Sunday, March 22, 2009

कार्टून अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है-आलेख

अगर विषय और प्रस्तुति दमदार हो तो कार्टूनों को रंग लगाने की आवश्यकता भी नहीं होती। एक बड़ी दुनियां को थोड़े से में समेट लेना ही होता है किसी कार्टूनिस्ट का कमाल। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जिसे कार्टून आकर्षित न करता हो। पढ़ा लिखा हो या नहीं व्यक्ति को कागज पर बने रेखाचित्र अपनी तरफ बरबस खींच ही लेते है। यही कारण है कि बालकों की पत्र पत्रिकाओं में अधिकतर रेखाचित्रों से बनी सामग्री को अधिक स्थान दिया जाता है।

पहले मोटू पतलू और शेख चिल्ली की रेखाचित्रों से सजी हास्य व्यंग्य सामग्री खूब लुभाती थी। कहने को वह पत्रिकायें बच्चों की थी पर उसे पढ़ते बड़े और छोटे सभी थे। यही कारण है कि देश के अधिकतर अखबार अपने प्रथम पृष्ठ पर ही कार्टून छापते हैं भले ही उसके लिये उनके पास विज्ञापन के कारण जगह कम पड़ती हो। वैसे कार्टूनों की बात की जाये तो कुछ वर्ष पहले जनसत्ता में एक कार्टूनिस्ट काफी लोकप्रिय रहे। उनका नाम शायद काक है । उनके कार्टून लोगों को बहुत अच्छे लगते थे। एक आम आदमी के रूप मेेंं वहां जो पात्र गढ़ा गया था वह भारत के आम आदमी के बीच का लगता था।
उनका एक कार्टून बहुत अच्छा लगा था। उन दिनों पानी की तंगी सभी जगह थी। एक औरत ने नल के नीचे बाल्टी रखी थी जिसमें बूंद बूंद कर पानी आ रहा था। वह आम आदमी उसे घूर कर देख रहा था और वह औरत उससे गुस्से मेंे कहती है कि ‘अब नजर न लगा। बूंद बूंद ही सही पानी आ तो रहा है।’

ऐसे बहुत से कार्टून काक साहब ने बनाये। अब तो जनसत्ता देखने का अवसर ही नहीं मिल पाता इसलिये कहना कठिन है कि अब उसमें कार्टून आते हैं कि नहीं बहरहाल हमें काक साहब के कार्टून बहुत अच्छे लगते थे और सच बात तो यह है कि वैसे कार्टून फिर कहीं देखने को नहीं मिले।
कहने को कई कार्टूनिस्ट भारत में हैं पर वह रानजीतिक विषयों पर सीधे सीधे कार्टून बनाने के कारण आम लोगों को वह बहुत कम पसंद आते हैं। कार्टूनों में आम आदमी की समस्याओं और प्रतिक्रियाओं की व्यंजनात्मक अभिव्यक्ति हो तो उसका अलग ही मजा आता है। वैसे यही हाल देश के व्यंग्यकारों का है। वह सीधे राजनीतिक विषयों पर लिखते हैं। देखा जाये तो वह अपने निबंध को व्यंग्य कहते हैं। व्यंग्य का अर्थ ही यह है कि वह व्यंजना विद्या में हो। जिस पर आप व्यंग्य लिख रहे हैं और उसका सीधा नाम ही लिख दिया तो फिर काहे का व्यंग्य? यही स्थिति कार्टूनिस्टों की है। अगर देखा जाये तो किसी भी विषय पर हास्यात्मक या व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति की विद्या ही कार्टून को कार्टून बनाती है। कार्टून को प्रभावी तभी माना जाता है जब उसे देखते ही आदमी के अधरों पर हंसी आ जाये। फिर उसमें जो शब्द हों वह जोर से हंसने को बाध्य कर दें।

जनसत्ता जब अपने चरम पर था तब उसमें काक साहब के कार्टूनों की लोकप्रियता का भी योगदान था। हालांकि उस समय देश के एक अंग्रेजी दैनिक के कार्टूनिस्ट को ही सबसे अधिक प्रसिद्ध माना जाता था पर सच बात तो यह है कि उनके जो कार्टून हिंदी में देखे वह कभी इतने प्रभावशाली नहीं लगे। तब से यह बात लगने लगी है कि भारत में हिंदी को लेकर हिंदी के प्रचार माध्यमों मेंे ही पूर्वाग्रह है। काक साहब के कार्टून उस समय बहुत प्रभावशाली थे पर हिंदी के अखबार गाते अंग्रेजी के कार्टूनिस्ट के थे। हालांकि अब भी अनेक कार्टूनिस्ट हैं पर उनका प्रभाव वैसा नहीं है। इसका कारण यह है कि वह एक तो राजनीतिक विषयों पर ही अधिक कार्टून बनाते हैं और वह भी सीधे ही अपनी बात कहते हैं। दूसरे आम आदमी और समाज के विषयों पर बहुत कार्टूनिस्ट अपनी रचना कम ही करते हैं। इसके बावजूद लोग उनको पढ़ते हैं क्योंकि हर आदमी की यह चाहत होती है कि कहीं हंसाने के लिये कुछ मिले। हम तो कार्टून को देखते ही लपककर देखने लगते हैं और यह एक सच्चाई है कि बहुत कम कार्टूनिस्ट प्रभावी रचनायें कर रहे हैं। हमें कार्टून बनाना नहीं आता वरना क्यों व्यंग्य कवितायें लिखते। कार्टून के माध्यम से जो बात कही जा सकती है उसका कोई मुकाबला नहीं है। जिस तरह व्यंग्यकार व्यंग्य लिख सकते हैं पर कार्टून नहीं बना सकते वैसे ही सभी कार्टूनिस्ट रेखाचित्र तो बना सकते हैं पर उसमें व्यंग्य पैदा नहीं कर सकते। संभवतः अखबारों में काम करने वाले कार्टूनिस्ट इसलिये अधिक लोकप्रिय होते हैं क्योंकि वह अपने साथ कम करने वाले विद्वानों से विभिन्न विषयों पर निरंतर चर्चा करते हैं रहते हैं जिसके कारण उनके लिखने में भी धार आती है। बहरहाल इसमें कोई संदेह नहीं है कि कार्टून अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम हैं।
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