Monday, February 03, 2014

बेबस आदमी नाखुश गुर्रा रहा है-हिन्दी व्यंग्य कविता(bebas aadmi nakhush gurra rahaa hai-hindi vyangya kavita)



आम इंसान की सांसों को थाम रही बढ़ती महंगाई,
विकास के स्वर्णिम रथ से बंट रही  गरीब को भलाई।
कहें दीपक बापू सबसे आसान है दिन में देखना सपने,
साकार करना कठिन हो तो लगें भगवान नाम जपने।
रिश्तों की डोर कभी टूटती नहीं यह सच बात है,
मगर मेहमानों की महंगी पड़ ही जाती एक रात है।
जेब में पैसा हो तो आशिक पर इश्क का भूत चढ़ता है,
खाली जेब से होता जब नाकाम दोष माशुका पर मढ़ता है।
दिमाग में सामान खरीदने की सूची बहुत लंबी बसी है,
मुश्किल है कुछ लोगों के हाथ दुनियां की हर शय फसी है।
परिवार और समाज टूटे अब खतरा इंसानी जज्बात पर आ रहा है,
दौलत बसी कुछ घरों में बाहर बेबस आदमी नाखुश गुर्रा रहा है।

लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा "भारतदीप"
ग्वालियर, मध्यप्रदेश 
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior, Madhya pradesh
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
 
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