होली का पर्व पूरे देश में मनाया जा रहा है। जब हम किसी त्यौहार की
बात करते हें तो उसके दो पहलू हमारे सामने होते हैं-एक अध्यात्मिक दूसरा
सामाजिक। हम अपने पर्वों पर हमेशा ही सामाजिक दृष्टिकोण से विचार करते
हैं। यह माना जाता है कि लोग इस अवसर पर एक दूसरे मिलते हैं जिससे उनके बीच
संवाद कायम होता है जो कि आपसी सामंजस्य मनाये रखने के लिये यह आवश्यक
है। अपने नियमित काम से बचता हुआ आदमी जब कोई पर्व मनाता है तो यह अच्छी
बात है। इस अवसर पर सामाजिक समरसता बनने का दावा भी किया जाता है। वैसे
हमारे देश में अनेक पर्व मनाये जाते हैं। पूरा देश ही हमेशा पर्वमय रहता
है। अगर मई जून के गर्मी के महीने छोड़ दिये जायें तो हर महीने कोई न कोई
त्यौहार होता है इसलिये किसी खास त्यौहार में सामजिक सरोकार ढूंढना व्यर्थ
है।
इसके अलावा हमारे देश में तो अब मगलवार को हनुमानजी और सोमवार के दिन भगवान शिव के मंदिर के अलावा गुरुवार को सांई बाबा के मंदिर में भी भीड़ रहती है। आम भक्त को कभी कहीं जाने में परहेज नही होती। इसके अलावा अब तो रविवार लोगों के लिये वैसे भी अध्यात्मिक दिवस बन गया है-हालांकि इसके पीछे अंग्रेजी संस्कृति को अपनाना ही है। यह अलग बात है कि अवकाश की वजह से लोग अब अपने ढंग से छुट्टियां मनाते हैं। कोई अपने गुरु के दरबार जाता है तो कोई कहीं किसी तीर्थस्थान की तरफ निकल जाता है। जहां तक समाज में औपचारिक मिलन की बात है तो दिवाली, राखी, रामनवमी, कृष्णजन्माष्टमी तथा अन्य अनेक पर्व आते हैं। लोग एक दूसरे से मिलते हैं। मिलन से भीड़ एकत्रित होती है और वहां चहलपहल के वातावरण में एकांत साधना या ध्यान का कोई स्थान नहीं होता जो कि अध्यात्मिक शांति के लिये आवश्यक है।
इन पर्वो का अध्यात्मिक महत्व भी है। एकांत में बैठकर चिंत्तन और ध्यान कर हम अपने ज्ञान चक्षुओं को जाग्रत कर सकते हैं जो जागते हुए भी बंद रहते हैं। होली रंगों का पर्व है पर इसका मतलब यह कतई नही है कि केवल भौतिक पदार्थ ही रंगीन होते हैं। दुनियां का हर रंग हमारे अंदर हैं। जिस तरह हिन्दी साहित्य में नौ रस है वैसे शब्दों के रंग भी हैं। अलंकार भी हैं। उनका कोई भौतिक अस्तित्व नहीं दिखता क्योंकि शब्दों ही जो भाव होता है उसमें रंग, रस और अलंकार की अनुभूति होती हैं। सीधा आशय यह है कि खेल केवल बाहर ही नहीं अपने ंअंतर में भी हो सकता है। यह क्या बात हुई हृदय में सूखा है और बाहर पानी बरसा रहे हैं। दिमाग में कोई रंग नहंी है पर बाहर हम मिट्टी को रंगकर होली मना रहे हैं। रसहीन विचार होते हैं पर उल्लास का पाखंड करते हैं।
मूल बात यह है कि सुख पाना चाहते हैं पर वह उसका स्वरूप क्या है? यह समझना अभी बाकी है। लोग अपना मन बहलाने के लिये ताजमहल, कुतुबमीनार या कश्मीर जाते हैं। वहां जाकर अपने घर लौट आते हैं। सुख मिला कि पता नहीं पर घर आकर सफर की थकान मिटाते हुए उनको पसीना आ जाता है। उस दिन एक सज्जन कुंभ से लौटे तो दो दिन तक घर में पड़े रहे। दूसरे सज्जन ने पूछा-‘‘क्या बात है, आपकी तबियत ठीक नहीं है?’’
उन्होंने जवाब दिया-‘‘नहीं यार, कुंभ गया था। बड़ा परेशान हुआ। अब थकान की वजह से बुखार आ गया है। इसलिये आराम कर रहा हूं।’’
क्या उन्होंने वाकई कुंभ में नहाने का सुख लिया। सुख लेने के बाद शरीर में स्फूर्ति होना चाहिये। यदि थकान है तो फिर सुख कहां गया?
