Tuesday, March 09, 2010

संतों का कर्म और आचरण प्रमाणिक होना चाहिये-हिन्दी लेख (sadhu aur santon ka achran-hindi article)

अपने आपको धर्मात्मा कहलाने की चाहत किसे नहीं होती। कई लोग तो ऐसे हैं जो धर्म के नाम पर न तो दान करते हैं न ही भक्ति उनको भाती है पर दूसरों के सामने अपने धर्मात्मा होने का बखान जरूर करते हैं। कुछ तो ऐसे हैं जो सर्वशक्तिमान के दरबार में हाजिरी लगाने ही इसलिये जाते हैं ताकि लोग देखें और उनका भक्त या धर्मात्मा समझें। सीधी बात कहें तो यह सामान्य मनुष्य की कमजोरी है कि वह सदाचारी, संत धर्मात्मा और बुद्धिमान दिखना चाहता है-यह अलग बात है कि अपने कर्म से उसे प्रमाणित करने की बजाय वह उसे अपनी वाणी या अदाओं से ही अपना उद्देश्य हल करना चाहता है। ऐसे में उन लोगों की क्या कहें जिनके पास सदाचारी, संत, धर्मात्मा और बुद्धिमान जैसे ‘विशेष उपाधियां’ एक साथ मौजूद रहती हैं।
इस समय देश के अधिकतर प्रसिद्ध संत व्यवसायिक हैं। उनके प्रवचन कार्यक्रमों में असंख्य श्रद्धालू भक्त आते हैं। इनमें कुछ समय पास करने तो कुछ ज्ञान प्राप्त करने के लिये वहां अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं और जैसा कि पहले ही बताया गया है कि कुछ लोग अपनी छबि निर्माण के लिये भी वहां जाते हैं। अगर ऐसे संत प्रवचन कार्यक्रमों के अलावा कोई दूसरा काम न करें तो भी उनके साधु, संत या धर्मात्मा की उपाधि उनसे कोई छीन नहीं सकता। उनकी छबि यह है कि ज्ञानी भक्त भी उनकी वंदना न करने के बावजूद उनकी समाज को मार्गदर्शन करने के विषय में उनकी भूमिका स्वीकार करते हैं। इसके बावजूद ऐसी महान विभूतियां संतुष्ट नहीं होती। दरअसल उनका असंतोष इस बात को लेकर भड़कता है कि वह पुराने धार्मिक पात्रों की कथाओं का बोझ ढोते हैं पर स्वयं उनकी सर्वशक्तिमान जैसी छबि नहीं बन पाती। वह संत या साधु होने की छबि से ऊपर उठकर ‘सर्वशक्तिमान’ जैसी उपाधि पाना चाहते हैं। उनके अंदर जब यह भावना पनवती है तब शुरु होता है माया का तांडव। तब वह अपनी अर्जित संपत्ति से कथित रूप से दान पुण्य कर दानी की वैसी ही छबि भी पाना चाहते हैं जैसी कि धनपतियों की होती है।

बड़े बड़े ऋषि, महात्मा और संत इस माया की विकरालता की पहचान बता गये हैं। सच तो यह है कि माया संतों की दासी होती है पर शुरुआत में ही। बाद में वह संत ही उसके दास होते हैं। संतों के पास माया आयी तो वह उनकी बुद्धि भी हर लेती है-वैसे अनेक संत और साधु इससे अपने को बचाये रखने का कमाल कर चुके हैं तब भी कथित रूप से उनके अनुयायी होने का दावा करने वाले कुछ साधु और संत उस माया से संसार पर प्रभाव जमाने लगते हैं। तब यह भी पता लगता है कि किताबों से रटा हुआ उनका ज्ञान केवल सुनाने के लिये है। अनेक संत बड़े बड़े आश्रम बनवाने लगते हैं। विद्यालय खोलने लगते हैं। इतना ही नहीं दानवीर और दयालु भाव दिखाते हुए लंगर, दान और उपहार वितरण भी करने लगते हैं जो कि आम धनिक का काम है। संतों का व्यवहार धनपति की तरह हो जाता है। तब यह समझ में नहीं आता कि आखिर यह संत अपने आपको इस सांसरिक झंझट में क्यों फंसा रहे हैं? धनपति मनुष्य को गरीब आदमी पर दया करना चाहिये। इसका आशय यह है कि वह अपने क्षेत्र में आने वाले गरीब लोगों के लिये रोजगार का प्रबंध करे और आवश्यक हो तो उनको दान भी करे। यह संदेश देना ही साधु और संतों का काम है। सदियों से ऐसा चलता आया है। इतना ही नहीं केवल संदेश देने और कथा करने वालों का भी यही समाज पेट पालता रहा है। यही कारण है कि समाज का एक भाग होते हुए भी साधु संत आम आदमी से ऊपर माने जाते हैं। उपदेश देने के अलावा दूसरा का न भी करें तब भी समाज के लोग उनको आदर देते हैं और उनको कभी अकर्मण्य होने का ताना नहीं देते।

