नृत्य करते हुए
ऊपर गालिया दागते हुए
लोग बन्दर जैसे नजर आते
और बन्दर कहो तो चिढ जाते
किससे कहें अपने मन की बात
इंसानों के भेष में में सांप-बिच्छू , भेडिये
और सियार हमारे सामने आते
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किताबों पढ़कर चंद शब्द लेकर
चल रहे हैं साथ लेकर उपाधियों के झुंड
दिखते हैं नरमुंड
बोलते हैं प्यार से जैसे अपने हों
दिखाते हैं ऐसे सच जो सिर्फ सपने हों
मौका पाते ही पीठ में चुरा घोंप जाते
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कितनी बार तो निकला होगा
लहू हमारी पीठ से
जब भी पाला पडा किसी ढीठ से
अब तो चेहरे पर नकाब लगाकर
वह कत्ल नहीं करते
मुट्ठी में सब बंद है सब फैसले उनके
बिना जिरह के ही फ़ैसले करते
विश्वास करने की सजा
धोखा कर दे जाते
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1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका
4.अनंत शब्दयोग
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
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