भारत
में रविवार का दिन अब आधुनिक समाज के अनेक लोगों के लिये अध्यात्म का दिन हो गया है।
हालांकि भारत में हर दिन ही अध्यात्म का दिन
है। सोमवार शिवजी, मंगलवार जी, बुधवार गणेश जी, गुरुवार सांईबाबा, शुक्रवार माता और शनिवार नवग्रहों का दिन माना जाता है। वैसे सांईबाबा के भक्तों ने गुरुवार का दिन शायद
इसलिये चुना क्योंकि इस दिन भगवान के किसी खास स्वरूप की पूजा या स्मरण नहीं किया जाता
वरन् बृहस्पति अपने आप में ही भगवत्स्वरूप माने जाते हैं। इस दिन कुछ लोग मांस मदिरा
लेना ठीक नहीं मानते। बृहज्ञनति बुद्धि के देवता हैं और गुरुवार का दिन वैसे ही
भारतीय जनमानस पवित्र मानता है। आधुनिक समय
में सांईबाबा को कथित रूप से सभी धर्मों के लिये पूज्यनीय प्रचारित कैसे और क्यों किया
गया, यह अलग
से बहस का विषय है।
सांईबाबा
के नाम पर भारत के अनेक क्षेत्रों में मंदिर बन गये हैं। जिनको बचपन से ही किसी आराध्य
देव मानने का ज्ञान नहीं मिला वह अंततः मन के खालीपन को भरने के लिये संाई के चमत्कारी
स्वरूप की तरफ आकर्षित हो ही जाता है। सांईबाबा के सभी धर्मों के लिये पूज्यनीय इसलिये भी प्रचारित
जाता है क्योंकि उनके साथ चमत्कार जुड़े हैं और किसी भी धर्म का आदमी हो वह अपने जीवन
में ऐसा होता देखना चाहता है जो वह स्वयं नहंी कर सकता। शिर्डी के सांईबाबा के मंदिर
में करोड़ों का चढ़ावा आता है। इससे एक बात तो
प्रमाणित होती है कि चमत्कारों के नाम पर आज भी लोगों का आकर्षित किया जा सकता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि धर्मनिरपेक्षता के
प्रतीक सांई बाबा के भक्त हिन्दू धर्म के देवी देवताओं की पूजा को अंधविश्वास जरूर
बताते हैं पर सच यह है कि सबसे ज्यादा अब अधंविश्वास सांई बाबा के मंदिरों पर ही दिखने
लगा है। लोग अपने नये वाहन लाकर सांईबाबा के
मंदिर के बाहर खड़ा उसकी पूजा करवाते हैं। ऐसा
किसी दूसरे मंदिर पर देखने को नहीं मिलता।
सांईाबाबा की प्रसिद्धि के पीछे बाज़ार
तथा प्रचार समूहों का प्रयास इसलिये भी दिखता है क्योंकि आधुनिक सामानों की पूजा की
सुविधा शायद भारतीय धर्म के स्मरणीय महापुरुषों के मंदिरों में नहीं मिलती। बाज़ार को
अपने उत्पाद धर्म के साथ जोड़े रखने हैं इसलिये संाईबाबा के मंदिर के बाहर इस तरह उनके
उत्पादों की पूजा प्रचार का ही काम करती है।
हमने बचपन में सांई बाबा का नाम सुना था पर लंबे समय तक उनके
मंदिर में नहंी गये। बाज़ार के बदलते स्वरूप
के साथ उनका प्रचार बढ़ा है इसलिये लगता है कि उनकी प्रसिद्धि बढ़ाने के पीछे आर्थिक
कारण भी रहे होंगे। शिर्डी में उनके मूल मंदिर
हम कभी नहीं गये पर विभिन्न शहरों में उनके मंदिरों पर भीड़ देखकर हमें यह लगता है कि
हमारे समाज में एक ऐसा वर्ग हमेशा रहा है जिसेे परमात्मा के भी नये स्वरूपों की जरूरत
होती है और इसी कारण हमारे आर्थिक तथा सामाजिक रणनीतिकार कभी कभी नये भगवान भी गढ़ लेते
है। उनके अनेक मंदिरों पर बहुत सारा चढ़ावा
आता होगा ऐसा माना जा सकता है।
वैसे देखा
जाये तो अध्यात्म शांति के लिये किसी मंदिर या मूर्ति की आवश्यकता नहीं होती। कहीं
आश्रम जाकर अपने दिल को यह तसल्ली देने की आवश्यकता नहीं होती कि हम भगवान के दर पर
आये हैं। वैसे भी हमारे यहां प्रातःकाल धर्म का माना गया है बाकी तो पूरा दिन तो अर्थ
के लिये होता है। अगर प्रतिदिन प्रातःकाल ही
धर्म के लिये व्यतीत किया जाये तो फिर किसी खास दिन की आवश्यकता नहीं होती। अनेक आधुनिक ज्ञान साधक तो सुबह पार्क में एक घंटा
भ्रमण करना भी धर्म का हिस्सा मानने लगे हैं। शरीर शुद्ध तो मन शुद्ध और मन शुद्ध तो
