भारत की खिल्ली उड़ाने वाले विदेशी लोग इसे ‘‘साधुओं और सपेरों का देश कहा करते थे। भारत के बाहर प्रचार माध्यम इसी पहचान को बहुत समय आगे बढ़ाते रहे पर जिन विदेशियों ने उस समय भी भारत देखा तो पाया कि यह केवल एक दुष्प्रचार मात्र था। हालांकि अब ऐसा नहीं है पर अतीत की छबि अभी कई जगह वर्तमान स्वरूप में विद्यमान दिखाई देती है। इससे एक बात तो मानी जा सकती कि आधुनिक प्रचार माध्यमों के -टीवी, समाचार पत्र पत्रिकाऐं- अधिकतर कार्यकर्ता जनमानस में अपनी बात स्थापित करने में बहुत सक्षम है। इसी क्षमता का लाभ उठाकर वह अनेक तरह के भ्रम मी सत्य के रूप में स्थापित कर सकते हैं और अनेक लोग तो करते ही हैं। इस साधु और सपेरों की छबि से देश मुक्त हुआ कि पता नहीं पर वर्तमान में भी भारत की छबि को लेकर अनेक प्रकार के अन्य भ्रम यही प्रचार माध्यम फैलाते हैं और जिनका प्रतिकार करना आवश्यक है।
अगर हम इस पर बहस करेंगे तो पता नहीं कितना लंबा लिखना पड़ेगा फिर यह भी तय नहीं है कि बहस खत्म होगी कि नहीं। दूसरा प्रश्न यह भी है कि यह प्रचार माध्यम कार्यकर्ता कहीं स्वयं ही तो मुगालतों में नहीं रहते। पता नहीं बड़े शहरों में सक्रिय यह प्रचार माध्यम कर्मी इस देश की छबि अपने मन की आंखों से कैसी देखते हैं? मगर इतना तय है कि यह सब अंग्रेजी शिक्षा पद्धति से संपन्न है और यहां की अध्यात्मिक ताकत को नहीं जानते इसलिये अध्यात्म की सबसे मज़बूत भाषा हिन्दी का एक तरह से मज़ाक बना रहे हैं और यह मानकर चल रहे हैं कि उनके पाठक, दर्शक तथा श्रोता केवल कान्वेंट पढ़े बच्चे ही हैं या फिर केवल वही उनके अभिव्यक्त साधनों के प्रयोक्ता हैं। मज़दूर गरीब, और ग्रामीण परिवेश के साथ ही शहर में हिन्दी में शिक्षित लोगों को तो केवल एक निर्जीव प्रयोक्ता मानकर उस पर अंग्रेजी शब्दों का बोझ लादा जा रहा है।
अनेक समाचार पत्र पत्रिकाऐं अंग्रेजी भाषा के शब्द देवनागरी लिपि के शब्द धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहे हैं-कहीं तो कहीं तो शीर्षक के रूप में पूरा वाक्य ही लिख दिया जाता है। यह सब किसी योजना के तहत हो रहा है इसमें संशय नहीं है और यह भी इस तरह की योजना संभवत तीन साल पहले ही तैयार की गयी लगती है जिसे अब कार्यरूप में परिवर्तित होते देखा जा रहा है।
अंतर्जाल पर करीब तीन साल पहले एक लेख पढ़ने में आया था। जिसमें किसी संस्था द्वारा रोमन लिपि में हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को लिखने के लिये प्रोत्साहन देने की बात कही गयी थी। उसका अनेक ब्लाग लेखकों ने विरोध किया था। उसके बाद हिन्दी भाषा में विदेशी शब्द जोड़ने की बात कही गयी थी तो कुछ ने समर्थन तो कुछ ने विरोध किया था। उस समय यह नहीं लगा था कि ऐसी योजनायें बनाने वाली संस्थायें हिन्दी में इतनी ताकत रखती हैं कि एक न एक दिन उनकी योजना ज़मीन पर रैंगती नज़र आती हैं। अब यह बात तो साफ नज़र आ रही है कि इन संस्थाओं में व्यवसायिक लोग रहते हैं जो कहीं न कहीं से आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक शक्ति प्राप्त कर ही आगे बढ़ते हैं। प्रत्यक्षः वह बनते तो हिन्दी के भाग्य विधाता हैं पर वह उनका इससे केवल इतना ही संबंध रहता है कि वह अपने प्रयोजको को सबसे अधिक कमा कर देने वाली इस भाषा में निरंतर सक्रिय बनाये रखें। यह उन लोगों के भगवान पिता या गॉड फादर बन जाते हैं जो हिन्दी से कमाने आते हैं। यह उनको सिफारिशें कर अपने प्रायोजकों के साथ जोड़ते हैं-आशय यह है कि टीवी, समाचार पत्र पत्रिकाओं तथा रेडियो में काम दिलाते होंगे। हिन्दी भाषा से उनका कोई लेना देना नहीं है अलबत्ता कान्वेंट मे शिक्षित लोगों को वह हिन्दी में रोजगार तो दिला ही देते होंगे ऐसा लगता है। यही कारण है कि इतने विरोध के बावजूद देश के पूरे प्रचार माध्यम धड़ल्ले से इस कदर अंग्रेजी के शब्द जोड़ रहे हैं कि भाषा का कबाड़ा हुए जा रहा है। अब हिन्दी दो भागों में बंटती नज़र आ रही है एक आम आदमी की दूसरी खास लोगों की भाषा।
