Friday, October 01, 2010

दर्द को नकदी में भुना रहे हैं-हिन्दी कविता (dard ko nakdi mein bhuna rahe hain-hindi poem

इंसानी बुत भी अब
प्रायोजित तोते की तरह बोलने लगे हैं,
जज़्बातों को सिक्कों में तोलने लगे हैं।
जुबां उनकी चलती है
पर लफ्ज़ों की फसल कहीं
दूसरे के दिल में पलती है,
यकीनों को बचाने के लिये
ऐसे ही किराये के अक्लमंद
नफरत का ज़हर घोलने लगे हैं।
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कभी दिल को जाना नहीं
उसके टूटने का ग़म
ज़माने को सुना रहे हैं,
दर्द को वह इस तरह
नकदी में भुना रहे हैं।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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