सुख लेने या खुश होने के तत्व शरीर में अगर न हों तो फिर कोई इच्छित वस्तु, विषय या व्यक्ति के निकट होने पर भी न दिमाग को राहत मिलती है न ही देह विकार रहित हो पाती है। आज के मिलावटी तथा महंगाई के युग में तो भौतिकता से वैसे भी सभी को सुख मिलना संभव नहीं है। जिनके पास माया का भंडार है वह भी सुखी नहीं है जिसके पास नहीं है तो उसके सुखी होने की बात सोचना की गलत है। हमें तो अपने अंदर आनंद प्राप्त करने के लिये योगासन, प्राणायाम तथा ध्यान के अलावा कोई मार्ग नहीं दिखता। यह एकांत में ही संभव है। कहीं भीड़ में जाकर आनंद ढूंढना एक व्यर्थ प्रयास है। वहां से केवल थकावट साथ आती है सुख या खुशी मिलना तो एक स्वप्न होकर रह जाता है।
होली का पर्व अपने अध्यात्मिक महत्व के कारण अत्यंत रंगीन है। मगर सच बात तो यह भी है कि इस पर्व को अत्यंत संकीर्ण बना दिया गया है। अनेक शहरों में जिन लोगों आज से बीस साल पहले तक की होली देखी होगी उनका मन कड़वाहर से भर जाता होगा। उसमें होली के नाम हुड़दंग के अलावा दूसरों को अपमानित करने वालों ने इसे बदनाम किया। कीचड़ फैंकना, नाली में किसी को गिराना, पगड़ी या गमछा कांटे से खींचना आदि ऐसे प्रसंग जो एक समय इसका हिस्सा थे। अनेक लोग जबरदस्ती किसी दूसरे पर रंग डाल या मुंह काला कर अपनी भड़ास निकालते या अपनी शक्ति दिखाते थे। अब पुलिस तथा प्रशासन की मुस्तैदी के चलते रास्तों में ऐसी बदतमीजी करना खतरे से खाली नहीं है। इसी कारण ऐसी घटनायें कम हो गयी हैं। फिर अब समय बदल गया है पर फिर भी पुराने लोग आशंकित रहते ही है। जो लोग इस पर्व की प्रशंसा करते हैं वह जाकर शहरों की हालत देख लें। रंग खेलने के समयकाल में सड़कों में भीड़ एकदम इतनी कम हो जाती है जैसे कर्फ्य लगा हो। अनेक लोग घर में दुबक जाते हैं। वह तो गनीमत है कि अब मनोरंजन के लिये बहुत सारे साधन हो गये हैं पर जब कम थे तब भी अनेक भले लोग बोरियत झेलते पर घर के बाहर नहीं आते थे।
बहरहाल जिन लोगों को होली भौतिक रंगों से खेलनी है वह खेलें, मगर जिन लोगों को रंगों से परहेज है वह ध्यान और चिंत्तन कर अपना समय निकालें। उनको होली जैसा एकांत मिलना मुश्किल है। अध्यात्मिक शांति के लिये एकांत में ध्यान के साथ चिंत्तन करना आवश्यक है। इस होली पर इतना ही। सभी को होली की ढेर सारी शुभकामनायें।
लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा "भारतदीप"इसके अलावा हमारे देश में तो अब मगलवार को हनुमानजी और सोमवार के दिन भगवान शिव के मंदिर के अलावा गुरुवार को सांई बाबा के मंदिर में भी भीड़ रहती है। आम भक्त को कभी कहीं जाने में परहेज नही होती। इसके अलावा अब तो रविवार लोगों के लिये वैसे भी अध्यात्मिक दिवस बन गया है-हालांकि इसके पीछे अंग्रेजी संस्कृति को अपनाना ही है। यह अलग बात है कि अवकाश की वजह से लोग अब अपने ढंग से छुट्टियां मनाते हैं। कोई अपने गुरु के दरबार जाता है तो कोई कहीं किसी तीर्थस्थान की तरफ निकल जाता है। जहां तक समाज में औपचारिक मिलन की बात है तो दिवाली, राखी, रामनवमी, कृष्णजन्माष्टमी तथा अन्य अनेक पर्व आते हैं। लोग एक दूसरे से मिलते हैं। मिलन से भीड़ एकत्रित होती है और वहां चहलपहल के वातावरण में एकांत साधना या ध्यान का कोई स्थान नहीं होता जो कि अध्यात्मिक शांति के लिये आवश्यक है।
इन पर्वो का अध्यात्मिक महत्व भी है। एकांत में बैठकर चिंत्तन और ध्यान कर हम अपने ज्ञान चक्षुओं को जाग्रत कर सकते हैं जो जागते हुए भी बंद रहते हैं। होली रंगों का पर्व है पर इसका मतलब यह कतई नही है कि केवल भौतिक पदार्थ ही रंगीन होते हैं। दुनियां का हर रंग हमारे अंदर हैं। जिस तरह हिन्दी साहित्य में नौ रस है वैसे शब्दों के रंग भी हैं। अलंकार भी हैं। उनका कोई भौतिक अस्तित्व नहीं दिखता क्योंकि शब्दों ही जो भाव होता है उसमें रंग, रस और अलंकार की अनुभूति होती हैं। सीधा आशय यह है कि खेल केवल बाहर ही नहीं अपने ंअंतर में भी हो सकता है। यह क्या बात हुई हृदय में सूखा है और बाहर पानी बरसा रहे हैं। दिमाग में कोई रंग नहंी है पर बाहर हम मिट्टी को रंगकर होली मना रहे हैं। रसहीन विचार होते हैं पर उल्लास का पाखंड करते हैं।
मूल बात यह है कि सुख पाना चाहते हैं पर वह उसका स्वरूप क्या है? यह समझना अभी बाकी है। लोग अपना मन बहलाने के लिये ताजमहल, कुतुबमीनार या कश्मीर जाते हैं। वहां जाकर अपने घर लौट आते हैं। सुख मिला कि पता नहीं पर घर आकर सफर की थकान मिटाते हुए उनको पसीना आ जाता है। उस दिन एक सज्जन कुंभ से लौटे तो दो दिन तक घर में पड़े रहे। दूसरे सज्जन ने पूछा-‘‘क्या बात है, आपकी तबियत ठीक नहीं है?’’
