उसे वह बनाता भी है
अपनी दुकान में सौदागर सजाता भी है
अगर ऐसा नहीं होता तो
बरसों तक नहीं चलते
वह नाम जिनमें इंसानों के गुट बने हैं
कितनों के हाथ खून से सने हैं
लड़ झगड़ कर इंसान कंगाल होता
पर बाजार तो अमीर फिर भी हो जाता है
बहुत नाम होता है ईमानों का
वह भी शय बनी है सदियों से
किस इंसान का कौनसा है धर्म
बता देता है उसका कर्म
पोशाकों टोपियों के रंग से होता है जाहिर
कभी चेहरे पर ही लिखा मिल जाता है
कहीं तलवार तो कहीं तीर है पहचान
नाम है सर्वशक्तिमान का
पर दुनियां में बनी चीजों से
बढ़ती है उसके बंदों की शान
बनाये हैं जिन्होंने ईमान
उनके निभाने की कोइ शर्त नहीं रखी
कभी उसके नाम पर मिठाई नहीं नहीं चखी
पर त्यौंहारों पर त्यौहार बनाता गया बाजार
आम इंसान तो रहा है वहमों का शिकार
कुछ पल की खुशियों की खातिर
बनकर जाता है खरीददार
सौदागरों के लिये फायदे की शय बन जाता है
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2.दीपक भारतदीप का चिंतन
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4.अनंत शब्दयोग
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
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