जमाना बजा रहा ताली
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बाज़ार में सपने बिकते देखे।
खरीददार घुटने टेकते देखे।।
आत्मसम्मान मिट्टी में मिला
आजाद भेष में गुलाम देखे।।
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लालच के बने गुलाम-हिन्दी कविता
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देसी लोग
लिखपढ़कर विदेसी जैसे हो जाते हैं।
अपनी ज़मीन नहीं दिखती
विदेशी सोच में खो जाते है।
देखा नहीं लंदन
लगा रहे अंग्रेजी का चंदन
समझी नहीं गीता
गड़बड़ चिंत्तन से
अज्ञान का वाङ्मय ढो जाते हैं।
उठाते प्रश्न शोर मचाकर
फिर सो जाते हैं।
कहें दीपकबापू विचार के खजाने
खाली कर चुके अक्लमंद
हर हादसे पर
हमदर्दी में बस रो जाते हैं।
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हमसे वह बहुत बड़े हैं
हम ढूंढ रहे सफेद धन
बाहर लगी कतार में
करचारों के घर
लूटे बंडल पड़े हैं।
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