Sunday, November 22, 2009

भारतीय प्रचार माध्यम, तिब्बत और चीन-आलेख (indian media, tibbat and china-hindi artcile)

भारत के बौद्धिक वर्ग में बहुत कम लोग इस बात का अनुमान लगा पाये थे कि विश्वव्यापी मंदी इतने व्यापक रूप से विश्व में अंतर्राष्ट्रीय समीकरण बदल देगी। कुछ विशेषज्ञों ने इस बात से आगाह कर दिया था कि यह मंदी चैंकाने वाले  बदलाव लायेगी क्योंकि विश्व की अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र बिंदु में स्थित अमेरिका इसका सबसे बड़ा शिकार बन रहा था।  अमेरिका और चीन के बीच तात्कालिक सद्भाव इसी का मंदी की मार से उपजा परिणाम है।  चार देशों की यात्रा समाप्त कर अपने देश पहुंचे अमेरिकन राष्ट्रपति ने अपने साप्ताहिक उद्बोधन में अपनी जनता को बताया कि वह तो अमेरिकन बेरोजगारों के लिये वहां नौकरी ढूंढने गये थे। 



जिन लोगों को अमेरिका द्वारा तिब्बत को चीन का हिस्सा मान लेने पर आश्चर्य है उन्हें अब यह बात समझ लेना चाहिये कि वहां अमेरिका अपने लिये अपनी अर्थव्यवस्था की प्राणवायु ढूंढ रहा है।  मुखर भारतीय बुद्धिजीवी और चिंतक-जो अपनी विशेषज्ञताओं के कारण प्रचार माध्यमों में छाये रहते हैं- इसका पहले अनुमान नहीं लगा पाये तो उसमें उनकी चिंतन क्षमता का अभाव ही जिम्मेदार है।  दरअसल भारतीय बुद्धिजीवी और चिंतक लकीर से हटकर नहीं सोचते-हालांकि ऐसा करने से प्रचार माध्यमों द्वारा उनको नकाने जाने का भी भय रहता है।  दूसरी बात यह है कि वह राजनीतिक, सामरिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, और सामाजिक आधारों को अलग अलग देखने के इतने आदी हो चुके हैं कि एक को दूसरे विषय से जोड़ने का उनमें साहस नहीं होता।  अगर आर्थिक विशेषज्ञ है तो वह अन्य आधारों से परे रहकर सोचता है और अगर अन्य विषयों का हो तो  आर्थिक विषयों से परहेज करता है। सच बात तो यह है कि वैश्विक आर्थिक उदारीकरण ने न केवल बाजारोें को दायरा बढ़ाया है वरन् उसने सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और सामरिक विषयों को भी प्रभावित करना शुरु कर दिया है। भारतीय बुद्धिजीवियों और चिंतकों की संकीर्ण सोच के ही कारण है कि भारत आर्थिक रूप से दूसरों के लिये बाजार होते हुए भी अन्य क्षेत्रों में पिछड़ रहा है।  यहंा तक कि भारत का सबसे बड़ा राजनीतिक दुश्मन चीन भी भारतीय अर्थव्यवस्था का दोहन करने के बावजूद आंख दिखा रहा है। उस दिन अंतर्जाल पर एक ब्लाग पर पढ़ने को मिला कि एक स्थान पर चीन की कंपनी अपने यहां से अनेक कर्मचारी लायी है जो यहां अपने यहां कार्यरत भारतीय कर्मचारियों से अधिक वेतन पाते हैं।  इससे तो यह जाहिर हो रहा है कि चीन के लोगों को भी भारत रोजगार दे रहा है।  चीन बड़ी चालाकी से अन्य विषयों को राजनीति से अलग कर आगे बढ़ा रहा है पर उसने यह सुविधा अमेरिका को नहीं दी।  मंदी की मार से जूझ रहे अमेरिका को अपने देश के बेरोजगारों के साहबी किस्म की नौकरी चाहिये-जहां तक शारीरिक श्रम की बात है तो विश्व भर के गोरे देशों के लोग  उससे दूर रहते हैं और एशियाई देशों के लोग ही वहां पहुंचकर उनकी गुलामी करते हैं।  यह साहबी किस्म की नौकरी अब एशियाई देशों में सुलभ है। इस मामले में भारत से बड़ा बाजार चीन है।  चीन में भी तिब्बत का एक बहुत बड़ा भूभाग है जहां विकास की संभावनाएं हैं और वहां अमेरिका अपनी दृष्टि रख सकता है। संभव है चीन उसकी कंपनियों और लोगों को वहां घुसने का अवसर प्रदान करे ।

अमेरिका भारत से पूरा फायदा बिना किसी राजनीतिक सुविधा के ले रहा है इसलिये परवाह नहीं करता है पर चीन बहुत चालाक है। इसके अलावा तिब्बत का बहुत बड़ा भूभाग जहां अभी विदेशियों का जाना कठिन है वह भी अमेरिका के लिये सहज सुलभ हो सकता है।  दूसरी बात यह है कि अमेरिका हथियारों को बहुत बड़ा सौदागर है और तिब्बती हिंसक नहीं है।  इतने बरसों से वह अपनी आजादी के लिये जूझ रहे हैं पर उन्होंने हिंसा के लिये कोई हथियार खरीदने की मुहिम नहीं चलाई जिससे वह किसी पश्चिम देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत कर सकें।  यही कारण है कि पश्चिमी देशों की तिब्बतियों से केवल शाब्दिक सहानुभूति रही है वह भी इसलिये कि कभी कभी चीन की राजनीतिक रूप से बांह मरोड़ सकें। अब जबकि पश्चिमी देश लाचार हो गये हैं इसलिये उसका बाजार पाने के लिये उनके पास इसके अलावा कोई चारा नहीं था कि वह तिब्बत को उसका हिस्सा माने।

