पुण्य का फल हर कोई मजे से चखता, पाप का हिसाब कभी नहीं रखता।
‘दीपकबापू’ कर ली ढेर सारी रौशनी, न जाने अंधेरों से भी कोई तकता।।
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जुबान से वार तो उन्होंने खूब किये हमने भी दिल पर पत्थर रखा।
जज़्बात को बचाने के लिये ढूंढ लिया एक बेजुबान पर मजबूत सखा।
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रुपहले पर्द पर नये दृश्य दिखते, समाचार भी कथाकार ही लिखते।
‘दीपकबापू’ नाटक में खेलें रक्तपात, हमदर्द भी शुल्क लेकर बिकते।।
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अपने वैभव का प्रचार भी स्वयं चलाते, भ्रम यह कि ज़माने को जलाते।
‘दीपकबापू’ सब जाने मिट्टी हो जायेगा, फिर भी सिक्कों में जीवन गलाते।
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उनकी अदाओं पर मर मिटे थे हम, खुशी पर हंसे दुःख में आंख हुई नम।
उन्होंनें जब से आकाश पर उड़कर देखा अब वह हमें पहचानने लगे कम।।
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बेबस की बलि से बलवान कहलाते, रक्त से महल अपना धनवान नहलाते।
‘दीपकबापू’ बेदर्दो की महफिल में बैठे, हमदर्दी के गीतों से मन बहलाते।।
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दाना डाले पक्षी छत पर आते ही हैं, लालच में इंसान फंस जाते ही हैं।
‘दीपकबापू’ न मिले तो त्यागी बनते, मारा दाव साहुकार कहलाते ही हैं।
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मतलब निकले तो बदल देते यार, आदर्श दिखायें करें लालच से प्यार।
सीधी चाल साफ चरित्र होता नहीं, ‘दीपकबापू’ नकली चेहरे करें तैयार।।
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