जैसे जन वैसे ही उनके नेता हैं,
जिंदगी में हर कोई लाभ लेता है।
कहें दीपकबापू परमार्थी भी
स्वार्थ से रिश्ता निभा देता है।
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दिन महीने और वर्ष बीत गये,
वादे अपने रूप रचते रहे नये।
कहें दीपकबापू मिले न हमदर्द
इंसान ही बना रहे दर्द रोज नये।।
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भ्रष्टाचारियों पर पैसे बरसे हैं,
ईमानदार रुपये के लिये तरसे हैं।
कहें दीपकबापू जहां चमक है
वहीं पीछे बेईमानी के फरसे हैं।
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ठग भी इज्जतदारों में जुड़ जाते हैं,
पद पैसे के पंख से उड़ जाते हैं।
कहें दीपकबापू भरोसा बेचकर
सौदागर पीठ दिखा मुड़ जाते हैं।
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हवा में लटके आशियाने हैं,
बिना छत जमीन घर माने हैं।
कहें दीपकबापू बहती जिंदगी
हर पल झूलना ही सब ठाने हैं।
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हमारी बेबसी पर मत तरस खाना
हर बार गिर कर उठे हम।
‘दीपकबापू’
जब
चले
जीवन
की
राह
बेहिसाब खुशियां लुटीं रौंदे ढेर गम।
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