Friday, June 19, 2009

जमाना खो बैठा है सोच की धार-व्यंग्य शायरी

बाजार में जो बिकता
वही सच्चा है प्यार ।
तस्वीरों में हमदर्द दिखता
वही गरीबों का सच्चा है यार।
नकद नारायण
दिन रात चौगुना होता रहे
वह नंबर एक का है व्यापार ।
हकीकतों और उसूलों से
कितना भी दूर हो आदमी
कोई फर्क नहीं पड़ता
रौशनी की चकाचौंध में
आंखों से देखता हुआ
जमाना खो बैठा है सोच की धार।
..............................
जेठ की धूप में
जलते हुए उनका इंतजार करते रहे
उनके न आने पर
जमाने भर के ताने सहे।

फिर भी उनके दीदार नहीं हुए
बरसात की पहली फुहार भी
जलती आग सी लगी
कभी ख्वाब तो कभी हकीकत
लगती हैं उनकी यादें
इंतजार इतना लंबा होगा
यह कभी सोचना न था
जज्बातों की धारा में बस बहते रहे।

..........................
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

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