मगर माया का अपना खेल है और उसे समझने वाले ज्ञानी ही उसमें नहीं फंसते। फंस जायें तो गेरुए वस्त्र पहनने वाले भी फंस जाये न फंसे तो आम जीवन जीने वाले भी बच जायें। अधिकतर आधुनिक व्यवसायिक संतों ने श्रीमद्भागवत गीता के ज्ञान से कितनों को संतुष्ट किया यह तो पता नहीं पर ऐसा करते हुए उन्होंने अपना विशाल आर्थिक सम्राज्य खड़ा कर लिया है-दूसरे शब्दों में कहें तो उन्होंने माया का शिखर ही खड़ा कर लिया।
माया का शिखर न कभी बेदाग होता है और न निरापद रह सकता है। आश्रम विशाल होगा तो उसमें सज्जन भक्त आयेगा तो भक्त के भेष में दुर्जन भी आयेगा। इसकी पहचान करने की शक्ति माया के तेज से आंखें ढंकी होने के कारण न तो संत कर सकते हैं ही उनके चेले। अगर विद्यालयों में हजारों बच्चे आते हैं तो उनके साथ कभी कोई दुर्घटना भी हो सकती है। कहीं भोजन बन रहा है तो उसमें कोई ऐसी चीज भी आ सकती है जो सभी को बीमार कर सकती है। कहीं दान या उपहार बंट रहा है तो भारी भीड़ भी हो सकती है जहां भगदड़ मचने पर लोग हताहत भी हो सकते हैं। तय बात है कि जहां सांसरिक कार्य है वहां संकट भी आ सकता है तब यह जिम्मा इन्हीं संतों पर आता है।
फिर यह संत ऐसे खतरे क्यों मोल लेते हैं?
दरअसल श्रीगीता का ज्ञान बहुत सुक्ष्म और संक्षिप्त है पर गुढ़ कतई नहीं है-जैसा कि कथित संत प्रचारित करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने इसमें यह साफ कर दिया है कि हजारों में कोई एक मुझे हृदय से भजता है और उनमें कोई एक मुझे पाता है। इस एक तरह के लोग भी हजारों में होते हैं जिनमें कोई एक मुझे प्रिय होता है। श्रीगीता का यह गणित इस संसार के मानवीय स्वभाव के सूत्र बताता है-ढूंढने वाले चाहें तो ढूंढ सकते हैं। अगर यह संत ऐसे ज्ञान बनाने या ढूंढने चलें तो इनका इतना विशाल सम्राज्य खड़ा नहीं हो सकता। ज्ञानी लोग माया का पीछा नहीं करते बल्कि जितना है उतने से ही संतुष्ट हो जाते हैं। समस्या यह भी है कि ऐसे ज्ञानी इन संतों के पास जायेंगे क्यों? गये तो फिर पैसा क्यों देंगे? कथित संतों की दृष्टि से ऐसे ज्ञानियों की महिमा यूं भी कही जा सकती है कि ‘नगा नहायेगा क्या, निचोड़ेगा क्या?’
यही कारण है कि यह व्यवसायिक संत लोकप्रियता बनाये रखने के लिये सस्ते किस्म के काम करने लगते हैं जिससे लोग प्रभावित तो होते ही हैं माया भी पास बनी रहती है-प्रत्यक्ष रूप से दासी जो ठहरी, अप्रयत्क्ष रूप से दास को बचाये रहती है। संत का काम दान देना है लेना नहीं। सच तो यह है कि कुछ ज्ञानी लोग संतों के लंगर आदि में जाना या उपहार लेना पसंद भी नहीं करते क्योंकि वह मानते हैं कि वह इसके लिये कुपात्र हैं।
कथित व्यवसायिक संत शुद्ध रूप से राजनीतिक दृष्टिकोण से चलते हैं। जिस तरह राजनीति में गरीबों, बेसहारों, और बीमारों की सेवा की बात कही जाती है वैसा ही यह लोग करते हैं। समाज के शक्तिशाली, विशिष्ट, तथा धनिक वर्ग का यह मानवीय दायित्व है कि वह बिना मांगे गरीब की आर्थिक देखभाल, बेसहारों की सहायता और बीमारों के लिये इलाज का इंतजार कराये पर जब यह संत स्वयं काम करने लगें तो यह मान लेना चाहिये कि उनको अपने भक्तों और शिष्यों पर भरोसा ही नहीं है। ‘अहम ब्रह्मा’ का भाव उनको पूरे समाज के प्रति अविश्वसीय बना देता है।
