ईमानदारी की बात कहें हमें हड़ताल या बंद पसंद नहीं है। किसी भी प्रकार
के आंदोलन को सफल बनाने के लिये महात्मा गांधी ने सत्याग्रह, भूखहड़ताल और
आमरण अनशन जैसे उपायों की अविष्कार किया है जिनका उपयोग करना ही पर्याप्त
है। देश में मजदूरों, किसानो और अन्य कमजोर वर्गो के कल्याण के लिये इतने
प्रयास किये गये हैं कि अगर उन पर खर्च की गयी राशियां तथा कार्यक्रमों का
जोड़ किया जाये तो इस देश में हर आदमी को अमीर होना चाहिये। न तो सड़क पर
ठेला लगाते हुए कोई छोटा व्यवसायी दिखना चाहिये न ही शहरों के विस्तार के
लिये जूझते हुए मजदूर सामने हों।
मजदूरों और किसानों के भले के लिये जूझते अनेक लोग ऊंचाईयां छू रहे हैं पर उनकी कृपा का अब भी जमीन पर बरसने का इंतजार है। सच बात तो यह है कि समाज कल्याण जब से राज्य का विषय हुआ है तब से अनेक व्यवसायिक सेवक पैदा हो गये हैं।
जब हम देश में व्याप्त भ्रष्टाचार के किस्से देखते हैं तो हृदय कांप जाता है। अभी तक यह समझ में नहीं आता कि विकास कहा किसे जाता है। भूखे को रोटी मिल जाये तो वह उसे विकास समझता है और बेकार को काम मिले तो वह भी सोचता है कि उसका विकास हो गया। यह निज विकास है। मूल प्रश्न यह होना चाहिये कि आदमी के विचार और व्यवहार में विकास हुआ कि नहीं। जिनके पास पांव में नयी चप्पल खरीदने के पैसे नहीं थे अब वह कार में घूमे तो विकास दिखता है। उसकी समाज से दूरी हो जाती है। लोग उसके पास कम ही जा पाते हैं। उनको लगता है कि अब वह बड़ा आदमी हो गया है। मगर जो लोग उसके निकट होते हैं वह मानते है कि वह वाकई बड़ा आदमी है? मुंह पर भले ही निकट रहने वाले लोग प्रशंसा करें पर पीठ पीछे कह ही देते हैं कि भले ही उसके पास धन आया है पर औकात उसकी पुरानी है।
बात नजरिये की है। हम काम कर रहे हैं अंग्रेजों की व्यवस्था के अनुसार पर आशा करते हैं कि हमारे देश का रूप पुराना ही रहे। अंग्रेजों ने हम पर फूट डालो और राज करो की नीति अपनाकर राज्य किया। उन्होंने समाज को टुकड़ों में बांटकर राज्य किया और हमने उसे स्वीकार कर लिया। टुकड़ों में बंटा समाज आसानी से राज्य करने लायक हो जाता है। हमारा मानना है कि राज्य का काम समाज के सहज संचालन में योगदान देने से अधिक नहीं होना चाहिये पर हमारे देश के रणनीतिकार राज्य के दंड से समाज को सुधारना चाहते हैं। दूसरी बात यह कि राज्य का धन अधिक से अधिक पूंजीगत मदों उत्पादकता बढ़ाने के लिये होना चाहिये न कि कल्याण जैसे अनुत्पादक मदों पर अपना राजस्व नष्ट करना श्रेयस्कर है। अर्थशास्त्र का विद्यार्थी रहे होने के नाते हमारा मानना है कि इस देश में शुद्ध पेयजल, बिजली, और परिवहन मार्गो (सड़क, वायु तथा जल) के निर्माण में अधिक से अधिक धन खर्च किया जाना चाहिये था। दूसरी बात यह कि देश के अपराध रोकने तथा विदेशी से हमले का प्रतिकार करने के लिये पुलिस तथा सेना को पुख्ता करना भी राज्य की प्राथमिकता है यह भी सैद्धांतिक रूप से माना जाता है। इस पर अधिक माथापच्ची करना आवश्यक नहीं है क्योंकि राज्य की पहचान इन दो विषयों ही होती है।
जहां तक शिक्षा, स्वास्थ्य तथा रोजगार से संबंधित विषय हैं इन पर राज्य को मार्ग दर्शक सिद्धांत तो तय करना चाहिये पर इसके निजी क्षेत्र को ही कार्यरत देने के अवसर मिल तो ही ठीक है। उसी तरह जाति, क्षेत्र, भाषा, धर्म तथा लिंग के आधार पर समाज को बांट कर समाज के उद्धार का कल्पनातीत लक्ष्य छोड़ना ही बेहतर है। अगर लोगों को शुद्ध पेयजल, बाधाहीन सड़कें और बिजली पर्याप्त मात्रा में मिल जाये तो लोग स्वयं ही शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य के साधन जुटा लेंगे ऐसा हमारा विश्वास है। शुद्ध पेयजल, सड़क और बिजली की सुविधाओं का निर्माण केवल शहरों में नहीं होना चाहिये वरन् देश के प्रत्येक गांव में किया जाना चाहियै। यह हो नहीं रहा। हमारे देश के रणनीतिकार सब चीजें अपने हाथ में लेकर समाज का कल्याण निकलने चल पड़े हैं। न गरीबी हट रही है न समाज में स्वास्थ्य का स्तर ही अच्छा रह पाया है। उदारीकरण के नाम पर केवल धनपतियों को ही सुविधा मिल रही है। मध्यम और निम्न वर्ग के लोग अपने अस्तित्व के लिये संघर्ष कर रहा है जो अत्यंत चिंताजनक है।