उन्होंने जवाब दिया-‘‘नहीं यार, कुंभ गया था। बड़ा परेशान हुआ। अब थकान की वजह से बुखार आ गया है। इसलिये आराम कर रहा हूं।’’
क्या उन्होंने वाकई कुंभ में नहाने का सुख लिया। सुख लेने के बाद शरीर में स्फूर्ति होना चाहिये। यदि थकान है तो फिर सुख कहां गया?
सुख लेने या खुश होने के तत्व शरीर में अगर न हों तो फिर कोई इच्छित वस्तु, विषय या व्यक्ति के निकट होने पर भी न दिमाग को राहत मिलती है न ही देह विकार रहित हो पाती है। आज के मिलावटी तथा महंगाई के युग में तो भौतिकता से वैसे भी सभी को सुख मिलना संभव नहीं है। जिनके पास माया का भंडार है वह भी सुखी नहीं है जिसके पास नहीं है तो उसके सुखी होने की बात सोचना की गलत है। हमें तो अपने अंदर आनंद प्राप्त करने के लिये योगासन, प्राणायाम तथा ध्यान के अलावा कोई मार्ग नहीं दिखता। यह एकांत में ही संभव है। कहीं भीड़ में जाकर आनंद ढूंढना एक व्यर्थ प्रयास है। वहां से केवल थकावट साथ आती है सुख या खुशी मिलना तो एक स्वप्न होकर रह जाता है।
होली का पर्व अपने अध्यात्मिक महत्व के कारण अत्यंत रंगीन है। मगर सच बात तो यह भी है कि इस पर्व को अत्यंत संकीर्ण बना दिया गया है। अनेक शहरों में जिन लोगों आज से बीस साल पहले तक की होली देखी होगी उनका मन कड़वाहर से भर जाता होगा। उसमें होली के नाम हुड़दंग के अलावा दूसरों को अपमानित करने वालों ने इसे बदनाम किया। कीचड़ फैंकना, नाली में किसी को गिराना, पगड़ी या गमछा कांटे से खींचना आदि ऐसे प्रसंग जो एक समय इसका हिस्सा थे। अनेक लोग जबरदस्ती किसी दूसरे पर रंग डाल या मुंह काला कर अपनी भड़ास निकालते या अपनी शक्ति दिखाते थे। अब पुलिस तथा प्रशासन की मुस्तैदी के चलते रास्तों में ऐसी बदतमीजी करना खतरे से खाली नहीं है। इसी कारण ऐसी घटनायें कम हो गयी हैं। फिर अब समय बदल गया है पर फिर भी पुराने लोग आशंकित रहते ही है। जो लोग इस पर्व की प्रशंसा करते हैं वह जाकर शहरों की हालत देख लें। रंग खेलने के समयकाल में सड़कों में भीड़ एकदम इतनी कम हो जाती है जैसे कर्फ्य लगा हो। अनेक लोग घर में दुबक जाते हैं। वह तो गनीमत है कि अब मनोरंजन के लिये बहुत सारे साधन हो गये हैं पर जब कम थे तब भी अनेक भले लोग बोरियत झेलते पर घर के बाहर नहीं आते थे।
बहरहाल जिन लोगों को होली भौतिक रंगों से खेलनी है वह खेलें, मगर जिन लोगों को रंगों से परहेज है वह ध्यान और चिंत्तन कर अपना समय निकालें। उनको होली जैसा एकांत मिलना मुश्किल है। अध्यात्मिक शांति के लिये एकांत में ध्यान के साथ चिंत्तन करना आवश्यक है। इस होली पर इतना ही। सभी को होली की ढेर सारी शुभकामनायें।
ग्वालियर, मध्यप्रदेश
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior, Madhya pradesh
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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