों ने श्रीमद्भागवत गीता के ज्ञान से कितनों को संतुष्ट किया यह तो पता नहीं पर ऐसा करते हुए उन्होंने अपना विशाल आर्थिक सम्राज्य खड़ा कर लिया है-दूसरे शब्दों में कहें तो उन्होंने माया का शिखर ही खड़ा कर लिया।
माया का शिखर न कभी बेदाग होता है और न निरापद रह सकता है। आश्रम विशाल होगा तो उसमें सज्जन भक्त आयेगा तो भक्त के भेष में दुर्जन भी आयेगा। इसकी पहचान करने की शक्ति माया के तेज से आंखें ढंकी होने के कारण न तो संत कर सकते हैं ही उनके चेले। अगर विद्यालयों में हजारों बच्चे आते हैं तो उनके साथ कभी कोई दुर्घटना भी हो सकती है। कहीं भोजन बन रहा है तो उसमें कोई ऐसी चीज भी आ सकती है जो सभी को बीमार कर सकती है। कहीं दान या उपहार बंट रहा है तो भारी भीड़ भी हो सकती है जहां भगदड़ मचने पर लोग हताहत भी हो सकते हैं। तय बात है कि जहां सांसरिक कार्य है वहां संकट भी आ सकता है तब यह जिम्मा इन्हीं संतों पर आता है।
फिर यह संत ऐसे खतरे क्यों मोल लेते हैं?
दरअसल श्रीगीता का ज्ञान बहुत सुक्ष्म और संक्षिप्त है पर गुढ़ कतई नहीं है-जैसा कि कथित संत प्रचारित करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने इसमें यह साफ कर दिया है कि हजारों में कोई एक मुझे हृदय से भजता है और उनमें कोई एक मुझे पाता है। इस एक तरह के लोग भी हजारों में होते हैं जिनमें कोई एक मुझे प्रिय होता है। श्रीगीता का यह गणित इस संसार के मानवीय स्वभाव के सूत्र बताता है-ढूंढने वाले चाहें तो ढूंढ सकते हैं। अगर यह संत ऐसे ज्ञान बनाने या ढूंढने चलें तो इनका इतना विशाल सम्राज्य खड़ा नहीं हो सकता। ज्ञानी लोग माया का पीछा नहीं करते बल्कि जितना है उतने से ही संतुष्ट हो जाते हैं। समस्या यह भी है कि ऐसे ज्ञानी इन संतों के पास जायेंगे क्यों? गये तो फिर पैसा क्यों देंगे? कथित संतों की दृष्टि से ऐसे ज्ञानियों की महिमा यूं भी कही जा सकती है कि ‘नगा नहायेगा क्या, निचोड़ेगा क्या?’
यही कारण है कि यह व्यवसायिक संत लोकप्रियता बनाये रखने के लिये सस्ते किस्म के काम करने लगते हैं जिससे लोग प्रभावित तो होते ही हैं माया भी पास बनी रहती है-प्रत्यक्ष रूप से दासी जो ठहरी, अप्रयत्क्ष रूप से दास को बचाये रहती है। संत का काम दान देना है लेना नहीं। सच तो यह है कि कुछ ज्ञानी लोग संतों के लंगर आदि में जाना या उपहार लेना पसंद भी नहीं करते क्योंकि वह मानते हैं कि वह इसके लिये कुपात्र हैं।
कथित व्यवसायिक संत शुद्ध रूप से राजनीतिक दृष्टिकोण से चलते हैं। जिस तरह राजनीति में गरीबों, बेसहारों, और बीमारों की सेवा की बात कही जाती है वैसा ही यह लोग करते हैं। समाज के शक्तिशाली, विशिष्ट, तथा धनिक वर्ग का यह मानवीय दायित्व है कि वह बिना मांगे गरीब की आर्थिक देखभाल, बेसहारों की सहायता और बीमारों के लिये इलाज का इंतजार कराये पर जब यह संत स्वयं काम करने लगें तो यह मान लेना चाहिये कि उनको अपने भक्तों और शिष्यों पर भरोसा ही नहीं है। ‘अहम ब्रह्मा’ का भाव उनको पूरे समाज के प्रति अविश्वसीय बना देता है।