अब समस्या भारतीय बुद्धिजीवियों और चिंतकों के सामने है। वह यह कि अभी तक यहां के चिंतक इस बात से आश्वस्त थे कि अमेरिका और पश्चिमी देशों का तिब्बत को लेकर चीन से हमेशा लड़ते रहेंगेे। इस तरह वह चीन विरोध मंच पर हमारे साथ हमेशा खड़े मिलेंगे।  ऐसे में चीन से सीधे टकराव की बात सोचने वह बचते रहे। अब स्थिति बदल गयी है। चीन के लिये तिब्बत की समस्या बहुत गंभीर है और दलाई लामा भारत में ही रहते हैं।  पश्चिम का जो सुरक्षित वैचारिक आवरण था जिसके सहारे भारतीय बुद्धिजीवी और चिंतक अपने वक्तव्य सुरक्षित अनुभव करते हुए देते थे, अब वह नहीं रहा।  स्पष्टतः चीन के साथ सीधा टकराव करते हुए लिखना और बोलना पड़ेगा, शायद यही बात भारतीय बुद्धिजीवियों को परेशान किये हुए है। वैसे एक बात तय है कि अगर चीन पर भारत आर्थिक दबाव डाले तो वह भी उसी तरह कई विषयों से पीछ हट सकता है। एक बात याद रहे चीन का बना सामान हमारे यहां बिकता है पर उसका खुद का बाजार कोरियो और जापानी सामानों से वैसे ही पटा पड़ा है जैसा उसके सामानो को हमारे यहां-ऐसे समाचार आये दिन अखबार तथा अंतर्जाल पर पढ़ने को मिल जाते हैं। सबसे आश्चर्य तो इस बात का है कि जब भारत ने तिब्बत विवाद से स्वयं पीछे हटने का निर्णय लिया तब उससे अरुणांचल पर ही ऐसी राय रखने के लिये बाध्य क्यों नहीं किया? चीन की सामरिक ताकत बहुत है पर भारत कोई कम नहीं है। अगर उससे हमें तबाही का भय है तो वह भी हमारी शक्ति को देखते हुए कोई उससे मुक्त नहीं है। मुख्य विषय है आर्थिक आधार जिसके संदर्भ देते हुए उससे भारतीय बुद्धिजीवी और चिंतक प्रचार माध्यमों के द्वारा उसे चेताते रहें।

एक बाद यह भी तय करना चाहिये कि आर्थिक रूप से परेशान अमेरिका अब किसी भी आधार पर भारत को वैचारिक समर्थन नहीं देगा। आपको याद होगा उसने बाहर के लोगों को अमेरिका में नौकरी कम देने का फैसला किया तो उसके आर्थिक विशेषज्ञों ने इसका विरोध किया क्योंकि अनेक प्रकार की ऐसी नौकरियां ऐसी हैं जो अमेरिकन करते ही नहीं और करते हैं तो उनका वेतन अधिक होता है।   इस पर भारत और चीन में साहबी किस्म की नौकरियों के लिये ब्रिटेन और अमेरिका दोनों ही हाथ पंाव मार रहे हैं।  उनके राजनीतिक हित आर्थिक लाभ के आसपास ही घूमते हैं।   अब वह अपने ही गुलाम रहे इन दो देशों में-चीन और भारत-साहबी किस्म की नौकरियों के लिये अपने लोग भेजना चाहते हैं।  बदले में अपनी गुलामी किस्म की नौकरियों के लिये वह अपने यहां इन्हीं देशों से लोग बुलाते भी हैं। ऐसे में अगर भारत के बुद्धिजीवी और चिंतक आक्रामक ढंग से प्रचार माध्यमों में अपने आर्थिक आधार पर अन्य विषयों को भी जोड़कर रखें तो संभव है कि चीन थोड़ा सतर्क रहे। कम से कम भारतीय प्रचार माध्यमों की ताकत इतनी तो है कि चीन भी उनसे परेशान रहता है।  वैसे आजकल प्रचार माध्यमों से जो कहा जाता है उसका प्रभाव रहता ही इससे इंकार करना कठिन है। एक बात निश्चित है कि तिब्बत चीन का हिस्सा नहीं है और वह अपनी सम्राज्यवादी नीति के कारण वह जमा हुआ है जो उसने पश्चिम से उधार ली है।






कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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1 comment:

अनुनाद सिंह said...

आपने उक्त विषय पर अत्यन्त सम्यक चिन्तन किया है। भारत के तथाकथित बुद्धिजीवी केवल कागजी टाइगर हैं जो उत्तम कोटि के नकलची हैं। चीन के बुद्धिजीवी, अपनी भाषा-संस्कृति से प्रेम करने वाले और मौलिक सोच रखने वाले लोग हैं। भारत और चीन में यही मौलिक अन्तर है।

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