समझ में नहीं आता कि आखिर यह संत किस दिशा में जा रहे हैं? हां, अगर हम मान लें कि यह मायापति हैं और उन्हें ऐसा ही करना चाहिए। फिर भी बात यहीं खत्म भी नहीं होती। इनमें कुछ संत सर्वशक्तिमान का अवतार होने का दावा करते हैं। यह एक तरह का मजाक है। थोड़ी देर के लिये हम धार्मिक होकर विचार करें। हमारे प्राचीन ग्रंथों में भगवान के जो अवतार वर्णित हैं वह सभी सांसरिक कर्म में ‘सक्रियता’ के प्रतीक हैं और उनमें कहीं न कहीं योद्धा होने का बोध होता है। उन्होंने हर अवतार में समाज के संकटों का प्रत्यक्ष होकर निवारण किया है। दुष्टों के सामने सीधे जाकर उनका सामना किया है। कहने का तात्पर्य यह है कि कम से कम साधु और संत की सीमित भूमिका उनकी किसी भी अवतार में नहीं है। तब यह संत किस तरह दावा करते हैं कि वह अमुक स्वरूप का दूसरा अवतार हैं? न उनको अस्त्रों शस्त्रों का ज्ञान और न ही किसी दुष्ट के सामने सीधे जाकर उससे टकराने की क्षमता। मगर माया जब सिर चढ़कर बोलती है और भगवान का अवतार साबित करने के लिये वह लोग ऐसे काम करते हैं जो सामान्य लोगों को करना चाहिए।
आखिर बात ज्ञान और माया की स्थिति की। रहीम एक राज दरबार में कार्यरत थे, मगर कबीर तो एक मामूली जुलाहा थे। मीरा राजघराने की थी पर तुलसीदास तो एक सामान्य परिवार के थे। भगवान श्रीराम और श्रीसीता का जन्म राजघराने मेेें हुआ पर दोनों ने 14 बरस वन में गुजारे। भगवान श्री कृष्ण का जन्म गौपालक परिवार में हुआ और जिन्होंने जीवन संघर्ष कर धर्म की स्थापना करते हुए श्रीमद्भागवत गीता के रूप में एक अमृत ग्रंथ प्रदान किया। संत रैदास भी एक अति सामान्य परिवार के थे। श्रीगुरुनानक जी का जन्म एक व्यापारी परिवार में हुआ पर उन्होंने भारतीय अध्यात्म को अपनी ज्ञान से एक नयी दिशा दी। कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे देश में अनेक महापुरुष हुए है पर किसके पास कितनी माया या धन था इसे इतिहास दर्ज नहीं करता बल्कि उन्होंने अध्यात्मिक दृष्टि से भारतीय धर्म और संस्कृति को कितना प्रकाशित किया इसकी व्याख्या करता है। भारतीय अध्यात्म की पहली शर्त यही है कि आपका ज्ञान और आचरण एक जैसा होना चाहिये तभी आपको मान्यता मिलेगी वरना तो बेकार की नाटकबाजी कर तात्कालिक लोकप्रियता-जो कि एक तरह से भ्रम ही है-प्राप्त कर लें पर उससे आप स्वयं इस संसार से अपना उद्धार नहीं करेंगे दूसरे का क्या करेंगे?
वैसे संतों की निंदा या आलोचना वर्जित है पर यहां यह भी बात याद रखने लायक है कि इसके लिये भी उनकी परिभाषा है वह यह कि लोगों के मानने के अलावा उनका आचरण भी वैसा ही प्रमाणिक हो। गेरुए या सफेद वस्त्र पहनने वाले हर व्यक्ति को संत, सन्यासी या साधु मान लिया जाये यह कहीं नही लिखा। ऐसे में जो संतों का चोला पहनकर धर्म का व्यापार कर रहे हैं उन पर लिखना बुरा नहीं लगता खास तौर से जब कथित साधु संत अपनी ही छबि से संतुष्ट नहीं होते।



कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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