मजदूरों और किसानों के भले के लिये जूझते अनेक लोग ऊंचाईयां छू रहे हैं पर उनकी कृपा का अब भी जमीन पर बरसने का इंतजार है। सच बात तो यह है कि समाज कल्याण जब से राज्य का विषय हुआ है तब से अनेक व्यवसायिक सेवक पैदा हो गये हैं।
जब हम देश में व्याप्त भ्रष्टाचार के किस्से देखते हैं तो हृदय कांप जाता है। अभी तक यह समझ में नहीं आता कि विकास कहा किसे जाता है। भूखे को रोटी मिल जाये तो वह उसे विकास समझता है और बेकार को काम मिले तो वह भी सोचता है कि उसका विकास हो गया। यह निज विकास है। मूल प्रश्न यह होना चाहिये कि आदमी के विचार और व्यवहार में विकास हुआ कि नहीं। जिनके पास पांव में नयी चप्पल खरीदने के पैसे नहीं थे अब वह कार में घूमे तो विकास दिखता है। उसकी समाज से दूरी हो जाती है। लोग उसके पास कम ही जा पाते हैं। उनको लगता है कि अब वह बड़ा आदमी हो गया है। मगर जो लोग उसके निकट होते हैं वह मानते है कि वह वाकई बड़ा आदमी है? मुंह पर भले ही निकट रहने वाले लोग प्रशंसा करें पर पीठ पीछे कह ही देते हैं कि भले ही उसके पास धन आया है पर औकात उसकी पुरानी है।
बात नजरिये की है। हम काम कर रहे हैं अंग्रेजों की व्यवस्था के अनुसार पर आशा करते हैं कि हमारे देश का रूप पुराना ही रहे। अंग्रेजों ने हम पर फूट डालो और राज करो की नीति अपनाकर राज्य किया। उन्होंने समाज को टुकड़ों में बांटकर राज्य किया और हमने उसे स्वीकार कर लिया। टुकड़ों में बंटा समाज आसानी से राज्य करने लायक हो जाता है। हमारा मानना है कि राज्य का काम समाज के सहज संचालन में योगदान देने से अधिक नहीं होना चाहिये पर हमारे देश के रणनीतिकार राज्य के दंड से समाज को सुधारना चाहते हैं। दूसरी बात यह कि राज्य का धन अधिक से अधिक पूंजीगत मदों उत्पादकता बढ़ाने के लिये होना चाहिये न कि कल्याण जैसे अनुत्पादक मदों पर अपना राजस्व नष्ट करना श्रेयस्कर है। अर्थशास्त्र का विद्यार्थी रहे होने के नाते हमारा मानना है कि इस देश में शुद्ध पेयजल, बिजली, और परिवहन मार्गो (सड़क, वायु तथा जल) के निर्माण में अधिक से अधिक धन खर्च किया जाना चाहिये था। दूसरी बात यह कि देश के अपराध रोकने तथा विदेशी से हमले का प्रतिकार करने के लिये पुलिस तथा सेना को पुख्ता करना भी राज्य की प्राथमिकता है यह भी सैद्धांतिक रूप से माना जाता है। इस पर अधिक माथापच्ची करना आवश्यक नहीं है क्योंकि राज्य की पहचान इन दो विषयों ही होती है।
जहां तक शिक्षा, स्वास्थ्य तथा रोजगार से संबंधित विषय हैं इन पर राज्य को मार्ग दर्शक सिद्धांत तो तय करना चाहिये पर इसके निजी क्षेत्र को ही कार्यरत देने के अवसर मिल तो ही ठीक है। उसी तरह जाति, क्षेत्र, भाषा, धर्म तथा लिंग के आधार पर समाज को बांट कर समाज के उद्धार का कल्पनातीत लक्ष्य छोड़ना ही बेहतर है। अगर लोगों को शुद्ध पेयजल, बाधाहीन सड़कें और बिजली पर्याप्त मात्रा में मिल जाये तो लोग स्वयं ही शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य के साधन जुटा लेंगे ऐसा हमारा विश्वास है। शुद्ध पेयजल, सड़क और बिजली की सुविधाओं का निर्माण केवल शहरों में नहीं होना चाहिये वरन् देश के प्रत्येक गांव में किया जाना चाहियै। यह हो नहीं रहा। हमारे देश के रणनीतिकार सब चीजें अपने हाथ में लेकर समाज का कल्याण निकलने चल पड़े हैं। न गरीबी हट रही है न समाज में स्वास्थ्य का स्तर ही अच्छा रह पाया है। उदारीकरण के नाम पर केवल धनपतियों को ही सुविधा मिल रही है। मध्यम और निम्न वर्ग के लोग अपने अस्तित्व के लिये संघर्ष कर रहा है जो अत्यंत चिंताजनक है।
लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा "भारतदीप"
ग्वालियर, मध्यप्रदेश
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior, Madhya pradesh
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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