भगवान के साथ आत्मा का साक्षात्कार स्वतः होता है। कुछ लोग योगसाधना के समय आसन, प्राणायाम, ध्यान तथा मंत्र जाप करने
की क्रिया को ही धर्म निर्वाह मानकर तृप्त हो जाते हैं। उनकी यह तृप्ति उन्हें कहीं
दूसरी जगह जाकर परमात्मा की आराधना के लिये भटकने नहीं देती।
नीति
विशारद चाणक्य का कहना है कि अगर हृदय से पूजा की जाये तो पत्थर में भी भगवान का अनुभव
होता हैं। उन जैसे महान लोगों के प्रयासों से जहां हमारा अध्यात्म समृद्ध हुआ वहीं
भक्ति की हर प्रक्रिया को समाज ने स्वीकार किया।
अनेक भक्त निष्काम से मंदिर जाते हैं तो अनेक कामना लेकर जाते है। हमारे देश में मंदिरों का महत्व समय के साथ बढ़ता
रहा है। आखिर मंदिरों में जाने से शांति क्यों
मिलती है? इस प्रश्न का उत्तर हम तभी समझ सकते हैं
जब वहां के शांत, स्वच्छ तथा एकांत वातावरण का अध्ययन करें। हम गौर करें कि अधिकतर मंदिरों में चढ़ावा
आता है। इस धन का उपयोग व्यवस्थापक अपने यहां सफाई, स्वच्छता तथा पेयजल सुविधा निर्माण
के लिये करते हैं ताकि भक्त आते रहें। उनका
उद्देश्य व्यवसायिक होता है या भावनात्मक यह
अलग से विचार का विषय है। बहरहाल वहां प्रवेश
करते ही लगता है कि किसी अच्छी जगह पर आ गये।
यही अनुभूति ऐसी नवीनता देती है कि मनुष्य का मन प्रसन्न हो जाता हैं। इसके अलावा राह चलते हुए कहीं बैठने या रुकने के
लिये जगह नहंी है तो मंदिर में जाकर विश्राम कर सकते है। मंदिर ऐसी जगह है जहां प्रवेश
करने पर कोई आने के संबंध में सवाल नहीं करता।
मूल बात यह कि वहां हर कोई आदमी पवित्र हृदय वाला हो जाता है और उनको देखकर
एक सहज अनुभूति होती है।
रविवार के
दिन ही रोजगार की परीक्षाऐं भी होती हैं। हमने
रविवार के दिन एक बड़े मंदिर में देखा तो वहां अनेक युवक विराजमान थे। कोई कही बैंचों
पर ं बैठा तो कहीं चबूतरे पर सो रहा था। अनेक लड़के लंबी सीढियों पर ही बैठे थे। कोई
परीक्षा की किताब पढ़ रहा था तो कोई ऐसे ही बैठा इधर उधर देख रहा था। उनका सामान देखकर
लगा कि यकीनन बाहर से आये हैं। कोई बस से आया
होगा तो कोई रेल से आकर वहां विश्राम कर रहा था। उनके चेहरे पर थकावट साफ देखी जा सकती
है। रोजगार के लिये संघर्ष हमारे देश के युवकों
के लिये अत्यंत कठिन है। वह मंदिर में विश्राम
करने के लिये इसलिये आये होंगे क्योंकि उनकी परीक्षा प्रारंभ में समय होगा। मंदिर में भी उनका मन भगवान में कम होगा जितना अपने
भविष्य की चिंतायें या संभावनायें उनके मस्तिष्क को घेरे होंगी। एक बुजुर्ग भक्त ने उनकी तरफ इशारा करते हुए दूसरे
से टिप्पणी की कि-‘‘भगवान इन सबका भविष्य उज्जवल करे।’’
ऐसी
बातें मंदिरों में ही सुनी जा सकती हैं। जो लोग यह समझते हैं कि देश के युवाओं का यह संघर्ष उनका निजी है तो गलती
पर हैं। यह हमारे समाज की विकट समस्या है।
देश के आर्थिक रणनीतिकारों को इस पर विचार करना चाहिये। बहरहाल इस रविवार के विशेष लेख के रूप में इतना
ही।
लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा "भारतदीप"
ग्वालियर, मध्यप्रदेश
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior, Madhya pradesh
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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2 comments:
बहुत सुन्दर लेख और उतने ही सुन्दर ब्यक्त किये गये विचार ।।
जय रामजी ------------ हरिहर
बहुत सुन्दर आलेख और उतने ही सुन्दर व्यक्त किये गये विचार ।।
जय श्रीराम ------------ हरिहर
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