समझ में नहीं आता कि आखिर यह संत किस दिशा में जा रहे हैं? हां, अगर हम मान लें कि यह मायापति हैं और उन्हें ऐसा ही करना चाहिए। फिर भी बात यहीं खत्म भी नहीं होती। इनमें कुछ संत सर्वशक्तिमान का अवतार होने का दावा करते हैं। यह एक तरह का मजाक है। थोड़ी देर के लिये हम धार्मिक होकर विचार करें। हमारे प्राचीन ग्रंथों में भगवान के जो अवतार वर्णित हैं वह सभी सांसरिक कर्म में ‘सक्रियता’ के प्रतीक हैं और उनमें कहीं न कहीं योद्धा होने का बोध होता है। उन्होंने हर अवतार में समाज के संकटों का प्रत्यक्ष होकर निवारण किया है। दुष्टों के सामने सीधे जाकर उनका सामना किया है। कहने का तात्पर्य यह है कि कम से कम साधु और संत की सीमित भूमिका उनकी किसी भी अवतार में नहीं है। तब यह संत किस तरह दावा करते हैं कि वह अमुक स्वरूप का दूसरा अवतार हैं? न उनको अस्त्रों शस्त्रों का ज्ञान और न ही किसी दुष्ट के सामने सीधे जाकर उससे टकराने की क्षमता। मगर माया जब सिर चढ़कर बोलती है और भगवान का अवतार साबित करने के लिये वह लोग ऐसे काम करते हैं जो सामान्य लोगों को करना चाहिए।
आखिर बात ज्ञान और माया की स्थिति की। रहीम एक राज दरबार में कार्यरत थे, मगर कबीर तो एक मामूली जुलाहा थे। मीरा राजघराने की थी पर तुलसीदास तो एक सामान्य परिवार के थे। भगवान श्रीराम और श्रीसीता का जन्म राजघराने मेेें हुआ पर दोनों ने 14 बरस वन में गुजारे। भगवान श्री कृष्ण का जन्म गौपालक परिवार में हुआ और जिन्होंने जीवन संघर्ष कर धर्म की स्थापना करते हुए श्रीमद्भागवत गीता के रूप में एक अमृत ग्रंथ प्रदान किया। संत रैदास भी एक अति सामान्य परिवार के थे। श्रीगुरुनानक जी का जन्म एक व्यापारी परिवार में हुआ पर उन्होंने भारतीय अध्यात्म को अपनी ज्ञान से एक नयी दिशा दी। कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे देश में अनेक महापुरुष हुए है पर किसके पास कितनी माया या धन था इसे इतिहास दर्ज नहीं करता बल्कि उन्होंने अध्यात्मिक दृष्टि से भारतीय धर्म और संस्कृति को कितना प्रकाशित किया इसकी व्याख्या करता है। भारतीय अध्यात्म की पहली शर्त यही है कि आपका ज्ञान और आचरण एक जैसा होना चाहिये तभी आपको मान्यता मिलेगी वरना तो बेकार की नाटकबाजी कर तात्कालिक लोकप्रियता-जो कि एक तरह से भ्रम ही है-प्राप्त कर लें पर उससे आप स्वयं इस संसार से अपना उद्धार नहीं करेंगे दूसरे का क्या करेंगे?
वैसे संतों की निंदा या आलोचना वर्जित है पर यहां यह भी बात याद रखने लायक है कि इसके लिये भी उनकी परिभाषा है वह यह कि लोगों के मानने के अलावा उनका आचरण भी वैसा ही प्रमाणिक हो। गेरुए या सफेद वस्त्र पहनने वाले हर व्यक्ति को संत, सन्यासी या साधु मान लिया जाये यह कहीं नही लिखा। ऐसे में जो संतों का चोला पहनकर धर्म का व्यापार कर रहे हैं उन पर लिखना बुरा नहीं लगता खास तौर से जब कथित साधु संत अपनी ही छबि से संतुष्ट नहीं होते।



कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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