हमारे देश में अगले दो महीनों
में लोकसभा चुनाव 2014 संपन्न करने की तैयारी चल रही है। चुनावी राजनीति ने समय के
साथ अनेक रूप बदले हैं। वैसे देखा जाये तो राजनीति एक व्यापक अर्थ वाला है जिसे हम
राजसी प्रवृत्तियों से संपन्न कर सकते हैं।
चुनाव लड़कर पद पर जाना ही केवल राजनीति नहीं होती वरन् जीवन के समस्त अर्थ
कम ही राजनीति के मंत्रों से ही संपन्न किये जाते हैं। यह अलग बात है कि हमारे
वर्तमान पेशेवर बुद्धिजीवी इसे केवल चुनावी राजनीति से ही जोड़कर देखते हैं। वास्तविकता यह है कि चुनावी राजनीति, उद्योग, व्यवसाय, तथा कोई भी अन्य कार्य फल की प्राप्ति के लिये जो बाह्य दृष्टि से किया जाता है उसे ही राजसी कर्म कहा जाता है।
जब हम राजसी पुरुष की बात करें तो उसमें चुनावी राजनेता ही नहीं वरन् उद्योगपति,
अध्यात्म से इतर विषयों के साहित्यकार,
कलाकार, व्यवसायी, चिकित्सक, इंजीनियर और
पत्रकार सभी शामिल है। जहां तक सामूहिक सांसरिक हित की बात हो तो समाज सात्विक
लोगों की बजाय राजसी पुरुष से ही अपेक्षा करता है कि वह उसको संबल प्रदान
करेंगे। यही कारण है कि हमारे अध्यात्मिक
दर्शन में उन राजसी पुरुषों को सम्मान देने की बात करता है जो अपना दायित्व निभाते
हैं।
वर्तमान समय में हर क्षेत्र
में सक्रिय राजसी पुरुषों की छवि अब उतनी आकर्षक नहीं रही जितनी कभी रहा करती थी।
इसका कारण यह है कि समाज की अपेक्षा पर अधिकांश राजसी पुरुष खरे नहीं उतर पाये
हैं। हम सभी पर आक्षेप नहीं कर सकते कि वह
बुरे हैं क्योंकि अगर ऐसा होता तो हमारा समाज अभी तक ध्वस्त हो गया होता। हालांकि
यह भी सच है कि अगर सहृदय राजसी पुरुषों की संख्या अधिक होती तो यह समाज ऐसी
दुर्दशा में नहीं आता जैसा कि हम देख रहे हैं। देखा यह गया है कि समाज के सभी
क्षेत्रों में जो शिखर पर पहुंचें हैं वह आम इंसान को भेड़ समझते हैं जिसकी भीड़
लगाकर वह आत्मप्रचार कर अपना ही हित साधते हैं। यही कारण है कि उनके प्रति समाज
में न केवल असंतोष का भाव है वरन् अनेक निराश लोग तो उनके प्रति वैमनस्य का भाव भी
पालने लगे हैं।
कविवर रहीम कहते हैं कि
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तासों ही कछु पाइए, कीजै जाकी आस।
रीते सरवर पर गए, कैसे बुझै पियास।।
सामान्य
हिन्दी में भावार्थ-सूखी
तालाब पर जाने से प्यास शांत नहीं होती। उसी व्यक्ति से ही कुछ प्राप्त किया जा
सकता है जो दूसरों की आशाओं पर खरा उतरता है।
आर्थिक उदारीकरण ने राजकीय
क्षेत्र का दायरा संकुचित किया है तो निजी क्षेत्र के विस्तार ने चंद धनपतियों की
शक्ति इतनी बढ़ा दी है कि समाज की सभी आर्थिक, सामाजिक, नैतिक, प्रचार, कला तथा खेल पर नियंत्रण करने वाली संस्थाओं
पर उनका नियंत्रण हो गया है। जैसा कि सभी
जानते हैं कि धन का मद सबसे अधिक विषाक्त होता है और धनपतियों से यह आशा करना
व्यर्थ है कि वह अकारण किसी के साथ आर्थिक गठबंधन नहीं करते। उनको अपनी चाटुकारिता
तथा प्रशंसा पसंद होती है। सबसे बड़ी बात यह है कि वह किसी कलाकार, खिलाड़ी, समाज सेवक, तथा पत्रकार की सहायता केवल इसलिये नहीं कर सकते कि वह योग्य है वरन् उनका
दृष्टिकोण यह रहता है कि वह हमारा स्वयं का हित कितना साध सकता है?
हमें यह किसी पर आक्षेप नहीं
करना पर इतना अवश्य कहना चाहते हैं कि हमारे इस प्रकार के राजसी पुरुषों अपने अधीन
रहने वाले प्रचार माध्यमों पर अपनी छवि भले ही देवता जैसी बनायें पर समाज उनका
हृदय से सम्मान नहीं करता। आत्ममुग्ध होकर अपने स्वार्थ में लगे राजसी पुरुष भले
ही आत्ममुग्ध होकर रहे पर सच यही है कि जब तक कोई किसी का स्वार्थ सिद्ध नहीं करता
उसकी प्रशंसा नहीं हो सकती। यह बात सभी प्रकार के राजसी पुरुष समझ लें।
लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा "भारतदीप"
ग्वालियर, मध्यप्रदेश
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior, Madhya pradesh
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
ग्वालियर, मध्यप्रदेश
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2 comments:
अति सुन्दर आलेख है। इसकी जितनी प्रसंशा की जाए उतनी कम है।
अति सुन्दर आलेख। विषय संग्रहनीय है।
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