हिन्दी के अखबार पढ़ते हुए तो अपने ही भाषा ज्ञान पर रोना आता है। ऐसा लगता है कि हिन्दी भाषी होने का अपमान झेल रहे हैं। इससे भी ज्यादा इस बात की हैरानी कि आम आदमी के प्रति ऐसी उपेक्षा का भाव यह व्यवसायिक संस्थान कैसे रख रहे हैं। सीधी बात कहें तो देश का खास वर्ग और उसके वेतनभोगी लोग समाज से बहुत दूर हो गये हैं। यह तो उनका मुगालता ही है कि वह समाज या हिन्दी को अपने अनुरूप बना लेंगें क्योंकि इस देश का आधार अब भी गरीब, मज़दूर और आम व्यवसायी है जिसके सहारे हिन्दी भाषा जीवीत है। जिस विकास की बात कर रहे हैं वह विश्व को दिखाने तक ही ठीक हैं। उस विकास को लेकर देश के प्रचार माध्यम झूम रहे हैं उसकी अनुभूति इस देश का आम आदमी कितनी करता है यह देखने की कोशिश नहंी करते। उनसे यह अपेक्षा करना भी बेकार है क्योंकि उनकीभाषा आम आदमी के भाव से मेल नहीं खाती। वह साधु सपेरों वाले देश को दृष्टि तथा वाणी से हीन बनाना चाहते हैं। अपनी भाषा के विलुप्तीकरण में अपना हित तलाश रहे लोगों से अपेक्षा करना ही बेकार है कि वह हिन्दी भाषा के सभ्य रूप को बने रहने देंगे।
हिन्दी के कथित विकास के लिये बनी संस्थाओं में सक्रिय बुद्धिजीवी भाषा की दृष्टि से कितने ज्ञाता हैं यह कहना कठिन है अलबत्ता कहीं न कहीं अंग्रेजी के समकक्ष लाने के दावे वह जरूर करते हैं। दरअसल ऐसे बुद्धिजीवी कई जगह सक्रिय हैं और हिन्दी भाषा के लिये गुरु की पदवी भी धारण कर लेते हैं। उनकी कीर्ति या संपन्नता से हमें कोई शिकायत नहीं है पर इतना तय है कि व्यवसायिक संस्थानों के प्रबंधक उनकी मौजूदगी इसलिये बनाये रखना चाहते हैं कि उनको अपने लिये हिन्दी कार्यकर्ता मिलते रहें। मतलब हिन्दी के भाग्य विधाता हिन्दी के व्यववायिक जगत और आम प्रयोक्ता के बीच मध्यस्थ का कार्य करते हैं। इससे अधिक उनकी भूमिका नहीं है। ऐसे में नवीन हिन्दी कार्यकर्ता रोजगार की अपेक्षा में उनको अपना गुरु बना लेते हैं।
ऐसे प्रयासों से हिन्दी का रूप बिगड़ेगा पर उसका शुद्ध रूप भी बना रहेगा क्योंकि साधु और सपेरे तो वही हिन्दी बोलेंगे और लिखेंगे जो आम आदमी जानता हो। हिन्दी आध्यात्म या अध्यात्म की भाषा है। अनेक साधु और संत अपनी पत्रिकायें निकालते हैं। उनके आलेख पढ़कर मन प्रसन्न हो जाता है क्योंकि उसमें हिन्दी का साफ सुथरा रूप दिखाई देता है। अब तो ऐसा लगने लगा है हिन्द समाचार पत्र पत्रिकाऐं पढ़ने से तो अच्छा है कि अध्यात्म पत्रिकायें पढ़कर ही अपने हिन्दी भाषी होने का गर्व महसूस किया जाये। अखबार में भी वही खबरें पढ़ने लायक दिखती हैं जो भाषा और वार्ता जैसी समाचार एजेंसियों से लेकर प्रस्तुत की जाती है। स्थानीय समाचारों के लिये क्योंकि स्थानीय पत्रकार होते हैं इसलिये उनकी हिन्दी भी ठीक रहती है मगर आलेख तथा अन्य प्रस्तुतियां जो कि साहित्य का स्त्रोत होती हैं अब अंग्रेजीगामी हो रही हैं और ऐसे पृष्ठ देखने का भी अब मन नहीं करता। एक बात तो पता लग गयी है कि हिन्दी भाषा के लिये सक्रिय एक समूह ऐसा भी है जो दावा तो हिन्दी के हितैषी होने का है पर वह मन ही मन झल्लाता भी है कि अंग्रेजी में छपकर भी वह आम आदमी से दूर है इसलिये वह हिन्दी भाषा प्रचार माध्यमों में छद्म रूप लेकर घुस आया है। अंग्रेजी की तरह हिन्दी को वैश्विक भाषा बनाने का उसका इरादा केवल तात्कालिक आर्थिक हित प्राप्त करना ही है। वह हिन्दी का महत्व नहींजानता क्योकि आध्यात्मिक ज्ञान से परे हैं। हिन्दी वैश्विक स्तर पर अपने अध्यात्मिक ज्ञान शक्ति के कारण ही बढ़ेगी न कि सतही साहित्य के सहारे। ऐसे में हिन्दी की चिंदी करने वालों को केवल इंटरनेट के लेखक ही चुनौती दे सकते हैं पर मुश्किल यह है कि उनके पास आम पाठक का समर्थन नहीं है।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwaliorhttp://zeedipak.blogspot.com
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